पितृपक्ष से संबंधित अनुभूतियां – श्रीमती श्वेता क्लार्क

१. मृत पूर्वजों की सहायता हेतु प्रार्थना करने पर ईश्वर से उत्तर प्राप्त होना

पितृपक्ष से संबंधित अनुभूतियां – श्रीमती श्वेता क्लार्क

ईश्वर की कृपा से मुझे श्राद्ध (एक प्रभावशाली अनुष्ठान जिससे मृत पूर्वज आध्यात्मिक स्तर पर लाभान्वित हाेते हैं) के संबंध में बडी अनुभूति हुई । मेरा विवाह शॉन क्लार्क से हुआ ही था एवं विवाह के उपरांत वह हमारा पहला पितृपक्ष (इस कालावधि में, मृत पूर्वज भूलोक के समीप आते हैं) था ।  उस समय शॉन आैर मैं ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में रहते थे । वर्ष २०१२ में पितृपक्ष की कालावधि ३० सितम्बर से १५ अक्टूबर तक थी । हम दोनों ही स्पिरिचुअल साइंस रिसर्च फाउंडेशन (SSRF) के मार्गदर्शन में साधना कर रहे थे तथा हम श्री गुरुदेव दत्त के नामजप का महत्त्व तथा पितृपक्ष की यह कालावधि मृत पूर्वजों के लिए कितनी महत्त्वपूर्ण होती है, यह जानते थे । इसके साथ ही, मेरी यह इच्छा बढते जा रही थी कि हमें अपने मृत पूर्वजों के लिए हर संभव प्रयास करने चाहिए जिससे कि उन्हें आगे के लिए गति प्राप्त हो और वे आगे बढ सकें ।

संपादक की टिप्पणी : पितृपक्ष की कालावधि में, संबंधियों द्वारा श्री गुरुदेव दत्त का नामजप एवं श्राद्ध विधि करने से मृत पूर्वजों की सूक्ष्म देह को अधिकतम आध्यत्मिक लाभ प्राप्त होता है ।

मेरे पैतृक घर में, प्रत्येक वर्ष मेरे भाई श्राद्ध करते हैं; किंतु शॉन के परिवार में इस विधि को कभी नहीं किया गया था । जैसे ही पितृपक्ष आरंभ होने वाले थे, मेरे मन में विचार आ रहे थे कि हमारे मृत पूर्वज अटके हुए एवं कष्ट में हो सकते हैं तथा उनके लिए कुछ करने की तीव्र इच्छा हो रही थी । किंतु, चूंकि हम मेलबर्न में थे तथा वहां श्राद्ध विधि सामान्यतः नहीं की जाती, इसलिए मैं नहीं जानती थी कि किसे संपर्क किया जाए । मैं भगवान दत्तात्रेय ईश्वर का एक रूप जो मृत पूर्वजों को मृत्योपरांत  गति प्रदान करते हैं) से पूरी तडप से प्रार्थना करने लगी कि आप ही हमारी सहायता कीजिए । मैंने SSRF के ‘श्राद्ध’ ग्रंथ का अध्ययन करना आरंभ किया तथा यह जानने का प्रयास करने लगी कि श्राद्ध को विधिवत रूप से करने में असमर्थ होने की स्थिति में और क्या किया जा सकता है ।

ग्रंथ के माध्यम से, हमें ऐसी अनेक सामान्य विधियों के विषय में जानकारी प्राप्त हुई, जो मृत पूर्वजों की सहायता करने हेतु आध्यात्मिक लाभ प्रदान करने के लिए की जा सकती हैं । शॉन और मैंने उन विधियों को निष्ठापूर्वक करने का निर्णय लिया । जैसे ही पितृपक्ष प्रारंभ हुए, शॉन एवं मुझे भीतर से अत्यधिक भाव और शांति की अनुभूति हुई । हमें प्रारंभ से ही भगवान दत्तात्रेय के अस्तित्व की अनुभूति हो रही थी । हममें इस बात को लेकर अत्यधिक कृतज्ञता भाव था कि श्राद्ध के संबंध में अधिक न कर पाने पर भी भगवान दत्तात्रेय कितने दयालु हैं, कि इतनी सामान्य विधियां करने पर भी सहायता के लिए आते हैं और संतुष्ट होते हैं।

१ अक्टूबर (उस वर्ष के पितृपक्ष का प्रथम दिन) के दिन हम प्रातः जल्दी उठ कर स्नान इत्यादि से निवृत हो गए । उपरांत हमने घर के पूजाघर में घी का एक दीपक प्रज्वलित किया । तदोपरांत शॉन एवं मैंने हमारे मृत पूर्वजों की सहायत करने, पितरों के सभी कष्टों को दूर करने एवं हमारी साधना में हमें सहायता करने हेतु भगवान दत्तात्रेय से भावपूर्ण प्रार्थना की । शॉन ने बैठकर कुछ देर निरंतर ‘श्री गुरुदेव दत्त’ का नामजप किया । उपरांत उन्होंने पितृतर्पण (पितरों को जल अर्पित करने की विधि) किया । यह करने हेतु शॉन ने दक्षिण दिशा की ओर मुख किया तथा तांबे के चम्मच को बाएं हाथ में पकडकर अपनी दाई हथेली पर धीरे-धीरे पानी उंडेला । उन्होंने ने यह इस प्रकार किया जिससे पानी अंगूठे आैर तर्जनी के (अंगूठे पासवाली उंगली के) बीच से नीचे रखे तांबे की थाली में गिरे ।  पूरी विधि के समय, हम श्री गुरुदेव दत्त का नामजप करते रहे ।

तदोपरांत, पूजा घर में, हमने दक्षिण दिशा की ओर मुख करके अपने दोनों हाथ ऊपर उठाएं (शरणागति दर्शाने हेतु) आैर भगवान वासु, आदित्य, रूद्र, वैश्व एवं दत्तात्रेय से यह प्रार्थना की, “हम असहाय हैं । आप कृपा कर हमारे मृत पूर्वजों को गति प्रदान करें ।”

उसके पश्चात मैंने थोडा चावल बनाया तथा उसमें थोडा काला तिल एवं घी मिलाया । उस मिश्रण से मैंने चावल के ७-८ गोले बनाएं तथा उन्हें थाली में रख दिया । उपरांत हम थाली को घर के बाहर सडक के पास बने फुटपाथ पर ले गए । हमने चावल के गोलों को घास पर रखा और भगवान दत्तात्रेय से इस प्रकार प्रार्थना की, “इस ग्रास से कृपया आप ही हमारे पितरों को तृप्त होने तथा गति मिलने में सहायता कीजिए । हमारे पास केवल यही है । हम विनम्रतापूर्वक आपको यह अर्पण करते हैं । आप ही इस ग्रास को स्वीकारें एवं हमारे पितरों को आशीर्वाद दें ।”

अध्यात्मशास्त्र के अनुसार, पिंड को अर्पण करने के उपरांत यदि कौए आकर उसे खाते हैं तो यह दर्शाता है कि पितरों को अन्न प्राप्त हुई है ।

संपादक की टिप्पणी : पिंडदान विधि के दौरान, चावल के पिंड अर्पण करने से मृत पूर्वजों का आह्वान होता है । चावल के पिंड से मृत पूर्वजों की अतृप्त इच्छाएं तृप्त होती हैं । एक सामान्य मनुष्य की अनेक इच्छाएं होती है, इस कारण उसकी सूक्ष्म-देह से रज-तम (आध्यात्मिक रूप से अशुद्ध) प्रधान तरंगें निकलती है । कौए की मूल प्रकृति रज-तमात्मक होती है । इसलिए वे रज-तम प्रधान तरंगों को आकर्षित करते हैं तथा वे उन्हें ग्रहण कर सकते हैं । जब मृत पूर्वजों की सूक्ष्म देह चावल के पिंड की ओर आकर्षित होती है तब मृत पूर्वजों के कारण चावल के पिंड रज-तम प्रधान तरंगों से भारित हो जाते हैं । कौए इन तरंगों की ओर आकर्षित होते हैं । कौए द्वारा चावल के पिंड को छुआ जाना, इस बात का सूचक है कि विधि के स्थान पर मृत पूर्वज आए तथा अन्न से वे तृप्त हुए । इस प्रक्रिया को ‘काकस्पर्श’ कहते है । अतः कौआ अतृप्त सूक्ष्म देह तथा मानव के बीच एक माध्यम होता है।

हम जहां ठहरे हुए थे वहां अधिक कौए नहीं आते । चावल का पिंड रखने के उपरांत हमने ईश्वर पर परिणाम छोड दिया और शॉन अपने कार्य के लिए चले गए । मैं उस स्थान पर ५ मिनट तक रही तथा प्रार्थना करने के लिए रुकी । मेरे लिए यह आश्चर्य की बात थी कि ५ मिनट के भीतर ही ३५ से ४० बडे कौए आए और चावल के पिंड को खाने लगे । मैं ईश्वर की इस कृपा से इतनी अभिभूत हो गई कि मेरी आंखों में कृतज्ञता के आंसू आ गए । मैं नही जानती थी कि इस भाव को कैसे व्यक्त किया जाए । मैं वहां खडी रही और मृत पूर्वजों, जो कि कौए के रूप में आए थे और पिंड से तृप्त हुए, मैंने उन्हें प्रणाम किया । चावल का पिंड पूरा समाप्त करने के उपरांत भी कौए वहां से नहीं गए । वे बहुत देर तक आस पास के पेडों पर बैठे रहे तथा उनमें से कुछ ने संतोष प्रकट करने के रूप में अपना सिर हिलाया । मुझे ऐसा लगा कि मृत पूर्वज उनके माध्यम से मृत्योपरांत के उनके कष्टों से राहत अनुभव किए जाने पर कृतज्ञता व्यक्त कर रहे थे ।

हमे आध्यात्मशास्त्र, जो कि श्राद्ध विधि करने के महत्त्व बताता है, उसे समझाने एवं हमारे माध्यम से इसे करवाने के लिए हममें क्षमता, इच्छा एवं भाव  प्रदान करने के लिए, हम परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के प्रति अत्यधिक कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ।

. भारत के गोवा स्थित आध्यात्मिक शोध केंद्र में  विधिवत रूप से किए गए श्राद्ध का पूर्ण का लाभ अनुभव करना

वर्ष २०१४ में, शॉन एवं मैं भारत के गोवा स्थित आध्यात्मिक शोध केद्र तथा आश्रम में पूर्णकालिक साधना करने भारत वापस आए । वर्ष २०१४ में, पितृपक्ष ८ सितंबर से २३ सितंबर की कालावधि में था । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की कृपा से हमें श्राद्ध विधि को उसके पूर्ण विधिवत रुप से करने का अवसर प्राप्त हुआ । ऐसा लगा जैसे ईश्वर ने हमारी प्रार्थना सुन ली, क्योंकि हम दोनों को लग रहा था कि कहीं न कहीं हमने अपने मृत पूर्वजों के लिए जितना करना चाहिए था उतना नहीं पर पाए थे । आध्यात्मिक शोध केंद्र एवं आश्रम में श्राद्ध विधि करने का अवसर ईश्वर द्वारा ही दिया गया था । यह इसलिए भी अधिक प्रभावी था क्योकि आध्यत्मिक शोध केंद्र एवं आश्रम में पुजारी साधक धार्मिक अनुष्ठान को अत्यधिक भाव के साथ करते हैं । इसके साथ ही परात्पर गुरु डॉ आठवलेजी की उपस्थिति एवं आध्यत्मिक शोध केंद्र एवं आश्रम में व्याप्त चैतन्य, आध्यात्मिक शक्ति एवं सकारात्मकता को कई गुना अधिक बढा देते है, फलस्वरूप मृत पूर्वजों को अधिकतम सहायता प्राप्त होती है ।

हमने विधि के लिए सभी आवश्यक तैयारियां की थी । जिस दिन श्राद्ध विधि की जानी थी, उस दिन मैं बहुत जल्दी उठ गई क्योंकि मुझे स्नान इत्यादि कर भोजन बनाना था । मैं अध्यात्मिक शोध केंद्र एवं आश्रम के रसोईघर में भोजन बना रही थी जो कि बहुत एकांत में है तथा इसमें कोई भी पक्षी प्रवेश नही कर सकता । प्रातः लगभग ५ बजे मैंने भगवान दत्तात्रेय से प्रार्थना की तथा भोजन बनाने हेतु आवश्यक सामग्रियों को एकत्रित करना आरंभ किया । तभी एक बडा कौआ जाने कहां से वहां आ गया, मेरे लिए यह आश्चर्यजनक था  । वह अंदर आया और वहां शांतिपूर्वक बैठ गया । मैं यह देखकर बहुत ही आश्चर्यचकित थी क्योंकि मैंने रसोई घर में भोजन बनाने की सत्सेवा  पहले भी अनेक बार की थी किंतु कभी कोई कौआ अथवा कोई पक्षी भीतर नही आया । मैंने कौए को प्रणाम किया क्योंकि मुझे लगा कि शॉन के स्वर्गीय दादाजी कौए के रूप में आए हैं  । मुझे प्रतीत हुआ जैसे वे पूर्वजों के लिए किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान को स्वीकार करने एवं कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए आए थे । उन्होंने भोजन को न ही छुआ तथा न ही कोई शोर किया । वे अत्यधिक शांत थे तथा जब तक मैं भोजन बना रही थी वे लंबे समय तक वहां बैठे रहे । मैंने उस समय वह अनुभूति शाॅन को नहीं बताई ।

तदोपरांत श्राद्ध विधि आरंभ हुई । शॉन पुजारी साधकों द्वारा बताए अनुसार श्राद्ध विधियों को विधिवत कर रहे थे । जब शॉन  ने विधि आरंभ की, तब उन्हें अपने पीछे कौए के स्वर सुनाई दिए । उन्हें एक प्रबल विचार आया कि उनके स्वर्गीय दादाजी विधि के लिए आए है तथा वे दूसरे सभी मृत पूर्वजों को भी बुला रहे हैं । पूरी विधि होने तक हमें भगवान दत्तात्रेय के अस्तित्व की अनुभव हुई ।

विधि पूर्ण होने के उपरांत शॉन  एवं मैं अपनी अनुभूतियों को साझा कर रहे थे । अनुभूतियों को आपस में साझा करने पर हमें यह अनुभव हुआ कि शॉन के स्वर्गीय दादाजी विधि में आए थे ।

संपादक की टिप्पणी : जब दो साधकों के मन में एक ही विचार आए तो वह सत्य होता है ।

हमने यह भी बात ध्यान में आई जो रोचक थी कि जब भी पितृपक्ष आरंभ होते हैं, आश्रम के चारों ओर कौवों  की संख्या में वृद्धि हो जाती है । आश्रम में श्राद्ध विधि प्रतिदिन होती थी । संध्याकाल में, सभी कौवे आश्रम के बाहर बिजली के तार पर बैठ जाते । हमने कभी भी इतने सारे कौए एक साथ पंक्ति में बैठे नहीं देखे । उपरांत के वर्षों में भी ऐसा होने लगा तथा ऐसा केवल पितृपक्ष की कालावधि में ही होता था ।