३ जनवरी २००६ को श्रीमती जाह्नवी रमेश शिंदे के साथ हुए साक्षात्कार की प्रतिलिपि

परिचय

श्रीमती जाह्नवी, एक २८ वर्षीय साधिका, जो सोफिया विश्वविद्यालय, मुंबई, भारत से वाणिज्य कला में डिग्रीधारी हैं । उनके पिता बहरीन में व्यवसाय से एक वास्तुकार हैं एवं उनकी माता एक गृहिणी हैं । अध्यात्म में उनकी माता की अत्यधिक रुचि है । जाह्नवी का विवाह श्री. रमेश शिंदे से हुआ है, जो स्वयं साधना में पूर्णरूप से समर्पित साधक हैं ।

टिप्पणी: इस साधिका द्वारा प्राप्त ईश्वरीय ज्ञान का उदाहरण देखने के लिए, कृपया लेख के अंत में दी गई कडी (लिंक) को देखें ।

HIN_janhaviप्रश्न : अध्यात्म में आपकी रुचि कैसे विकसित हुई ?

उत्तर : चूंकि मेरी मां पहले से ही अध्यात्म में प्रवृत्त हैं, मेरे लिए अध्यात्म का विषय कोई नया नहीं था । तथापि, जो बात मेरे लिए पूर्ण रूप से नई थी वह जो मुझे परम पूज्य डॉ. जयंत आठवलेजी ने बताई । उन्होंने मुझे कला को पूर्णरूप से भिन्न दृष्टिकोण से देखना सिखाया, उन्होंने मुझे ‘आध्यात्मिक कला’से अवगत कराया । यह कला का वह आयाम था जो मेरे औपचारिक रूप से स्नातक के विषय के साथ सही बैठता था । दृष्टिकोण में यह अति भिन्न था । साथ ही, इसमें किसी भी परियोजना (प्रोजेक्ट) को सफलतापूर्वक पूर्ण करने के लिए आध्यात्मिक मापदंड थे । यही वह नवीनता एवं उल्लेखनीय दृष्टिकोण था जिसने सही अर्थों में अध्यात्म में मेरी रुचि को जागृत किया ।

प्रश्न. क्या आप हमें दृष्टिकोण में अंतर के विषय में बता सकती हैं ?

उत्तर. मूल अंतर यह है कि साधना में व्यक्ति कला के संदर्भ में ईश्वर से पूछते हुए सब कुछ करता है । यहां ‘मैंने किया क्योंकि मुझे यह पसंद था’ ऐसा नहीं है अपितु, ‘मैंने वही किया जो ईश्वर को अपेक्षित था ।’ सभी को यह समझना चाहिए कि ईश्वर मेरी तुलना में कई गुना अधिक जानते हैं ।

प्रश्न : इस मूल सिद्धांत को समझने के पश्चात, आप वास्तव में वह चित्र कैसे बनाती हैं, जो ‘ईश्वर आपसे बनवाना चाहते हैं’?

उत्तर. उदाहरण के लिए, देवता का चित्र बनाते समय, हम अपनी कल्पना का प्रयोग नहीं करते अपितु हम कुछ समय के लिए ध्यान करते हैं एवं तत्पश्चात हम अपनी पेंसिल से कागज पर चित्र बनाना आरंभ करते हैं । उस समय हम निरंतर यह जांचते रहते हैं कि हमारी दिशा उचित है अथवा नहीं, जिससे ईश्वर हमसे जैसा चित्र बनवाना चाहते हैं, वास्तव में वह वैसा बन सके । कभी-कभी सूक्ष्म ज्ञान पर आधारित एक चित्र को पूर्ण करने में छः माह तक का समय लग सकता है । तथापि अंतिम परिणाम की विशिष्टता यह है कि सूक्ष्म ज्ञान पर आधारित चित्र अत्यधिक सात्विक होते हैं । इसमें वास्तव में ईश्वरीय तत्व उच्च अनुपात में विद्यमान होते हैं ।

प्रश्न. क्या आपको वह दिन स्मरण है जब प्रथम बार आपको कला संबंधी ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त हुआ?

उत्तर. बहुत अच्छी तरह से ! वह दिन १५ सितंबर, २००५ का था ।

प्रश्न. यह सब कैसे आरंभ हुआ?

उत्तर. मैं जिस आश्रम में रहती हूं वहां श्री गणेशजी की प्रतिमा को लाए जाने के पश्चात यह आरंभ हुआ । यह विशिष्ट प्रतिमा अद्वितीय है क्योंकि इसे परम पूजनीय डॉ. जयंत आठवलेजी के पूर्ण मार्गदर्शन में व्यापक आध्यात्मिक शोध द्वारा साधक श्री गुरुदास खंडेपारकर ने बनाया था । परिणामस्वरूप वास्तविक गणेश तत्त्व से लगभग १०० प्रतिशत तक मिलती हुई इस प्रतिमा की निर्मिति हुई (जो कलियुग के वर्तमान काल में जितना संभव है उतना निकट है) ।

उस समय मैं एक ग्रंथ ‘आध्यात्मिक कला – ईश्वर को प्राप्त करने का एक साधन’ के संकलन में लगी थी । १५ सितंबर २००५ को, मैं कुछ सूत्र लिख रही थी, तब अकस्मात से मैं अद्वितीय स्तर पर एकाग्र हो गई । मन की इस अवस्था में, विचारों का प्रवाह आरंभ हुआ जो मेरे लिए पूर्ण रूप से नया था । परंतु उन विचारों से कहीं अधिक आनंद ने मुझे अभिभूत कर दिया ।

प्रश्न. उस समय आपको क्या अनुभूत हो रहा था ?

उत्तर. उस समय मेरा प्रथम विचार था, ‘यह सब कुछ श्री गणेशजी की कृपा के कारण हो रहा है’, जैसे ही मेरे मन में यह विचार आया, मुझे श्री गणेशजी की श्वेत प्रतिमा के दर्शन हुए । उस प्रतिमा से प्रक्षेपित उज्जवल प्रकाश मेरी ओर प्रसारित हो रहा था । इस दिव्य प्रकाश के प्रभाव में, मेरी आंखें एवं पूरे शरीर ने एक भिन्न प्रकार की शीतलता का अनुभव किया एवं मेरे मस्तिष्क में अनोखी सुखद संवेदना हुई । शीघ्र ही मुझमें भाव जागृत हुआ एवं मेरी आंखों से आनंद के अश्रु आने लगे । इस भावावस्था में, मैं पुनः-पुनः श्री गणेशजी को कृतज्ञता व्यक्त कर रही थी ।

प्रश्न. क्या आपको ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रत्येक बार गणेश तत्त्व का आह्वान करना पडता है अथवा ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है ?

उत्तर. ऐसा नहीं है कि मैं गणेश तत्त्व का आह्वान करुं एवं ज्ञान का प्रवाह आरंभ हो जाए । इसके विपरीत ज्ञान का प्रवाह स्वतः ही नहीं होता है । ऐसा तभी होता है जब किसी निश्चित सूत्र के विषय में शंका उत्पन्न होती है अथवा किसी विशिष्ट सूत्र के विषय में जिज्ञासा बढती है, तब गणेश तत्त्व जागृत हो जाता है एवं ज्ञान का प्रवाह मेरे मन में प्रश्नों के विस्तृत उत्तरों के रूप में आरंभ होता है । प्रवाह आरंभ होने के पश्चात, मुझे संबंधित विषय का भी ज्ञान प्राप्त होता है, अतः यहां जिज्ञासा ही मूल कारक है । जैसा कि परम पूजनीय डॉ.जयंत आठवलेजी प्रायः कहते हैं, ‘जिज्ञासु ही ज्ञान का खरा अधिकारी है’ ।

पिछली बातों को देखते हुए, मैं कहूंगी कि ईश्वर ही मेरे मन में जिज्ञासा उत्पन्न करते हैं । मैं कहती हूं कि यह जिज्ञासा ईश्वर-प्रेरित होती है, क्योंकि जो ज्ञान मुझे प्राप्त होता है वह मुझसे होने वाली सत्सेवा को पूर्ण होने के लिए अति आवश्यक रहता है, जैसे कि ऊपरोक्त प्रसंग में ‘आध्यात्मिक कला – ईश्वर को प्राप्त करने का एक साधन’नामक ग्रंथ के संकलन के समय हुआ । परिणामस्वरूप, ग्रंथ पूर्ण होने के पश्चात मुझे अधिक ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ ।

प्रश्न. आपको क्या लगता है कि कौन ज्ञान प्रदान करता है एवं यह ईश्वरीय है यह आप कैसे जान पाती हैं ?

उत्तर : निस्संदेह यह ईश्वर द्वारा प्रदान किया जाता है । आप देखें कि दिव्य विचार आनंद से भरे होते हैं । इनके प्रवाह में निरंतरता एवं स्थिरता होती है । ऐसे समय में व्यक्ति स्वयं में शून्य अनुभव कर सकता है । आसपास की किसी बात का भान नहीं रहता । कई बार व्यक्ति सूक्ष्म शीतलता का अनुभव कर सकता है ।

क्या मुझे प्राप्त होनेवाला ज्ञान वास्तव में ईश्वरीय है अथवा मेरा मन मुझे भ्रमित कर रहा है ?’ – ऐसी असामान्य शंका कदापि नहीं होती । एक निश्चित सीमा तक, अनिष्ट शक्तियों (भूत, प्रेत, राक्षस, इत्यादि) द्वारा असत्य ज्ञान प्रदान कर छले जाने से बचने के लिए सावधानी की आवश्यकता होती है; तथापि साधक सुरक्षित हो जाता है क्योंकि परम पूजनीय डॉ. जयंत आठवलेजी स्वयं ज्ञान की सत्यता निर्धारित करते हैं ।

प्रश्न : किस रूप में ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त होता है ? उदाहरण के लिए, क्या यह दृष्टि के माध्यम से चित्र के रूप में प्राप्त होता है अथवा मात्र विचारों से?

उत्तर : इसका कोई निर्धारित स्वरूप नहीं है । यह चित्र स्वरूप के साथ-साथ विचारों के रूप का एक संयोजन है ।

प्रश्न : आपको प्राप्त होनेवाले ईश्वरीय ज्ञान के विषय कौन से हैं ?

उत्तर : ईश्वरीय ज्ञान अधिकतर आध्यात्मिक कला एवं देवताओं के चित्रों के विषय में होता है । अभी तक मुझे आध्यात्मिक स्पंदन एवं उनकी विशेषता, आध्यात्मिक रंगों, देवताओं की आयु इत्यादि के विषयों में ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त हुआ है ।

प्रश्न : क्या आपको पूरे दिन ज्ञान प्राप्त होता है अथवा इसका कोई निश्चित समय एवं निश्चित स्थान है ?

उत्तर : मेरे पूर्व कहे अनुसार, इस ईश्वरीय ज्ञान का प्रवाह ‘मांग-आपूर्ति’ सिद्धांत के जैसा है । इसका कोई निश्चित समय अथवा स्थान नहीं है । साथ ही परम पूजनीय डॉ. जयंत आठवलेजी के मार्गदर्शन में बनी श्री गणेशजी की सात्त्विक मूर्ति के निकट बैठने से भी सहायता होती है ।

प्रश्न : आपको एक दिन में कितना ज्ञान प्राप्त होता है ?

उत्तर : एक दिन में औसतन मुझे २-३ विषयों पर ज्ञान प्राप्त होता है ।

प्रश्न : ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त होते समय, आप प्रायः किस अवस्था में होती हैं ?

उत्तर : प्रायः आनंदावस्था में तथा कभी-कभी ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करते समय, मुझे दम घुटने, चक्कर आने एवं मस्तक में भारीपन अनुभव होता है ।

प्रश्न : इस अवस्था में पहुंचने के लिए आपने क्या-क्या प्रयास किए, जहां आप ईश्वर के साथ प्रत्यक्ष संपर्वâ कर पाती हैं ?

उत्तर : यदि आप ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति हेतु मेरे किसी विशिष्ट उद्देश्य से किए गए प्रयासों के विषय में पूछ रहे हैं, तो मेरा उत्तर है ‘कोई भी प्रयास नहीं’ । आरंभ में, मैंने ईश्वरीय ज्ञान को प्राप्त करने का न तो प्रयास किया ना ही इच्छा हुई । ईश्वर ने मेरी वृत्ति में श्री गणेश की मूर्ति के माध्यम से कुछ परिवर्तन किए । परम पूजनीय डॉ. जयंत आठवलेजी के मार्गदर्शन में जो गुण मुझमें विकसित हुए, इस प्रक्रिया को आरंभ करने में वे ही उत्तरदायी हैं । कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं :

  • जिज्ञासा : जो सत्सेवा मैं कर रही थी वह मुझे परम पूजनीय डॉ. जयंत आठवलेजी के निकट ले आई । वे मेरे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर, चाहे वह कितना भी सामान्य हो, ऐसे सूक्ष्मतम विस्तार से देते कि मैंने उनसे अध्यात्म के ही नहीं अपितु कला के भी कई सिद्धांतों को सीखा । यदि मैं उनसे वे प्रश्न नहीं पूछती, तो मैं कभी सीख नहीं पाती । अब परम पूजनीय डॉ. जयंत आठवलेजी के स्थान, पर श्री गणेश हैं जो मेरे प्रश्नों के उत्तर देते हैं ।
  • प्रार्थनाएं एवं स्वीकृतियां : परम पूजनीय डॉ. जयंत आठवलेजी के अनुसार, श्री गणेशजी की प्रतिमा स्वयंभू है । जब से इस प्रतिमा को देवद आश्रम से लाया गया है, मेरी प्रार्थनाओं एवं आतंरिक स्वीकृतियों में गुणात्मक सुधार हुआ है, उनकी उपस्थिति मात्र ने ईश्वर को प्राप्त करने की मेरी उत्सुकता को बढा दिया है ।
  • कृतज्ञता : उनसे प्राप्त हुई अनुभूतियों के कारण, मैंने न केवल श्री गणेश को अपितु प्रतिमा बनानेवाले मूर्तिकार साधक श्री गुरुदास खंडेपारकर के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त की ।

प्रश्न : आपने कबसे परम पूजनीय डॉ. जयंत आठवलेजी से आध्यात्मिक मार्गदर्शन ले रही हैं ?

उत्तर : मैं वर्ष १९९६ से परम पूजनीय डॉ. जयंत आठवलेजी के मार्गदर्शन में सत्सेवा कर रही हूं । मैं अपने आरंभिक अनुभवों में से एक को आपके साथ साझा करना चाहती हूं जिसने मुझ पर चिरकालीन संस्कार निर्मित किए ।

एक दिन जब मैं देवता का चित्र बना रही थी, मुझे एक चरण का अनुपात ठीक से प्राप्त नहीं हो रहा था । मेरे कई प्रयास करने पर भी, कुछ भी होते नहीं दिख रहा था । मैंने सटीक अनुपात को प्राप्त करने के लिए मॉडल का भी प्रयोग किया, तभी परम पूजनीय डॉ. जयंत आठवलेजी कक्ष में आए और जब मैंने उन्हें अपनी समस्या बताई, तो उन्होंने कुछ क्षणों के लिए ध्यान वेंâद्रित किया एवं मैं जिस कागज पर चित्र बना रही थी उस पर मुझे संदर्भ बिंदु बताया, एवं सब ठीक हो गया । मेरी समस्या का समाधान हो गया । जिस समाधान के लिए मैंने घंटों तक अपने सभी साधनों (उपकरणों) एवं मॉडल के साथ संघर्ष किया, वह वस्तुतः उनकी पेंसिल की नोंक पर था एक कलाकार के रूप में प्रशिक्षित न होते हुए भी, उन्हें कला के प्रत्येक क्षेत्र की हर छोटी से छोटी बात की जानकारी रहती है । ये इस प्रकार की अनुभूतियां है जिन्होंने मुझे कला के माध्यम से अपने आध्यात्मिक शोध को करते रहने के लिए प्रेरित किया ।

प्रश्न : यदि आपको अपने स्वाभाव के किसी एक गुण को बताना पडे जिसके कारण आप इस दिव्य उपहार से समृद्ध हुर्इं, तो वह क्या होगा ?

उत्तर : जिज्ञासा ।

प्रश्न : क्या ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करते समय आपको भाव जागृति की अनुभूति होती है ?

उत्तर : हां ! प्रायः ।

प्रश्न : क्या ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त होने के कारण आपने स्वयं को कभी विशेष समझा एवं यदि ऐसा है, तो इन अहं निर्माण करनेवाले विचारों से स्वयं को किस प्रकार मुक्त किया ?

उत्तर : यदि मैं ऐसा कहूं कि ऐसे विचार मेरे मन में नहीं आए तो यह असत्य होगा । तथापि, इस प्रकार के विचार प्रत्येक बार आते हैं; परंतु मुझे आध्यात्मिक रूप से क्षति पहुंचानेवाले इन विचारों के प्रभावों को शीघ्र समझने में सक्षम हूं । मैं शीघ्र ही ज्ञान के उपहार के लिए एवं अपने अहं निर्माण करनेवाले विचारों का भान होने के लिए कृतज्ञता व्यक्त करती हूं । मैं बारंबार अपने मन पर यह बल देती हूं कि ईश्वर प्राप्ति का मेरा मूलभूत लक्ष्य अभी भी दूर है ।

प्रश्न : जबसे आपको ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त होना आरंभ हुआ क्या आपके व्यक्तिगत/आध्यात्मिक जीवन में कोई परिवर्तन हुआ है ?

उत्तर : निश्चित रूप से, नामजप एवं प्रार्थनाओं में संख्यात्मक एवं गुणात्मक वृद्धि हुई है । मेरा नामजप अब मेरी श्वासों के साथ होने लगा है । मुझे अन्य प्रकार की सत्सेवाओं से भी समान आनंद प्राप्त होता है । परिणामस्वरूप, निश्चित ही मेरे जीवन में संख्यात्मक एवं गुणात्मक दोनों ही रूप से आनंदित क्षणों में वृद्धि हुई है ।

र्इश्वरीय ज्ञान का नमूना