श्री. रेंडी इक्रांतियो की अनुभूतियां

१. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की उपस्थिति में भाव एवं विचारहीन अवस्था अनुभव होना

दिसंबर २०११ में, पहली बार मैं आश्रम आया । मुझे स्मरण है कि पहली बार आश्रम आने पर मैं बहुत प्रसन्न था तथा परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से मिलने को आतुर भी था । ईश्वर की कृपा से परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से मिलने का प्रथम अवसर उस समय प्राप्त हुआ जब एक साधक ने मुझे एक दूसरे साधक के साथ उनके लिए फल ले जाने के लिए कहा था । जब परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने मेरे हाथों से फल लिया तब उन्हें नमस्कार कहते समय, मेरा भाव जागृत हुआ तथा कृतज्ञता की अनुभूति हुई । ऐसी अनुभूति मुझे जीवन में पहले कभी नहीं हुई थी । मेरे मन में यह तीव्र विचार था कि हम कितने भाग्यशाली हैं जो हमे इतने महान गुरु के मार्गदर्शन में साधना करने का अवसर प्राप्त हुआ । उनसे मिलने के उपरांत कुछ घंटों तक मेरे मन में बहुत कम विचार थे तथा मेरी एकाग्रता बढ गई ।

इस अनुभूति से अध्यात्म के प्रति मेरी श्रद्धा में वृद्धि हुई तथा मुझे गुरु के मार्गदर्शन में रहने का महत्त्व समझ में आया ।

संपादक की टिप्पणी : इस प्रकार लंबे कालावधि तक मन की विचारहीन अवस्था प्राप्त करना प्रायः अनेक वर्षों की साधना से ही संभव होता है । किंतु परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के चैतन्य के कारण वे साधक जो साधना में तुलनात्मक रूप से नए हैं, उन्हें भी कभी-कभी उनकी उपस्थिति में ऐसी उच्च स्तरीय अनुभूतियां हो जाती हैं ।

२. कैसे परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी सभी साधकों का ध्यान रखते हैं

यह अनुभूति मुझे परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के साथ सत्संग  के समय हुई जब वे विदेश से आए साधकों के साथ भेंट कर रहे थे । मेरे मन में भी परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से अपनी असुरक्षा की अंतर्निहित भावना के विषय में पूछने हेतु कुछ प्रश्न थे । मुझे सदैव पूछने में यह शंका रहती कि क्या मेरे यह प्रश्न उचित होंगे अथवा अनुचित ।

सत्संग के समय, मैं यह विचार कर रहा था कि क्या इस प्रश्न को पूछना चाहिए । उसी क्षण, परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने दूसरे साधकों से दृष्टि हटाकर मुझसे जानने की दृष्टि से देखा तथा पूछा कि क्या मेरे मन में कोई प्रश्न है । मुझे त्वरित ही अपने प्रश्न पूछने का साहस हुआ एवं मैंने अपनी असुरक्षा पर विजय प्राप्त कर सका ।

पिछले कुछ वर्षों से, मुझे यह अनुभव हुआ है कि परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी स्वयं प्रत्येक चरण पर हमारी साधना का ध्यान रख रहे हैं तथा केवल वे ही हमारे स्वभाव दोष एवं अहं  को न्यून कर रहे हैं ।