सारांश
पृथ्वी पर एक व्यक्ति का जीवन गर्भधारण के समय से आरम्भ हो जाता है । यह उसके प्रारब्ध के अनुसार होता है । साधारणत: गर्भधारण के तीसरे माह के पश्चात ही सूक्ष्म शरीर गर्भ में प्रवेश करता है । सूक्ष्म शरीर गर्भ में व्यस्क जैसी चेतना बनाए रखता है । साधना गर्भकाल को सुखद कर सकती है, श्रेष्ठ सूक्ष्म शरीर को आकर्षित कर सकती है और भ्रूण पर साधना का संस्कार करने में मदद कर सकती है । गर्भकाल के समय में आने वाली कठिनाईयों का मूलकारण अधिकतर आध्यात्मिक होता है । गर्भस्खलन, मृत शिशु और गर्भपात की दशा में यह और भी अधिक होता है ।
इस लेख को समझने के लिए आपको निम्न लेखों से परिचित होने की आवश्यकता होगी :
- जन्म से पूर्व जीवन (भाग१) : गर्भधारण होने से पूर्व
- सत्व, रज, तम
- भूत क्या हैं ?
- पितृ दोष
- प्रारब्ध और कर्म का सिद्धान्त
विषय सूची
१. पुनर्जन्म प्रक्रिया और गर्भकाल में जीवन का परिचय
‘जन्म से पूर्व जीवन (भाग १) : गर्भधारण होने से पूर्व’ इस लेख में हमने वर्णन किया है कि कैसे एक सूक्ष्म शरीर अपने आध्यात्मिक स्तर और गुण-अवगुणों के अनुसार ब्रह्मांड के १३ लोकों में से किसी एक लोक में रहता है । उस सूक्ष्म लोक में वह अपने गुण-दोषों के अनुसार विभिन्न प्रमाण में सुख अथवा दु:ख का अनुभव करता है । पृथ्वी पर अपना अगला जन्म होने तक वह वहीं रहेगा । एक मनुष्य का पुनर्जन्म जीवाणु, विषाणु, एक पौधे अथवा एक मनुष्य के रूप में हो सकता है । इस लेखमें हम मनुष्य के पुर्नजन्म की, गर्भधारण के समय से लेकर जन्म तक की, प्रक्रिया के आध्यात्मिक दृष्टिकोणों का वर्णन करेंगे ।
सूक्ष्म शरीर के गर्भधारण से लेकर जन्म तक की यात्रा में आने वाली अडचनों के इन दृष्टिकोणों का हमने प्रश्न-उत्तर की श्रृंखला के स्वरूप में वर्णन करने का प्रयास किया है ।
इस लेख की सारी जानकारी आध्यात्मिक शोध प्रणाली से प्राप्त की गई है ।
२. सूक्ष्म शरीर का गर्भ में प्रवेश
२.१ क्या सूक्ष्म शरीर, जन्म लेने से पूर्व, किसी प्रतीक्षालय में होता है ?
पृथ्वी पर जन्म लेने से पूर्व सूक्ष्म शरीरों के एकत्र होने के लिए कोई प्रतीक्षालय नहीं होता ।
(शरीर की मृत्यु के बाद सूक्ष्म शरीर तुरन्त एक सूक्ष्म लोक में जाता है जिसे मृत्यलोक कहते हैं । अन्तिम गंतव्य स्थान पर पहुंचने से पहलेका यह ब्रह्मांड का एक लोक है । सन्दर्भ लेख : मृतकों का लोक)
भूलोक पर आने से पूर्व स्वर्ग अथवा उससे ऊपर के लोकों और पाताल अथवा उससे ऊपर के तीन लोकों से सूक्ष्म शरीर, पहले भुवलोक में आते हैं । परिवर्तन का यह काल बहुत छोटा, केवल कुछ सेकंड का होता है । पृथ्वी पर पुनर्जन्म के लिए वापस आने वाले सभी सूक्ष्म शरीरों को क्षणभर के लिए मृत्यलोक से निकलना पडता है ।
२.२ पुनर्जन्म और गर्भधारण का समय
२.२.१ सूक्ष्म शरीर को कब पता चलता है कि इसका जन्म कहां होगा ?
सूक्ष्म शरीर को गर्भधारण के समय पता चलता है कि इसका जन्म कहां होगा
(नोट : ७०-८०% घटनाओं में गर्भधारण के समय निर्धारित सूक्ष्म शरीर पूरे गर्भकाल के समय बना रहता है और अन्तत: जन्म लेता है । २० – ३० % घटनाओं में ऐसा भी हो सकता है की कोई अन्य सूक्ष्म देह जिसका अधिक लेन- देन हिसाब हो तथा जन्म लेने के लिए परिस्थितियां उसके अनुकूल हों तो वह सूक्ष्म देह पहले वाले सूक्ष्म देह को हटा कर स्वयं स्थित हो जाता है । )
यह इन कारणों से भी हो सकता है :
- मां की साधना अथवा
- मां – पिता जी द्वारा किये गए धार्मिक अनुष्ठान अथवा
- अधिक शक्तिशाली भूतों के साथ मिल कर किसी पूर्वज का हस्तक्षेप
सन्दर्भ लेख : “क्या कोई स्त्री गर्भधारणा के समय किसी उन्नत तथा सात्विक सूक्ष्म देह को गर्भ में आने ले लिए आकर्षित कर सकती है ?”
२.२.२ सूक्ष्म शरीर को गर्भधारण के समय का ज्ञान कैसे होता है ?
निम्नलिखित को ध्यानमें रखते हुए, यह बहुत आश्चर्य की बात है कि सूक्ष्म शरीर को गर्भधारण का सही समय कैसे पता चलता है और यह भी आश्चर्य की बात है कि गर्भधारण के बाद बना एक विशेष युग्मनज (zygote) इस सूक्ष्म शरीर के लिए बना है ।
- सूक्ष्मलोकों में करोडों सूक्ष्म शरीर हैं
- करोडों में से कोई एक जन्म लेता है
- माता-पिता गर्भधारण के लिए कई महीनों से प्रयासरत हो सकते हैं ।
इसलिए अनुपात और विस्तार को ध्यानमें रखते हुए जिस प्रकार से एक सूक्ष्म शरीर का एक परिवार से मेल होता है, उसी प्रकार वह सूक्ष्म जगत में सब कुछ स्पन्दन और आवृत्तियों के अनुसार कार्य करता है । होने वाले माता-पिता के साथ लेन-देन खाते के अनुसार, एक सूक्ष्म शरीर अनजाने ही गर्भधारण के समय लेन-देन खाते के स्पन्दनों के द्वारा कोख में खिंचा चला आता है । इस विषय में इसे चुनने का कोई अधिकार नहीं होता; क्योंकि यह होनेवाले परिवार की ओर आकर्षित होता है ।
२.२.३ सूक्ष्म शरीर वास्तव में गर्भ में कब प्रवेश करता है ?
जैसा कि पहले स्पष्ट किया गया है कि सूक्ष्म शरीर यह जानता है कि गर्भधारण के बाद बना एक विशेष युग्मनज (zygote) इस सूक्ष्म शरीर के लिए है ।
गर्भ के प्रथम तीन महीनों में सूक्ष्म शरीर अधिकतर उसी सूक्ष्मलोक में रहता है जहां से वह आया है; गर्भ में प्राय: नहीं आता । तीसरे महीने के बाद सूक्ष्म शरीर अधिकतर गर्भ में निवास करता है । गर्भ में प्रवेश का समय एक से दूसरे सूक्ष्म शरीर से अलग हो सकता है । गर्भ प्रवेश का समय तीसरे महीने से लेकर सातवें महीने तक हो सकता है । सूक्ष्म शरीर जितना अधिक पृथ्वी की ओर आने वाला होगा उतना शीघ्र यह गर्भ में स्थान ले लेगा ।
यह सारी प्रक्रिया एक घर बनाने के समान है । साधरणत: हम निर्माण आरम्भ होने के समय ठेकेदार से बात करने के लिए उपस्थित होते हैं । बीच-बीच में हम घर का निर्माण जांचने के लिए जाते हैं । अन्त में हम घर में तभी जाते हैं जब घर पूर्ण हो जाता है । गर्भधारण के समय से तीसरा महीना निर्माण के समान है । तीसरे महीने के बाद भ्रूण का इतना विकास हो जाता है कि सूक्ष्म शरीर का प्रवेश हो सके । यह निवासी के लिए घर तैयार होने के समान है ।
सूक्ष्म ज्ञान पर आधारित यह चित्र सूक्ष्म शरीर के भुवलोक से गर्भ के भ्रूण में प्रवेश के मार्ग को दर्शाता है । भुवलोक से गर्भ में प्रवेश करते हुए सूक्ष्म शरीर पर पूर्वजों की काली शक्ति अथवा भूतों के आक्रमण होते हैं ।
२.२.४ गर्भकाल के पहले ३-७ माह में सूक्ष्म शरीर भ्रूण में आता-जाता क्यों रहता है ?
सूक्ष्मलोक के बाद, सूक्ष्म शरीर के रहने के लिए भ्रूण और गर्भ, नया वातावरण होता है । सूक्ष्म शरीर पिछले जन्म का भौतिक शरीर छोडने के बाद भी स्वयं को उसी आकार का समझता है जो इसके पिछले जन्म में था । अत: गर्भधारण के समय युग्मनज का बहुत छोटा आकार इसे भयावह लगता है । वास्तव में यह बाधा मानसिक स्तर की है; क्योंकि सूक्ष्म शरीर कोई भी रूप अथवा आकार ले सकता है । गर्भ के तीसरे माह तक गर्भाशय इतना बडा हो जाता है कि सूक्ष्म शरीर उसमें प्रवेश कर सके । फिर भी सूक्ष्म शरीर भ्रूण छोडकर सूक्ष्म लोक में आता-जाता रहता है । समय बीतने के साथ-साथ सूक्ष्म लोक में आना जाना कम हो जाता है और ७ वें माह के बाद यह गर्भ में स्थायी हो जाता है । ऐसा इसलिए क्योंकि इस समय तक इसकी आसक्ति पहले के सूक्ष्म लोक से कम होकर पृथ्वी की ओर होने लगती है ।
२.२.५ सूक्ष्म शरीर गर्भाशय के भ्रूण में कैसे प्रवेश करता है ?
सूक्ष्म शरीर भ्रूण में कई मार्गों से प्रवेश कर सकता है । ७०% सूक्ष्म शरीर भ्रूण में त्वचा के माध्यम से प्रवेश करते हैं और ३०% अन्य रन्ध्रों जैसे मुख, नासिका इत्यादि ।
२.२.६ क्या होने वाली मां को सूक्ष्म शरीर के प्रवेश होने के समय का पता चलता है ?
यदि होने वाली मां का आध्यात्मिक स्तर ७०% से अधिक है, तो वह सूक्ष्म शरीर के प्रवेश की संवेदना को अनुभव कर सकती है । साधारणत: ऐसी माताएं उच्च आध्यात्मिक स्तर के बालक को धारण करती हैं ।
२.२.७ क्या होने वाले शिशु का प्रारब्ध तभी से प्रारम्भ हो जाता है जब वह मां के गर्भ में प्रवेश करता है अथवा यह ९ माह के जन्म के बाद प्रारम्भ होता है ?
होने वाले शिशु का प्रारब्ध गर्भधारण के समय से ही प्रारम्भ हो जाता है ।
३. गर्भ का समय
३.१ सूक्ष्म देह को भय की संवेदना
अज्ञात से भयभीत होने की हमारी स्वभाविक प्रकृति है । पुनर्जन्म की सारी प्रक्रिया और सूक्ष्म शरीर का गर्भ में प्रवेश ज्ञात से ( अर्थात सूक्ष्म जगत से ) अज्ञात की ओर (गर्भ में) आना है । सूक्ष्म शरीर के लिये गर्भ पूर्णत: अज्ञात परिस्थिति है, अत: यह विभिन्न प्रमाण में भय अनुभव करता है ।
सूक्ष्म शरीर के मन पर दीर्घ काल तक पूर्ण विकसित मानव शरीर का संस्कार पूर्व जन्म से रहता है । अत: गर्भ में बन्दी होना इसके लिए अत्यधिक कष्टप्रद है । ऐसी घटनाओं में जहां जिस परिवार में उनका जन्म होना है, उससे उन्हें प्रतिशोध लेना है अथवा कोई तीव्र इच्छा पूर्ण होने की प्रतीक्षा में है, ऐसे में तो वह सूक्ष्म देह आतुरता से इस यातना को जन्म से पूर्व स्वीकार कर लेता है ।
३.२ पूर्वजन्म की पूर्ण चेतना
गर्भ में सूक्ष्म शरीर की पिछले सूक्ष्म लोक की पूर्ण विकसित चेतना होती है । यह जन्म के समय तक रहती है । जन्म के समय भी पूर्वजन्म के लोक की कुछ चेतना रहती है और उसके बाद माया नवजात शिशु के पूर्वजन्म की चेतना को धुंधला कर देती है । जैसे-जैसे जीवन में जीव अधिक फंसता जाता है, वैसे-वैसे पिछले जन्म को भूल जाता है ।
निम्न आकृति दर्शाती है कि हममें से कितने लोगों को पूर्वजन्म की याद रहती है ।
४. गर्भकाल के समय जटिलताएं
गर्भकाल के समय लगभग ४० % जटिलताएं जैसे अत्यधिक और लंबे समय तक चलने वाली प्रातः क्लेश (morning sickness) इत्यादि आध्यात्मिक कारणों से होती है । (शारीरिक कारण ३०% व मानसिक कारण ३० % होते हैं ।) मुख्य रूप से आध्यात्मिक कारण मां का प्रारब्ध एवं पूर्वज, जो कष्ट को बढा देते हैं ।
५. गर्भपात और मृत शिशु
आध्यात्मिक शोध के द्वारा गर्भपात और मृत शिशु के सामान्यत: निम्नलिखित कारण पाए गए हैं ।
गर्भपात और मृत शिशु का कारण प्रमुख रूप से अध्यात्मिक है । मां और भ्रूण के बीच लेन-देन खाते के अतिरिक्त गर्भपात और मृत शिशु होने में पूर्वजों की एक बडी भूमिका रहती है । मृत शिशु और गर्भपात साधारणत: नकारात्मक लेन-देन की एक घटना है जहां मरने के कारण भ्रूण विशेषत: होने वाली मां और परिवार को दु:ख देता है । भ्रूण को आने वाली इस घटना के बारे में पहले से जानकारी नहीं होती ।
५.१ मृत शिशु के सूक्ष्म शरीर कहां जाते हैं ?
मृत शिशु के सूक्ष्म शरीर और गर्भपात व गर्भस्खलन, उसी मार्ग से जाते हैं जैसे कि वयस्क लोगों के सूक्ष्म शरीर । अत: मृत्यु के बाद का गंतव्य स्थल उनके पिछले जन्म के आध्यात्मिक स्तर और गुण-दोषों से निर्धारित होता है ।
६. गर्भपात की आध्यात्मिक अडचनें
प्रत्येक गर्भपात के साथ सदैव एक तीव्र लेन-देन खाता सूक्ष्म शरीर और माता-पिता के बीच या तो पूर्ण होता है या फिर निर्माण होता है । लेन-देन खाते के अतिरिक्त भी गर्भपात का अर्थ है एक जीव को समाप्त कर देना, जिससे एक पाप या दोष निर्माण होता है । ऐसा इस कारण है कि पृथ्वी पर जीवन अनमोल है क्योंकि केवल यही लोक है जहां ईश्वर प्राप्ति के अन्तिम उद्देश्य से आध्यात्मिक उन्नति हो सकती है ।
एक भ्रूण की हत्या की तीव्रता किसी वयस्क की हत्या से कम है । निम्न सारणी विभिन्न प्रकार के लोगों की हत्या के पाप की तुलनात्मक जानकारी देती है ।
पापकर्म की मात्रा का सापेक्ष मापदण्ड
हत्या करने का पापकर्म | पापकर्म की मात्रा का सापेक्ष |
---|---|
भ्रूण हत्या (गर्भपात) |
१-५ |
ऐसा व्यक्ति, जिस पर कोई निर्भर नहीं है |
१० |
ऐसा व्यक्ति, जिस पर परिवार निर्भर है |
३० |
ऐसा व्यक्ति, जो समाज पर अच्छा प्रभाव डाल रहा है |
३० |
ऐसा व्यक्ति, जो राष्ट्र पर अच्छा प्रभाव डाल रहा है |
५० |
सन्त, अर्थात ७०% आध्यात्मिक स्तर का व्यक्ति (मनुष्यमात्र के आध्यात्मिक विकास का दीपस्तंभ) |
१०० |
तुलनात्मक स्तर को ध्यान में रखते हुए एक संत की हत्याका अर्थ है सौ इकाई पाप; इस तुलना के अनुसार गर्भपात द्वारा भावी व्यक्ति की हत्या का पाप एक इकाई है । इस अंतर का मुख्य कारण यह है कि व्यक्ति द्वारा समाज के लिए किये जा रहे सकारात्मक कृति को ध्यान में रखा जाता है ।
यदि हम गर्भपात के उद्देश्य को ध्यान में रखें तो निम्न सारणी पाप का तुलनात्मक मार्गदर्शन करती है । इस सारणी में एक व्यक्ति की हत्या को हम १०० इकाई सन्दर्भ बिन्दु लेते हैं ।
गर्भपात करने के उद्देश्य पर निर्भर पाप की मात्रा
अभिभावकों का गर्भपात करने का उद्देश्य | पाप की मात्रा (प्रतिशतमें)* |
---|---|
चिकित्सकीय |
३०% |
अकस्मात गर्भधारणा |
३०% |
आर्थिक |
३०% |
सामाजिक / मानसिक |
५०% |
गर्भपात के निर्णय में सम्मिलित परिवार के सदस्य एवं चिकित्सक गर्भपात के पाप में सहभागी होते हैं । इस नियम का अपवाद केवल यह है कि जब गर्भपात का निर्णय मां का जीवन बचाने के वैद्यकीय कारणों से लिया गया हो अथवा उसकी साधना में बाधक होने के कारण से निर्णय लिया गया हो ।
यहां हम साधना का प्रयोग साधना के छ: मूलभूत सिद्धान्तों के सन्दर्भ में करते हैं जहां एक व्यक्ति मातृत्व को जीवन के उच्चतम उद्देश्य के लिये त्याग करता है अर्थात अपना जीवन पूर्णत: ईश्वर प्राप्ति के लिए समर्पित करता है और अन्यों को भी इस प्रक्रिया में सहायता करता है । योग्य परिपेक्ष्य और आध्यात्मिक परिपक्वता के साथ यह निर्णय लेनेके लिए व्यक्ति का न्यूनतम आध्यात्मिक स्तर ५० % होना चाहिए । वर्तमानकाल में एक सामान्य व्यक्ति के आध्यात्मिक स्तर लगभग २०-२५ % है ।
यदि गर्भपात आध्यात्मिक के अतिरिक्त किसी अन्य कारणवश किया गया है तो भ्रूण के सूक्ष्म शरीर के साथ नकारात्मक लेन-देन के अतिरिक्त पाप भी सम्मिलित होता है ।
अनेक बार जब लोगों को पता चलता है कि जन्म लेने वाले बालक को गम्भीर विकलांगता है, तो वे गर्भपात का निर्णय लेते हैं । परन्तु यदि यह मां और बच्चे का कुछ इकाई कष्ट सहने का प्रारब्ध है, तो इस परिस्थिति से भागने का प्रयास करना निरर्थक है; क्योंकि यह उन दोनों पर किसी न किसी अन्य जन्म में आने वाला ही है ।
७. गर्भ में सूक्ष्म शरीर पर पूर्वजों / भूतों (राक्षस, पिशाच, अनिष्ट शक्तियां इत्यादि) का प्रभाव
पूर्वज, विशेषत: जिनके पास उच्च आध्यात्मिक शक्ति है अथवा शक्तिशाली भूतों जैसे मान्त्रिक इत्यादि की सहायता से सूक्ष्म शरीर को गर्भ में ही लक्ष्य बना सकते हैं ।
सन्दर्भ लेख : “मुझसे बिछडे मेरे प्रिय और मेरे अन्य पूर्वज मुझे यातना क्यों देना चाहते हैं ?”
यह इन कारणों से हो सकता है :
- पूर्वजों के लिए कुटुम्ब द्वारा आध्यात्मिक विधि करने के लिए ध्यान आकर्षित करना
- सूक्ष्म शरीर पर गर्भ में ही नियन्त्रण प्राप्त करना
- भ्रूण को कष्ट देकर उससे बदला लेना
- भ्रूण को प्रभावित कर, उसके माध्यम से गर्भवती मां को कष्ट देकर बदला लेना । ऐसी घटनाओं में मां सामान्यत: कठिन गर्भावस्था और तीव्र प्रात: क्लेश (extended severe morning sickness), उच्च रक्तचाप से पीडित रहती है ।
- भ्रूण को कष्ट देकर अभिभावकों से प्रतिशोध लेना
- जन्म लेने वाले बालकों में व्यसनाधीनता के बीज बोना । सन्दर्भ लेख : “व्यसनाधिनता के कारण तथा उपचार – आध्यात्मिक शोध तथा उपचार पद्धतियां“
आध्यात्मिक शोध दर्शाता है कि सामान्य जनता के मामले में, ३०% अनिष्ट शक्तियों से प्रभावित होते हैं ओर ७०% भ्रूण गर्भ में ही दिवंगत पूर्वजों अथवा भूतों से ग्रस्त होते हैं । किसी पूर्वज अथवा किसी भूत के लिए भ्रूण को प्रभावित करना सरल है, जब वह सबसे असुरक्षित अवस्था में है । कभी-कभी प्रतिशोध (बदला) लेने का प्रयत्न कर रहे दिवंगत पूर्वज की आध्यात्मिक शक्ति कम होती है । पूर्वज अभी भी प्रतिशोध लेने की इच्छा रख सकते हैं । प्रतिशोध लेने की पूर्णत: नकारात्मक इच्छा को अपने आप ही उच्च स्तरके शक्तिशाली भूत से आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है ।
८. मां के सकारात्मक प्रभाव की भूमिका
८.१ क्या कोई स्त्री अधिक उन्नत और सात्त्विक सूक्ष्म शरीर को अपने गर्भाधान के समय आकर्षित कर सकती है ?
हां, एक स्त्री साधना द्वारा अधिक विकसित / उन्नत और सात्त्विक सूक्ष्म शरीर को अपने गर्भाधान के समय आकर्षित कर सकती है । इसके लिए उसकी साधना तीव्र होनी चाहिए (प्रतिदिन कम से कम ४ से ५ घण्टे गुणात्मक साधना) जिससे कि उसका आध्यात्मिक स्तर ४० % से अधिक हो जाए । इस आध्यात्मिक स्तर से अधिक स्त्रियां जब गर्भवती होती हैं, तब वे अधिक सात्त्विक और उन्नत शरीर को अपने गर्भ में आकर्षित करने में सक्षम होती है । यह स्वयं ही होता है, इसके लिए कोई प्रार्थना अथवा अन्य प्रयास आवश्यक नहीं है ।
यहां ध्यान रखने योग्य बात यह है कि यहां किसी भी प्रकार की साधना तथा उसका प्रमाण महत्त्वपूर्ण नहीं है; अपितु उस साधना से आध्यात्मिक प्रगति होना आवश्यक है । केवल जब हम साधना का अभ्यास अध्यात्म के छ: मूलभूत सिद्धान्तों के अनुसार करते हैं तभी हमारी अध्यात्मिक प्रगति होती है । इसके परिणामस्वरूप आध्यात्मिक स्तर निरन्तर बढता है । एक सात्त्विक सूक्ष्म शरीर की विशेषताएं होती हैं – अच्छी बौद्धिक क्षमता, अच्छा व्यक्तित्व और सबसे महत्त्वपूर्ण है अध्यात्म की ओर झुकाव ।
८.२ होने वाली मां द्वारा की जा रही साधना का भ्रूण पर क्या प्रभाव होता है ?
जब होने वाली मां की साधना से उसका आध्यात्मिक स्तर ४० % से अधिक हो जाता है तो गर्भ में पल रहा भ्रूण मां की सकारात्मकता से प्रभावित होता है । होनेवाली मां का आध्यात्मिक स्तर ४० % से अधिक होने पर वह सात्त्विकता (सूक्ष्म मूलभूत सत्त्व घटक) प्रक्षेपित कर सकती है और यह सात्त्विकता भ्रूण को प्रभावित करती है ।
होने वाली मां द्वारा निरन्तर नामजप किए जाने से होने वाले बच्चे के अवचेतन मन में जप का एक संस्कार निर्माण हो जाता है।
यद्यपि सूक्ष्म शरीर गर्भावस्था की पहली तिमाही में गर्भ में नहीं है, तब भी गर्भ अधिक सात्त्विक हो जाता है और उसे इसका लाभ मिलता है ।
मां से प्राप्त सात्त्विकता गर्भावस्था और भ्रूण से सम्बन्धित समस्याओं के उन्मूलन में सहायक होती है । जैसा कि पहले कहा गया है साधारणत:, गर्भावस्था की ३० % समस्याएं शारीरिक कारणों से और अन्य ३० % मानसिक कारणों से और शेष ४० % आध्यात्मिक कारणों से होती हैं । आध्यात्मिक कारणों में प्रारब्ध, लेन-देन हिसाब और पूर्वजों के कष्ट सबसे अधिक होते हैं । प्राप्त की गई सात्त्विकता का प्रयोग गर्भावस्था में आध्यात्मिक कारणों को कम करने के लिए अथवा समाप्त करने के लिए प्रयोग किया जाता है । इसके एक अन्य प्रभाव के रूप में मानसिक समस्याओं जैसे नकारात्मक सोच इत्यादि को दूर करने में सहायता होती है ।
आध्यात्मिक स्तर बढने के अतिरिक्त साधना का एक सबसे महत्त्वपूर्ण लाभ यह है कि इससे लेन-देन खाता नष्ट होता है जो गर्भावस्था में एक मुख्य बाधा हो सकती है । यदि बाधाएं आनी ही हैं, तो साधना द्वारा माता-पिता को उनसे ऊपर उठने की आंतरिक शक्ति मिलती है और वे इससे कम से कम प्रभावित होते हैं । साधना से उत्पन्न आध्यात्मिक शक्ति भ्रूण की आवश्यकता अनुसार एक विशिष्ट स्तर अथवा सामान्य स्तर पर बाधाओं को दूर कर सकती है । उदाहरण के लिए सामान्य स्तर पर इसका प्रयोग इस मां से जन्मे हुए बालक की विकलांगता (autistic) को कम करने के लिए हो सकता है । विशिष्ट स्तर पर इसका उदाहरण है कि भ्रूण की प्रारब्ध अनुसार होने वाले अंधेपन में कमी आ सकती है ।
मां द्वारा निरन्तर साधना करने के परिणामस्वरूप भ्रूण के आध्यात्मिक स्तर को बढाने में केवल सीमित स्तर पर ही सहायक होती है (०.१ %) । सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मां द्वारा निरन्तर साधना भ्रूण के अवचेतन मन पर साधना का संस्कार निर्माण करती है । नियमित साधना का यह संस्कार एक सबसे बडा उपहार है, जो माता-पिता एक बालक को दे सकते हैं । इसका कारण यह है कि यह जीवन के उद्देश्य को सार्थक करने में पूर्णत: सहायक है ।
८.३ क्या गर्भवती माता की गतिविधियां भ्रूण को प्रभावित करती है ?
गर्भवती माताकी गतिविधियां भ्रूण को प्रभावित करती है । गर्भवती मां की गतिविधियों से उत्पन्न कुल मूल सूक्ष्म घटक भ्रूण के मूल सूक्ष्म घटक को प्रभावित करता है । उदाहरण के लिए यदि मां अधिकतर सात्त्विक भोजन (ताजा शाकाहारी भोजन), विचार और गतिविधियां (जैसे नामजप, ग्रन्थ पढना इत्यादि) करती है तो वह मुख्य रूप से सात्त्विक हो जाती है और यह सात्त्विकता ही भ्रूण को प्रदान करती है । इसकी अपेक्षा यदि वह राजसिक व तामसिक भोजन (बासी, ठंडा और मांसाहारी), विचार, और गतिविधियां (अत्यधिक टी वी / दूरदर्शन देखना, अत्यधिक बात करना, धूम्रपान और शराब पीना इत्यादि) करती है तो वह मुख्यत: भ्रूण को रज-तम घटक देगी ।
एक गर्भवती मां के रूपमें वह अपनी सीमाओं और परिस्थितियों के भीतर सात्त्विक जीवन शैली की योजना बना सकती है जिससे कि भ्रूण को लाभ हो । सन्दर्भ : “सात्त्विक जीवन शैली”
८.४ मां पर भ्रूण की आध्यात्मिक स्थिति का क्या प्रभाव है ?
८.४.१ आध्यात्मिक दृष्टि से सकारात्मक भ्रूण
उच्च आध्यात्मिक स्तर के अथवा सकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव के कारण भ्रूण को प्राप्त सकारात्मक ऊर्जा, मां को सकारात्मक रूप में प्रभावित करती है । इस तरह का गर्भधारण सामान्यत: समस्याओं से रहित होता है और एक सामान्य मां गर्भावस्था के अन्तर्गत बहुत अच्छे स्वास्थ्य का अनुभव करती है ।
यदि मां को पूर्वजों अथवा भूतों के कारण कष्ट होता, तो एक आध्यात्मिक सकारात्मक भ्रूण निरन्तर मां पर आध्यात्मिक उपाय की तरह कार्य करता है । ऐसी दशा में मां को मंद से मध्यम प्रकार का कष्ट अनुभव हो सकता है । यह कष्ट मां की नकारात्मक ऊर्जा और भ्रूण की सकारात्मक ऊर्जा के मध्य निरन्तर चल रहे सूक्ष्म युद्ध के कारण होता है ।
भ्रूण की यह आध्यात्मिक सकारात्मकता तब तक चलती है, जब तक वह गर्भ में है । जन्म के बाद जैसे ही सूक्ष्म अहंकार विकसित होता है, सकारात्मकता कम होने लगती है । ऐसा इसलिए होता है कि जन्म के समय बच्चा घुटन अनुभव करता है । फिर वह सांस लेना शुरु करता है और भूख इत्यादि का अनुभव करता है ।
५० % से अधिक आध्यात्मिक स्तर के सूक्ष्म शरीर गर्भ में भी साधना करते रहते हैं ।
सूक्ष्म-ज्ञान के आधार पर निम्न आकृति दर्शाती है कि किस प्रकार भ्रूण में उपस्थित सूक्ष्म शरीर द्वारा किया गया नामजप सकारात्मक ऊर्जा प्रक्षेपित करता है जो मां की सकारात्मकता बढाने में सहायक होता है ।
सूक्षम-ज्ञान पर आधारित यह चित्र एक भ्रूण का है जिस पर पूर्वजों अथवा भूतों की काली शक्ति का हलका प्रभाव है । यह सूक्ष्म दृश्य एक सामान्य गर्भावस्था में दिखाई देता है । हम देख सकते हैं कि गर्भनाल भी काली शक्ति से प्रभावित है । आमतौर पर ऐसा तभी होता है जब होने वाली मां और भ्रूण में उपस्थित सूक्ष्म शरीर, दोनों ही साधना नहीं कर रहे हैं ।
पूर्वजों अथवा भूतों द्वारा प्रभावित भ्रूण नकारात्मक ऊर्जा का स्रोत है और इस प्रकार वह मां के लिए कष्ट का कारण बनता है यद्यपि आध्यात्मिक दृष्टि से संवेदनशील माताएं ही इस कष्ट को पहचान सकती हैं । वर्तमानकाल में जब ९० % जनसंख्या नकारात्मक रूप से प्रभावित है, अधिकांश माताओं के चारों ओर काली शक्ति का लगभग ४ सें.मी.चौडा काली शक्ति का आवरण होगा, जो उन्हें ऐसे कष्ट की थोडी-बहुत वृद्धि के प्रति असंवेदनशील बनाता है । इस प्रकार के गर्भधारण में अस्थिरता एवं जटिलता अधिक होगी ।
सूक्ष्म शरीर मां के मन में विचार डालकर उसे प्रभावित कर सकता है । परन्तु उसे (मां को) यह समझ में नहीं आता कि ये विचार भ्रूण से आ रहे हैं । वह उन्हें अपने ही विचार समझती है । यह भ्रूण में उपस्थित सूक्ष्म शरीर द्वारा मां के साथ लेन-देन खाता पूर्ण करने का एक माध्यम है । एक सूक्ष्म शरीर होने वाली मां को तभी प्रभावित कर सकता है, जब उसका आध्यात्मिक स्तर मां से २० % अधिक हो अथवा इसे भूतों से आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त हो ।
९. सारांश में
- जीवन की यात्रा गर्भधारण के समय आरम्भ होती है । यद्यपि सूक्ष्म शरीर गर्भ में तीसरे माह के बाद प्रवेश करता है ।
- सूक्ष्म जगत के हानिकारक प्रभावों के लिए भ्रूण अत्यधिक निर्बल होता है । गर्भपात और मृतशिशु जैसी घटनाएं मुख्यत: आध्यात्मिक कारणों से होती हैं ।
- जिन समस्याओं के कारण आध्यात्मिक हैं, उन्हें केवल साधना द्वारा ही दूर किया जा सकता है
- साधना द्वारा होने वाली मां आध्यात्मिक कारणों से आने वाली कठिनाईयों से गर्भ की रक्षा कर सकती है तथा गर्भ में अधिक सात्त्विक सूक्ष्म शरीर को आकर्षित कर सकती है ।