क्या अग्निहोत्र नाभिकीय विकिरण के प्रभाव को रोक सकता है ?

क्या अग्निहोत्र नाभिकीय विकिरण के प्रभाव को रोक सकता है ?

‘वर्ष 2019-2023 के बीच, तृतीय विश्व युद्ध होगा, जिसमें संसार की लगभग आधी जनसंख्या (अर्थात 350 करोड़ लोग) नष्ट हो जाएगी।’

– परात्पर गुरु डॉ. आठवले (30 सितम्बर 2007)

कल्पना करें – आपके नगर में एक परमाणु बम विस्फोट हुआ है । हममें से वे जो विस्फोट क्षेत्र की आरंभिक घेरे में होंगे उन्हें तो ज्ञात ही नहीं होगा कि परमाणु बम का विस्फोट हुआ है क्योंकि उसके पूर्व ही हम नष्ट हो चुके होंगे । वैज्ञानिकों का मत है ये लोग वास्तव में भाग्यशाली होंगे, क्योंकि जो लोग विस्फोट क्षेत्र से कुछ किलोमीटर दूर होंगे वे भीषण रूप से जल जाएंगे अथवा रेडियोधर्मी पदार्थों के संपर्क में आने से उन पर एवं उनके परिवार पर तात्कालिक तथा चिरकालिक विनाशकारी प्रभाव पडेगा । उस समय उनके समक्ष संभवत: निम्नलिखित प्रश्‍न खडे होंगे :

  • मैंने अभी-अभी एक जनसंहारक विस्फोट देखा है, ऐसी परिस्थिति में मैं कहां आश्रय ले सकता हूं ?
  • क्या ऐसी घटना का सामना करने के लिए मैं अधिक अच्छी तैयारी कर सकता था जिससे मेरे लिए अपनी तथा अपने परिवार की रक्षा करना संभव हो जाता ?

१. प्रस्तावना

क्या अग्निहोत्र नाभिकीय विकिरण के प्रभाव को रोक सकता है ?जालस्थल (इंटरनेट) पर अनेक लेखों में अग्निहोत्र अनुष्ठान का प्रसार एक सरल धार्मिक विधि के रूप में किया जाता है, जो नाभिकीय विकिरण के विनाशकारी प्रभाव को न्यून करने में सहायक है । इस वक्तव्य ने हमारी भी रूचि को जागृत किया, क्योंकि आधुनिक विज्ञान के लिए यह एक अद्भुत समस्या (पहेली) है; कि प्रात:काल एवं सायंकाल में मंत्रोच्चार सहित की जानेवाली एक सामान्य सी धार्मिक विधि से नाभिकीय विकिरण के विनाशकारी प्रभाव का वास्तव में शमन किया जा सकता है । यह धार्मिक विधि कुछ अन्य सूचनाओं के साथ भी विशेष रूप से प्रासांगिक हो जाती है जो कि हमने आगामी काल के संबंध में आध्यात्मिक शोध द्वारा प्राप्त की हैं ।

अधिकतर लोगों को यह ज्ञात नहीं है कि किसी नाभिकीय आक्रमण से अपना संरक्षण करने के लिए मनोवैज्ञानिक एवं भौतिक स्तर के अतिरिक्त आध्यात्मिक स्तर पर भी कुछ उपाय किए जा सकते हैं । प्रस्तुत लेख उन उपायों का सविस्तार विश्लेषण करता है जिन (उपायों) को हम नाभिकीय आक्रमण के प्रभाव से अपने संरक्षण हेतु एवं इनकी (नाभिकीय आक्रमण की) रोकथाम हेतु आध्यात्मिक स्तर पर अपना सकते हैं ।

कृपया आध्यात्मिक शोध के विषय पर लेख पढें । आध्यात्मिक शोध के विषय पर प्रबोधन देखें ।

२. अग्निहोत्र विधि करनेवाले व्यक्ति का नाभिकीय आक्रमण से संरक्षण होना

इस खंड में दी गई जानकारी इ स्रोतों से प्राप्त हुई है; Effects of Nuclear Explosions लेखक कैरे सबलेट एवं nationalterroralert.com । इसके इसके अतिरिक्त अग्निहोत्र से होनेवाले लाभ का परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करने में सहायता हेतु हमने “परमाणु हथियार प्रभाव गणना-यंत्र” (Nuclear Weapon Effects Calculator) का उपयोग किया है, जो श्री कैरे सबलेट की प्रख्यात Nuclear Weapons FAQ में प्रकाशित scaling law पर आधारित है ।

परमाणु विस्फोट तात्कालिक एवं दीर्घकालिक, दोनों प्रकार के विनाशकारी प्रभाव उत्पन्न करते हैं ।

  • तात्कालिक प्रभाव – धमाका, तापीय-विकिरण एवं त्वरित आयनित विकिरण आदि उत्पन्न होते हैं, जो परमाणु विस्फोट के कुछ ही क्षणों में भारी विनाश करते हैं ।
  • दीर्घकालिक प्रभाव – विषाक्त रेडियो-सक्रिय विकिरण एवं अन्य संभावित वातावरणीय प्रभाव आदि दीर्घकालिक प्रभाव हैं जो कुछ घंटों से लेकर अनेक शताब्दियों, लंबी कालावधि तक क्षति पहुंचाते हैं तथा विस्फोट क्षेत्र से बहुत दूर तक के स्थानों में भी प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं ।

नाभिकीय (परमाणु) विस्फोट के कारण होनेवाली क्षति की मात्रा यथेष्ट रूप से भिन्न हो सकती है । यह शस्त्र की क्षमता (इसकी गणना किलोटन अथवा मेगाटन में की जाती है), प्रयुक्त नाभिकीय ईंधन के प्रकार, अस्त्र की संरचना, विस्फोट वायु में किया गया है अथवा धरती पर, लक्ष्य के आसपास की भौगोलिक स्थिति, तथा मौसम जैसे शीत अथवा ग्रीष्मकाल, दृष्टिगोचरता धुंधली अथवा स्पष्ट, रात्रि अथवा दिन, वायु की गति आदि के ऊपर निर्भर करती है । यद्यपि कारण कोई भी हों, ऊपर उल्लेखित तात्कालिक तथा दीर्घकालिक प्रभावों के अनुसार विस्फोट से विभिन्न रूपों में प्रचंड ऊर्जा उत्सर्जित होती है ।

निम्नांकित चित्र में एक मेगाटन के परमाणु बम विस्फोट के भविष्यत प्रभावों को ऊर्जा के विभिन्न रूपों के संघात के विस्तार (दूरी) को दर्शाया गया है । चित्र में नियमित रूप से अग्निहोत्र करने वाले ५० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के व्यक्ति द्वारा अनुभव किए जानेवाले विनाश / सुरक्षा के स्तर को भी दर्शाया गया है ।

क्या अग्निहोत्र नाभिकीय विकिरण के प्रभाव को रोक सकता है ?

अब हम इन विभिन्न ऊर्जा-प्रकारों एवं अग्निहोत्र-विधि द्वारा प्रदान किए जा सकनेवाले सुरक्षा-स्तर पर अधिक सूक्ष्मता पर दृष्टि डालते हैं । (स्रोत : एस.एस.आर.एफ. द्वारा किया गया आध्यात्मिक शोध)

१. परमाणु धमाका : परमाणु विस्फोट से होनेवाली अधिकांश क्षति (लगभग ५० प्रतिशत) उससे उत्पन्न होनेवाली आघात लहरों के कारण होती है । धमाके से उत्पन्न लहरों का दबाव अपनी ऊर्जा को वायु सहित मार्ग में आनेवाले सभी पदार्थों में स्थांतरित करता है । जहां भी विस्फोट की लहर ठोस सामग्री से होकर गुजरती है, वहां उस ऊर्जा से प्रचंड क्षति होती है ।

विस्फोट क्षेत्र में नियमित अग्निहोत्र करनेवाले व्यक्ति को प्राप्त संरक्षण का स्तर : शून्य प्रतिशत

२. तापीय विकिरण : विस्फोट की लगभग ३० से ५० प्रतिशत विनाशकारी ऊर्जा, तापीय विकिरण के कारण होती है । आप यदि विस्फोट से मीलों दूर हैं, तो भी बम विस्फोट द्वारा प्रज्वलित चमक दिखाई देगी । इस चमक में तीव्र प्रकाश के साथ-साथ प्रचंड ऊष्मा भी होती है । विस्फोट बिंदु से ७ किलोमीटर दूर होने पर भी त्वचा भीतर तक पूर्णरूप से झुलस जाएगी (थर्ड डिग्री बर्न) । थर्ड डिग्री बर्न में त्वचा के सभी ऊतकों के साथ-साथ स्टेम कोशिकाएं तक भस्म हो जाती हैं, जो त्वचा के ऊतकों के पुनर्निर्माण हेतु आवश्यक होती हैं । शरीर के २५ प्रतिशत (अथवा उससे अधिक) भाग के इस प्रकार झुलसते ही व्यक्ति को तीव्र झटका लगेगा तथा उसे तुरंत चिकित्सकीय सहायता की आवश्यकता होगी ।

तापीय विकिरण क्षेत्र में नियमित अग्निहोत्र करनेवाले व्यक्ति को प्राप्त संरक्षण का स्तर – ३० प्रतिशत

३. आयनित विकिरण : नाभिकीय विस्फोट से अनेक प्रकार के नाभिकीय अथवा आयनित विकिरण उत्पन्न होते हैं । नाभिकीय विखंडन (परमाणु के विघटन) एवं नाभिकीय संलयन (परमाणु के एकीकरण), विस्फोट के इन दो कारणों से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से न्यूट्रॉन, गामा तरंगें, बीटा कण, तथा अल्फा कण निकलते हैं । [यदि विस्फोट की शक्ति १ मेगाटन है तो आयानित/ आयनित विकिरण का प्रभाव (५०० रेम पर मापा गया), विस्फोट स्थल से लगभग ३.१ किलोमीटर की दूरी तक होता है ।]

३.१ न्यूट्रॉन वे भारयुक्त कण हैं जो परमाणु के केंद्र से निकलते हैं । ये अतिसूक्ष्म “प्रक्षेपास्त्र” ठोस पदार्थों के भीतर सरलता से प्रवेश कर सकते हैं ।

३.२ गामा तरंगें, विकिरण का एक अन्य भेदक रूप है जो एक प्रकार से ऊर्जावान फोटॉन हैं । उपरोक्त दोनों ही प्रकार के विकिरण प्राणघातक हो सकते हैं ।

३.३ अल्फा एवं बीटा कण कुछ कम विनाशक हैं जिनकी क्षमता क्रमशः कुछ सेंटीमीटर तथा कुछ मीटर तक ही होती है ।

३.४ अल्फा कण श्वास इत्यादि के माध्यम से भीतर जाने पर ही क्षति पहुंचा सकते हैं ।

आयानित विकिरण का क्षेत्र में नियमित अग्निहोत्र करनेवाले व्यक्ति को प्राप्त संरक्षण का स्तर – प्रतिशत

४. नाभिकीय विस्फोट के परिणाम : जब पृथ्वी पर अथवा इसकी सतह के समीप नाभिकीय विस्फोट होता है तब उसके अनेक दुष्परिणामों में से एक है रेडियोधर्मी अवशेष । विस्फोट के तुरंत पश्चात विस्फोट से उत्पन्न कुकुरमुत्ते सदृश धूल के विशाल बादलों द्वारा पृथ्वी का बहुत बडा भूभाग और इसके भग्नावशेष रेडियोधर्मी हो जाते हैं । यह रेडियोधर्मी सामग्री वायु के साथ बहती हुई धरती पर पुनः आ गिरती है और हजारों वर्ग किलामीटर का क्षेत्र प्रदूषित हो जाता है । जितना बडा विस्फोट होता है उतना अधिक तथा शीघ्र मलबा उछलता है तथा अपेक्षाकृत छोटे विस्फोट में प्रदूषित राख निचले वायुमंडल में एकत्रित हो जाती है । यह मलबा उस क्षेत्र तथा उससे अत्यंत दूरस्थ क्षेत्रों में भी रहनेवाले लोगों को अनेक वर्षों तक प्रभावित कर सकता है ।

 रेडियोधर्मी मलबे के क्षेत्र में नियमित अग्निहोत्र करनेवाले व्यक्ति को प्राप्त संरक्षण का स्तर    – ५० प्रतिशत

३.  अग्निहोत्र की कारणभूत क्रियाविधि को दर्शानेवाला एक आध्यात्मिक शोध

पृथ्वी पर घटित होनेवाली समस्त घटनाएं, सृष्टि के मूलभूत निर्माण-तत्त्वों के संयोजन से होती हैं । ये मूलभूत निर्माण-तत्त्व हैं; परम-विशिष्ट पांच ब्रह्मांडीय तत्त्व अर्थात पंचतत्त्व । इन सभी अथवा इनमें से एक अथवा अधिक तत्त्वों के संयोजन से ही ब्रह्मांड की क्रियाएं चलती हैं । नाभिकीय अस्त्र के विस्फोट में जो तत्त्व मूलत: सहभागी होता है वह है अग्नितत्त्व, जिसे हम तेजतत्त्व भी कहते हैं ।

क्या अग्निहोत्र नाभिकीय विकिरण के प्रभाव को रोक सकता है ?

जब कोई नाभिकीय विस्फोट किया जाता है तो इससे तेज-तत्व के रज-तम प्रधान स्पंदन निर्मित होते हैं । इन स्पंदनों के साथ प्रतिकूल सूक्ष्म ध्वनियां भी होती हैं । विस्फोट-स्थल के समीपवर्ती बसे निवासियों के मन एवं बुद्धि पर इन सूक्ष्म ध्वनियों का सूक्ष्म हानिकारक प्रभाव पडता है । फलस्वरूप उन्हें अवसाद अथवा नकारात्मक विचारों से लेकर मानसिक अथवा बौद्धिक शक्तिहीनता तक हो सकती है ।

अग्निहोत्र की विधि करने से तेज-तत्त्व के सत्त्वप्रधान स्पंदन निर्मित होते हैं । अग्निहोत्र से निर्मित अग्नि रज-तम के कणों का विघटन करती है जिसके फलस्वरूप वातावरण का आध्यात्मिक स्तर पर शुद्धिकरण होता है । इससे (अग्नि से) अनुष्ठान करनेवाले व्यक्ति के चारों ओर एक सूक्ष्म सुरक्षात्मक कवच भी निर्मित होता है। यह कवच तेज-तत्त्व से संबंधित किसी भी वस्तु के प्रति अतिसंवेदनशील होता है तथा सूक्ष्म-दृष्टि से यह कवच लाल रंग का दिखता है ।

परमाणु विस्फोट से निकलनेवाले रज-तम प्रधान तेज-तत्त्व के कण बहुत कठोर और विनाशक ढंग से प्रहार करते हैं । समीप आते ही सुरक्षात्मक कवच को सहज ही इनका बोध हो जाता है और स्वतः होनेवाली एक सहज क्रिया के रूप में यह (कवच) सात्त्विक तेज-तत्त्व तरंगों को भीषण शक्ति के साथ रज-तम प्रधान कणों की ओर प्रेषित करता है । इससे प्रतिकूल ध्वनि आवृत्तियों को उत्पन्न करनेवाले रज-तम प्रधान तेजतत्त्व कणों का नाश हो जाता है । परिणामस्वरूप, विस्फोट से निकलनेवाली विनाशकारी तेज-तत्त्व तरंगों की शक्ति का ह्रास होता है ।

३.१ नाभिकीय विध्वंस के समय अग्निहोत्र विधि की परिणामकारिता किस पर निर्भर करती है ?

यह समझना आवश्यक है कि हम जिन सुरक्षा स्तरों का विचार कर रहे हैं वे परमाणुवीय प्रलयकाल के संदर्भ में हैं । इसलिए अग्निहोत्र की विधि से प्राप्त हो सकनेवाला लाभ शांति-काल में अपेक्षाकृत अतिसीमित हो जाता है ।

३.१.१ व्यक्ति के आध्यात्मिक स्तर एवं भाव के आधार पर

जब कोई व्यक्ति अग्निहोत्र करता है तब कुछ कारक इस अनुष्ठान की नाभिकीय विकिरण को निष्प्रभावी करने की क्षमता को निश्चित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । निम्न सारणी अग्निहोत्र करनेवाले व्यक्ति पर (उसके आध्यात्मिक स्तर एवं भावावस्था के आधार पर) होनेवाले प्रभावों को दर्शाती है ।

आध्यात्मिक स्तर

स्तर

२० प्रतिशत

५० प्रतिशत

६० प्रतिशत

विधि करने का भाव

एक पारंपरिक वैदिक क्रिया केवल एक कर्मकांड की भांति समझकर करना

भाव एवं भक्ति के साथ करना

समर्पित भाव से करना

संरक्षणात्मक कवच का क्षेत्रफल फीट में

१-२

१०

३०

वातावरण शुद्धि का प्रतिशत

.७५

प्रभाव की कालावधि

१ घंटा

२ घंटे

८ घंटे

  • आध्यात्मिक स्तर :
    • व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है ।
    • व्यावहारिक रूप से किसी नाभिकीय बम के विस्फोट की दशा में केवल ५० प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तरवाले व्यक्ति को ही अग्निहोत्र अनुष्ठान से पर्याप्त सुरक्षा मिल सकती है । जैसे-जैसे व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर अल्प होता जाता है, अग्निहोत्र से मिलनेवाले लाभ क्रमश: अल्प होते जाते हैं । एक सामान्य आध्यात्मिक स्तर (२०-३० प्रतिशत) के व्यक्ति को अग्निहोत्र के फलस्वरूप मिलनेवाला लाभ लगभग नगण्य होगा ।
    • जैसे-जैसे आध्यात्मिक स्तर में वृद्धि होती है, अनुष्ठान करने की आवश्यकता अल्प होती जाती है क्योंकि यह उच्च आध्यात्मिक स्तर ही सुरक्षा की कुंजी बन जाता है ।
    • जहां तक संतों का प्रश्न है , विस्फोट से पूर्व ही उनके मन में उस क्षेत्र से दूर जाने का विचार आ जाएगा ।
  • साधना का महत्त्व : आध्यात्मिक स्तर ऊंचा करने का एक मात्र उपाय है साधना के छः मूल सिद्धांतों के अनुसार साधना करना । उचित प्रकार से साधना करने पर, व्यक्ति के लिए वर्तमान जीवन में ही शीघ्र उन्नति कर पाना संभव है ।
  • अनुष्ठान करते समय भाव :
    • जब कोई अनुष्ठान भाव एवं भक्ति के साथ किया जाता है तब उसका प्रभाव एवं लाभ कई गुणा बढ जाते हैं ।
    • अनुष्ठान का प्रभाव उस समय और भी अधिक हो जाता है जब उसे ईश्वर के प्रति अनन्य समर्पण से किया जाता है ।
    • साधारणतया केवल ५० प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर के साधकों के पास भाव-सहित अनुष्ठान करने की आध्यात्मिक क्षमता होती है ।

३.१.२ अनुष्ठान करनेवाले एवं अनुष्ठान देखनेवाले में अंतर :

स्वयं अनुष्ठान करनेवाले को देखनेवाले की अपेक्षा अधिक लाभ होता है । यह अनुष्ठान मूलत: व्यक्ति के स्वयं के संरक्षण के लिए होता है । तथापि यदि देखनेवाला व्यक्ति अनुष्ठान को इस भाव से देखता है कि वह स्वयं पूर्ण-भाव से अनुष्ठान कर रहा है तब उसे भी वही लाभ तथा संरक्षण प्राप्त होगा जो अनुष्ठान करनेवाले को मिलता है ।

४. नाभिकीय आक्रमण से संरक्षण प्राप्त होने में साधना एवं आध्यात्मिक स्तर की भूमिका

कर्म के सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति के जीवन में घटित होनेवाली प्रमुख घटनाएं मुख्यतः उसके प्रारब्ध के कारण होती हैं । साधना करना ही प्रतिकूल प्रारब्ध (जो की एक आध्यात्मिक समस्या है) से मुक्ति पाने का सर्वोत्तम मार्ग है ।

योग्य स्तर की उचित साधना करके हम प्रारब्ध पर विजय प्राप्त कर सकते हैं । उदाहरणार्थ; किसी का प्रारब्ध मध्यम है तो केवल तीव्र साधना (प्रतिदिन लगभग १०-१२ घंटे) करने से ही उससे मुक्त हुआ जा सकता है । तथापि यदि कोई तीव्र प्रारब्ध से ग्रसित है तो उससे मुक्त होने में केवल संत कृपा ही सहायक हो सकती है ।

यहां तक कि प्रारब्धवश आने वाले समय में कोई यदि मृत्युशैया पर भी होता है, तो भी साधना के कारण मृत्योत्तर जीवन पर विश्वास होने से कम से कम उस साधक के मन में भय के संस्कार तो निर्मित नहीं होते । सामूहिक विनाश के विस्फोट पश्चात पीडा सहने से तथा उपरांत मृत्यु हो जाने पर किसी भी प्रकार की साधना न करनेवाले व्यक्ति के अवचेतन मन पर भय के गहरे संस्कार अंकित हो जाते हैं जिसे दूर होने में अनेक जन्म लग सकते हैं ।

५. सारांश

  • अनुष्ठान करनेवाले व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर, अग्निहोत्र का सामर्थ्य निश्चित करने में एक महत्वपूर्ण कारक है ।
  • हम विभिन्न देशों के संबंधित अधिकारियों से अनुरोध करते हैं कि वे लोगों को उनकी साधना आरंभ करने  में तथा साथ ही परमाणुवीय प्रलय से होनेवाली क्षति को न्यूनतम करने के लिए अग्निहोत्र का अनुष्ठान आरंभ करने में सहायता करें ।
  • साधना के प्रभावी होने के लिए यह आवश्यक है कि इसे साधना के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार किया जाए ।