विषय सूची
- १. पूजनीय सिरियाक वालेजी का परिचय
- २. बाल्यावस्था के दिन
- ३. युवावस्था और मॉडलिंग
- ४. साधना का आरंभ और कष्टप्रद अनुभव
- ५. प्रथम भारत दर्शन और विवाह
- ६. भारत में लौटना और संतों द्वारा आध्यात्मिक उपचार किया जाना
- ७. यूरोप में साधना
- ८. भारत में रहकर साधना और आध्यात्मिक उन्नति
- ९. अनेक संतों के सत्संग में पूजनीय सिरियाकजी
- १०. सत्सेवा के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति
- ११. संतपद पर विराजित होना
१. पूजनीय सिरियाक वालेजी का परिचय
पूजनीय सिरियाक वालेजी की साधनायात्रा के इस लेख में उनके जीवन के कुछ ऐसे प्रसंग वर्णित किए हैं, जिससे ईश्वरप्राप्ति के लिए प्रयत्न करनेवाले साधकों को स्फूर्ति एवं प्रेरणा मिलेगी । बचपन से लेकर आज तक, आजीवन उनके अंतःकरण में एक बात जो बहुत निकट थी, वह थी, ईश्वर का अस्तित्व, जो उनके जीवन का केंद्र था । साधना के प्रति आस्था एवं दृढता के कारण जीवन की सभी घटनाओं की ओर वे साक्षीभाव से देखते थे । २४ दिसंबर १९९९ में परम पूजनीय डॉ.आठवलेजी के रूप में गुरुप्राप्ति होने तक वे साधना करते रहे । गुरु प्राप्ति के पश्चात उन्होंने साधना में ऊंची छलांग लगाई । इस लेख में, उनका बचपन, फैशन मॉडल बनना, भावी पत्नी योयाजी से मिलना, पिता बनना (अनास्तासिया, जो इनकी १० वर्ष की बेटी है), साधना का आरंभ और अंत में ईश्वरीय कार्य के लिए संपूर्ण जीवन समर्पित करना एवं तत्पश्चात संतपद पर विराजित होना आदि सभी प्रसंगों का उल्लेख किया गया है ।
इनके बारे में एक विशेष बात यह है कि उन्होंने इस भूलोक पर उच्च स्वर्गलोक से जन्म लिया है । जन्म के समय उनका आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशत था । कालांतर में इनका आध्यात्मिक स्तर ४० प्रतिशत हो गया । (उच्च लोकों से जन्मेसभी के साथ ऐसा होता है; क्योंकि उन्हें अपना प्रारब्ध भोगना पडता है । परंतु पूर्वजन्म की साधना के कारण ऐसे जीव तीव्र गति से आध्यात्मिक उन्नति कर आगे बढते हैं ।) इसलिए पूजनीय सिरियाकजी में अनेक ईश्वरीय गुण हैं । जन्म से ही उनका व्यक्तित्व प्रेमभरा होने से अन्य लोगों को उनके प्रति निकटता प्रतीत होती थी । आध्यात्मिक उन्नति के प्रयत्न करनेवाले विश्व के सभी साधकों के लिए वे कई वर्षोंतक आधार बने रहें । यह लेख संकलित करते समय (नवंबर २०१४) पूजनीय सिरियाकजी का आध्यात्मिक स्तर ७३ प्रतिशत हो चुका है ।
२. बाल्यावस्था के दिन
पूजनीय सिरियाक वालेजी का जन्म १९७१ में फ्रांस में हुआ । बचपन से ही उनका झुकाव अध्यात्म की ओर था । उनकी मां बताती हैं कि जब पूजनीय सिरियाक वालेजी ५ से ७ वर्ष के थे, अध्यात्मशास्त्र के बारे में बहुत प्रश्न पूछते थे । ईश्वर के बारे में जानने की उनमें जन्मजात उत्कंठा थी । कई बार बगीचे में खेलते समय वे ऊंचे स्वर में बोलते, मैं ईश्वर के साथ हूं ।
पूजनीय सिरियाक वालेजी को बचपन से ही अपने बारे में दृष्टांत हुआ करते थे । इसका कारण वे समझ नहीं पाते । उनके मन में बार-बार इसी विषय पर चिंतन होता और वे इसका स्पष्टीकरण ढूंढने का प्रयास करते । ७ वर्ष की अवस्था में उन्हें एक ऐसा ही दृष्टांत हुआ, जिस में पूजनीय सिरियाक वालेजी को लगा कि यह काल साधना की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और उन्हें एक उच्च ध्येय के लिए इस काल में जन्म लेना अतिआवश्यक है ।
१०-१२ वर्ष की अवस्था में पूजनीय सिरियाक वालेजी विद्यालय के गिरिजाघर में जाकर नित्य प्रार्थना करते थे । एक प्रसंग का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा कि एक बार मुझे अचानक अत्यधिक शांति का अनुभव हुआ । जैसे मेरे आसपास की वस्तुओं का महत्व ही नष्ट हो गया । इसके पश्चात कई घंटों तक मुझे बहुत शांत लग रहा था और मुझे भूख एवं प्यास भी नहीं लगी । ऐसी शांति का अनुभव मैंने पहले कभी नहीं किया था । अब पीछे मुडकर देखने पर प्रतीत होता है कि ईश्वर के साथ आंतरिक सान्निध्य होकर मैंने पहली बार आनंद का अनुभव किया था, जबकि उस समय मैं आनंद की परिभाषा भी नहीं समझता था ।
‘‘किशाेरावस्था में मैं पूर्वजन्म पर विश्वास करता था, जबकि मेरा अपना धर्म यह मानता नहीं था । किसी व्यक्ति की ओर देखकर पूर्वजन्म में वह क्या होगा, कभी-कभी इसकी कल्पना करना, मेरा खेल था ।
३. युवावस्था और मॉडलिंग
बचपन के वर्षों में पूजनीय सिरियाक वालेजी को वातविकार से बहुत संघर्ष करना पडा, जिसका प्रभाव उनके विद्यालयीन जीवन पर पडा । ७ वर्ष की अवस्था में उन्हें जूडो सीखने मे रुचि उत्पन्न हुई । उन्होंने इसमें कौशल प्राप्त किया और १८ वर्ष की अवस्था में ब्लैक बेल्ट प्राप्त किया । विविध प्रकार की प्रतियोगिताएं तथा अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामेंटस में वे सहभागी हुए । बडे होकर मॉडलिंग व्यवसाय में पदार्पण करने के पश्चात भी अध्यात्म के प्रति उनकी उत्कंठा वैसी ही रही ।
ये उनके जीवन के संस्कारक्षम दिन थे । इन दिनों वे जीवन के सभी आयामों का चिंतन करते थे । उनकी मनःस्थिति कभी सांसारिक तो कभी आध्यात्मिक जीवन ऐसी दुविधावाली होती थी । पूजनीय सिरियाक वालेजी की समझ में आया कि उन्हें दोनों के प्रति आकर्षण है । उन्होंने बताया, लगभग २० वर्ष की अवस्था में मुझे ध्यान में आया कि हमारे आसपास के अधिकांश लोग, एक मनुष्य को जैसा होना चाहिए, वैसे नहीं है । हम आध्यात्मिक उन्नति कर सकते हैं । मैंने देखा कि लोग समस्या एवं क्लेश से ग्रस्त हैं । मुझे लगा कि मनुष्य के पास वह क्षमता है, जिसके आधार पर वह इस निराशा का अंत कर आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है । मुझे गुरु ढूंढने की इच्छा हुई । मैं तिब्बत एवं भारत की ओर आकृष्ट हुआ । मैंने तो तिब्बती साधु बनने का भी विचार किया था ।
‘‘२३ वर्ष की अवस्था में जब मैंने मॉडलिंग करना आरंभ किया, मैं बहुत भ्रमण करने लगा । मैं प्रयास करता था, परंतु भीतर से लगता था कि उचित समय अभीतक नहीं आया है । अनेक आध्यात्मिक संप्रदायों से मैं मिला, परंतु शीघ्र ही मुझे समझ में आ जाता कि मेरे लिए ये उचित साधनामार्ग नहीं हैं । अधिकतर मैं सभी से अध्यात्मशास्त्र विषय पर ही चर्चा करता था । इसके अतिरिक्त किसी विषय पर बात करने की मुझे इच्छा नहीं होती थी । अन्यथा मैं शांत बैठना चाहता था ।
‘‘कर्इ बार लोगों के मन की बातें, वे क्या विचार कर रहे हैं अथवा दैनिक जीवन में उन्होंने क्या किया है; यह मैं अंतर्ज्ञान से समज्ञ जाता । ये कल्पनाएं हैं अथवा नहीं, इसका मुझे पता नहीं, परंतु कई बार विविध लोगों से वार्तालाप करते समय मुझे विभिन्न शक्तियां प्रतीत होती थीं । अध्यात्म से तो मैं अनभिज्ञ था और इसलिए मुझे जो प्रतीत होता, उसके बारे में असमंजस में पड जाता । कई बार भीतर से जो संवेदना प्रतीत होती, वह सत्य प्रमाणित होती थी ।
‘‘अप्रैल १९९८ में मैं जापान के टोकियो में मॉडलिंग के लिए गया था । वहां मेरी भावी पत्नी, योया से मेरी भेंट हुई । भेंट के समय एक-दूसरे देखते ही लगा कि हम एक-दूसरे से एकरूप हो गए हैं । पहले मुझे मॉडलिंग विश्व का वातावरण अच्छा नहीं लगता था, इसलिए मैं अकेले रहने का प्रयास करता था । परंतु जब मैं योया से मिला, तब मुझे लगा कि पहली बार किसी ने मेरा कोष भेदकर मुझे भीतर से पहचान लिया है । इससे मुझे आश्चर्य लगा और साथ ही मैं अत्यंत भावुक हो गया । दूसरे दिन मैं बगीचे में घूमने गया । वहां मैंने देखा कि योया प्रसन्न है और नाच रही है । मेरे अंतःचक्षुओं से मैंने देखा कि ऊपर से पीला प्रकाश आया और उसने छोटे चमकीले कणों के साथ उसे (योया को) अपनेआप में समेट लिया है ।
पूजनीय योया और पूजनीय सिरियाक में प्रस्थापित संबंध शीघ्र ही आध्यात्मिक स्तर पर परिवर्तित हुए । योया को श्रवण तथा वाग्दोष था, परंतु उनसे मिलने पर पूजनीय सिरियाकजी के मन में कोई प्रश्न नहीं आया । अधिकतर लोग विकलांग जीवनसाथी को नहीं चुनेंगे । इन बाह्य मर्यादाओं का पूजनीय सिरियाकजी के लिए कोई महत्व ही नहीं था; क्योंकि उन्हें योया में एक सकारात्मक व्यक्ति के दर्शन हुए । जब वे उन्हें मिले, तब उन्होंने बीथोवेन का उदाहरण दिया, जो सभी संगीतकारों में अत्यधिक विख्यात और प्रभावी था ।
बीथोवेन को लगता था कि यदि वे पूर्णतः बहरे होते, तो अधिक अच्छा संगीत बना पाते । अंतर के संगीत सुनने से शुद्ध संगीत उदित हो सकता है । अतः पूजनीय सिरियाकजी को दृढता से लगता था कि योया का श्रवणदोष वास्तव में उसकी शक्ति थी । सुनने की इस मर्यादा के कारण ही वह अधिकाधिक ईश्वर के आंतरिक सान्निध्य में रह सकती थी और एक अर्थ से यह उनकी शारीरिक मर्यादा कभी नहीं थी ।
४. साधना का आरंभ और कष्टप्रद अनुभव
योया से भेंट एक सुवर्ण क्षण था, जिससे उनकी आध्यात्मिक यात्रा का मार्ग प्रशस्त हुआ । फरवरी १९९९ में पूजनीय सिरियाकजी इटली के मिलान गए । इस समय योया और वे दूसरी बार मिले । पूजनीय सिरियाकजी ने भूतकाल का एक प्रसंग बताया, योया से मिलने के पहले उस दिन सवेरे मुझे एक अभूतपूर्व अनुभव हुआ था । मैं स्नान कर रहा था और अत्यंत प्रसन्न था एवं गीत गा रहा था । एक क्षण मेरे भीतर से मारिया, ऐसी एक आवाज तीन बार आई । मैं स्तब्ध होकर खडा हो गया और मेरे रोंगटे खडे हो गए । यह आवाज मेरी नहीं थी, यह जानकर मैं असमंजस में पड गया ।
उस दिन दोपहर में मैं योया से उसके कार्यालय में मिला । सायंकाल में मैं उसके और उसकी मां, ड्रगाना के साथ उनके घर गया । घर जाने पर हम पुनः अध्यात्म पर चर्चा करने लगे । उस समय तक ड्रगाना और योया ने साधना आरंभ की थी । उन्होंने मुझे नामजप के बारे में बताया । उसी दिन सवेरे मैंने स्नान के समय फ्रेंच भाषा में मदर मेरी का नामजप किया था, इसका स्मरण होकर मुझे आश्चर्य लगा । मुझे स्मरण है कि ड्रगाना मुझे अध्यात्मशास्त्र के कुछ बिंदु बता रही थी । मुझे लगा कि वे बिंदु मेरे अंतर को बेध रहे थे और मैं भीतर ही भीतर रो रहा था । मैं देहभान खो रहा था ।
‘‘मैंने तुरंत नामजप आरंभ किया । मुझे स्मरण है कि मैं कुछ दिनों के लिए बाहर गया था और उस समय मेरा नामजप निरंतर चल रहा था । वापस आने पर मैंने योया और उसकी मां को रात में एक उपाहारगृह (रेस्टोरेंट) में भोजन के लए बुलाया था । ड्रगाना मेरी दाईं ओर बैठी थी । अचानक ड्रगाना को बेचैनी लगने लगी । उन्हें प्रतीत हुआ कि मेरे सर्व ओर एक कष्टप्रद विद्युत प्रवाह है । उसने मेरे दाएं कंधे को स्पर्श करने का प्रयास किया और अचानक जलने जैसा अनुभव होने से वह स्तब्ध रह गईं । उन्हें कुछ तो विचित्र हो रहा हैं, ऐसा भान हुआ । तत्पश्चात उन्होंने मेरे मस्तक से १० सेंमी. दूरी पर अपना हाथ रखा । बाद में उन्होंने कहा कि उन्होंने मेरे मस्तक पर हाथ क्यों रखा, इसका कारण वह नहीं जानती ।
उस समय मुझ पर अवर्णनीय क्रोध हावी हो गया था । मैं टेबल से उठकर स्नानगृह में चला गया । मुझे इतना क्रोध आया था कि लगा दर्पण तोड दूं । तदुपरांत मुझे पता चला कि मैं आध्यात्मिक रूप से अपने मृत पूर्वजों की सूक्ष्मदेह से प्रभावित था । क्रोध के इस असाधारण अनुभव से कष्टों से लडने हेतु मेरे संकल्प को बल मिला । (यह अनुभव पूजनीय सिरियाक वालेजी से संबंधित पूर्व के प्रकरण अध्ययन में वर्णित है – संपादक)
‘‘उपहारगृह (रेस्टोरेंट) में हुए इस प्रसंग के दो-तीन दिन पश्चात मैं योया के साथ उसके घर गया । ड्रगाना ने बताया कि उसने परम पूजनीय डॉ.आठवलेजी से मेरे इस क्रोध और जो घटित हुआ उससे संबंधित विषय पर बात की है । परम पूजनीय डॉ.आठवलेजी ने बताया है कि आपको हुए कष्ट आपके मृत पूर्वजों की सूक्ष्मदेह के कारण हैं और इस कष्ट को समाप्त करने के लिए आपको श्री दत्तात्रेय देवता का नामजप करना आवश्यक है ।
पूजनीय सिरियाक वालेजी के जीवन में हुई यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अनुभूति थी । इससे उनकी श्रद्धा बढ गई और वे साधनापथ पर अग्रसर हुए । तदुपरांत वर्ष २००१ में डॉ.आठवलेजी के परामर्श के अनुसार पूजनीय सिरियाक वालेजी पर इन कष्टों के लिए मुंबई के एक संत पूजनीय जोशीबाबा ने आगे के आध्यात्मिक उपचार किए ।
५. प्रथम भारत दर्शन और विवाह
वर्ष १९९९ में पूजनीय सिरियाक वालेजी पहली बार भारत गए । उन्हें इन दिनों का स्पष्ट स्मरण है । दिसंबर १९९९ में मैं योया और उसकी मां के साथ पहली बार भारत गया । हमने वहां जाकर विवाहबद्ध होने हेतु पहले ही पूछ लिया था ।
‘‘२५ दिसंबर १९९९ को मुझे परम पूजनीय डॉ.आठवलेजी को मेरे विवाह के लिए आमंत्रित करना था । मैं उनके कक्ष में गया और उनके पावन चरणों में शीश नवाए । मेरा पूरा शरीर कांपने लगा । जब उन्होंने मेरी पीठ पर अपना हाथ रखा, कुछ ही क्षणों में सबकुछ प्रकाश के एक गोले समान हो गया और कई मिनटों तक मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था । परम पूजनीय डॉ.आठवलेजी ने कहा, मैं आपको नया जीवन देता हूं ! तत्पश्चात परम पूजनीय डॉक्टरजी से पहली बार मिलने पर हुए विलक्षण अनुभव के कारण मेरे भाव जागृत हुए और भावाश्रु बहने लगे ।
‘‘हमें अनेक परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी का सत्संग मिला । वह कितनी देरतक चलता इसका भान भी नहीं होता था । कभी-कभी क्या बोला जा रहा है, मुझे वह समझ में भी नहीं आता था । कभी-कभी मृत पूर्वजों के कष्ट के कारण मैं उनकी ओर देख नहीं पाता अथवा देखने पर कुछ धुंधला दिखता ।
‘‘वैदिक परंपरानुसार मेरा और योया का विवाह २६ दिसंबर १९९९ को हुआ । वैदिक विधियों के समय हम दोनों को अनेक अनुभूतियां हुईं, जिससे हमें भान हुआ कि हमारे संबंध पूर्णतः आध्यात्मिक स्तर के हैं । हम साधना के लिए विवाहबद्ध हुए हैं, इसका ध्यान रखने से जो भी हो रहा है वह साधना ही है यह समझने में सहायता मिली । कई बार मुझे भान होता कि योया का व्यक्तित्व मेरे विपरीत होने से वह मुझे मेरे स्वभावदोष और अहंनिर्मूलन के लिए सहायता ही कर रही है ।
६. भारत में लौटना और संतों द्वारा आध्यात्मिक उपचार किया जाना
फरवरी २००१ में पूजनीय सिरियाकजी और पूजनीया (श्रीमती) योयाजी पुनः छः माह के लिए भारत आए । उस समय पूजनीय सिरियाकजी को पूर्वजों के कष्ट के कारण पेट में तीव्र वेदनाएं होती थी, जिससे उनकी सारी शक्ति छीन जाती । इसलिए परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी ने उन्हें आध्यात्मिक कष्टों का निवारण करनेवाले संत. परम पूजनीय जोशीबाबा के पास भेजा ।
परम पूजनीय जोशीबाबा ने मुझे एक कागज पर मंत्र लिखकर दिया । इस कागज को मेरे शरीर पर चारों ओर घूमाकर उसे जलाना था । उसकी राख को संरक्षित कर उसे किसी तेल एवं मधु के साथ ग्रहण करना था । कागज को कुछ बार मेरे शरीर के चारों ओर घूमाने के उपरांत, जलाने पर कागज नहीं जलता था । उन्होंने एक कागज पर मंत्र लिखा और उसे एक ताबीज में बंद कर लाल धागे से मेरे पेट पर बांधने के लिए कहा ।
परम पूजनीय जोशीबाबा अंग्रेजी में बात नहीं कर सकते थे, किंतु एक बार जब वे किसी अन्य व्यक्ति से बात कर रहे थे, पूजनीय सिरियाकजी को लगा कि वे उनसे ही बात कर रहे हैं, जीवन में कभी किसी कठिन प्रसंग का सामना करना पडे अथवा कुछ भी हो जाए डरो नहीं, नामजप करते रहो; क्योंकि नामजप ही महत्त्वपूर्ण है और अंत में वही रहेगा । ये वाक्य पूजनीय सिरियाकजी के साथ सदैव रहे । परम पूजनीय जोशीबाबा द्वारा दिया ताबीज उन्होंने लगभग २ वर्षोंतक पहना ।
एक दिन सवेरे स्नान करते समय पूजनीय सिरियाकजी ने देखा कि ताबीज खो गया है । ढूंढने पर भी कहीं नहीं मिल रहा था । इस प्रसंग के उपरांत उनके पेट की पीडा समाप्त हो गई । लगभग इसी समय परम पूजनीय जोशीबाबा ने देहत्याग किया । इससे पूजनीय सिरियाकजी के मन में परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी और अन्य संत, जो उनके लिए इतना सबकुछ कर रहे थे, उनके प्रति कृतज्ञता भाव दृढ हुआ ।
७. यूरोप में साधना
यूरोप लौटने के पश्चात पूजनीय सिरियाकजी ने साधना के विविध चरणों को अपने जीवन में लाने का प्रयास किया । एक विवाहित व्यक्ति के रूप में सांसारिक दायित्व निभाना, आध्यात्मिक कष्टों का सामना करना और साथ ही साधना जारी रखना आदि चुनौतियां उनके सामने थी । इस स्थिति में पूजनीय सिरियाकजी ने अपने सुखों का त्याग कर नम्रतापूर्वक नीचे उल्लेखित सेवाएं कीं । इसी से उनकी आध्यात्मिक उन्नति हुई ।
वर्ष २००४ के पश्चात योया को कष्ट देनेवाली अनिष्ट शक्ति का लगभग प्रतिदिन प्रकटीकरण होना आरंभ हुआ । उसमें प्रविष्ट सूक्ष्म स्तरीय-मांत्रिक हिंसक न हो, इसलिए कभी-कभी मुझे उसे अपनी पूरी शक्ति से पकडना पडता था । ऐसे प्रसंगों में मुझे कई बार इस स्थिति में घंटाभर अथवा उससे भी अधिक समय के लिए दिन में दो – तीन बार बैठना पडता था । कभी-कभी योया में प्रविष्ट अनिष्ट शक्ति के हिंसक प्रकटीकरण के कारण उसके साथ हुई हाथापाई से मुझे अत्यधिक थकान होती तथा कभी-कभी छोटी-मोटी चोटें भी लग जतीं ।
अनास्तासिया छोटी थी, लगभग २ वर्ष की होगी । एक सायंकाल लगभग ७ बजे योया को कष्ट देनेवाली अनिष्ट शक्ति का प्रकटीकरण हुआ और मुझे उसे पकडना पडा । वह भोजन का समय था और भूख के कारण अनास्तासिया रो रही थी । अनास्तासिया की ओर ध्यान देने के लिए मैं योया को छोड नहीं सकता था । सहायता के लिए मैं परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी और ईश्वर से प्रार्थना आरंभ की । उसी क्षण अनास्तासिया ने फ्रिज खोला । छोटी होने के कारण उसने पहले कभी ऐसा नहीं किया था । उसने भीतर रखा सैंडविच निकाला और खाने लगी । मुझे भीतर से बहुत कृतज्ञता लगी ।
प्रकटीकरण समाप्त होने पर योया को बहुत थकान हो जाती, जिससे वह सो जाती अथवा लेटी रहती । मुझे भी बहुत थकान हो जाती, परंतु दोनों की ओर देखने के लिए मैं विश्राम नहीं कर पाता । नौकरी के लिए लगभग प्रतिदिन मैं प्रातः ५-६ बजे उठता और जब काम से लौटता, तब योया की अनिष्ट शक्ति का प्रकटीकरण आरंभ हो जाता । परंतु कई बार मुझे लगता था कि इस भाग-दौड भरे दिनक्रम को निभाने के लिए ईश्वर ही मुझे शक्ति दे रहे हैं । प्रकटीकरण के समय मैं कभी-कभी शांत और स्थिर रह पाता था, इस कारण प्रकटीकरण से मुझे कोई कष्ट नहीं होता था । कभी-कभी मैं स्थिर नहीं रह पाता और ऐसे प्रसंगों में मैं भी प्रभावित हो जाता था ।
कभी-कभी प्रकटीकरण की तीव्रता इतनी अत्यधिक हो जाती कि उसे संभालना बहुत कठिन हो जाता । मैं बहुत आर्तता से प्रार्थना करता और प्रकटीकरण तत्क्षण समाप्त हो जाता था । मैं समझ गया कि मुझे भाव और लगन सहित प्रार्थना के प्रयत्न बढाने होंगे ।
वर्ष २००३ से २००७ तक मैं पूर्णकालीन नौकरी करता था । उस समय सेवा अत्यल्प होती थी । मैं केवल योया की देखरेख करता था । सेवा में वृद्धि हो सके, इसलिए वर्ष २००७ में परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी ने मुझे अल्पावधिवाली नौकरी करने को कहा ।
वर्ष २००७ के अंत में हम एक नए शहर, चार्ट्रस में स्थलांतरित हुए, जहां मुझे अल्प समय लगनेवाली नई नौकरी मिलने को थी । २ माह के पश्चात नौकरी ठीक न लगने से मैंने छोडने का निश्चय किया । एक सायंकाल में मैं सर्बिया के साधक से बात कर रहा था, उसने सहजता से पूछा : आप सर्बिया क्यों नहीं आते ? जब उसने ऐसा कहा, तब मुझे चैतन्य प्रतीत हुआ और मुझे आश्चर्य हुआ कि मुझे ऐसा क्यों लग रहा है । मैंने चिंतन किया कि क्या मैं वहां स्थलांतरित हो सकता हूं । ड्रगाना उस समय बेलग्रेड में थीं । उनसे परामर्श लेने के उपरांत हमने बहुत सा सामान बेच दिया और शेष सामान गाडी में रखकर हम बेलग्रेड जाने के लिए निकल पडे । इसके पीछे हमारा उद्देश्य साधकों के बीच रहकर अधिक साधना करना था ।
‘‘अप्रैल २००८ तक हम लोग बेलग्रेड में स्थिर हो गए । मैंने प्रतिदिन ३-४ घंटे सेवा करना आरंभ किया । कम्प्यूटर के सामने अधिक समयतक बैठना मेरे लिए कठिन था । जनवरी २००९ में हम SSRF की वार्षिक कार्यशाला के लिए भारत गए । उस समय परम पूजनीय डॉ.आठवलेजी ने हमें आश्रम में आकर रहने के लिए कहा । जुलाई २००९ में हमारा शेष सामान और हमारी गाडी साधकों को दे दी और केवल तीन सूटकेस लेकर भारत चल पडे । पेरिस से हम चार्ट्रस गए तब हमारे पास २२ क्यूबिक ट्रक का सामान था, चार्ट्रस से सर्बिया जाते समय एक गाडी भर सामान था और अंत में सर्बिया से भारत जाते समय केवल तीन सूटकेस का सामान शेष रहा !
८. भारत में रहकर साधना और आध्यात्मिक उन्नति
भारत आने पर वे पहले वाराणसी गए । वहां सिरियाकजी को एक विलक्षण अनुभूति हुई । वे गंगाजी के तट पर खडे थे । वहां बैठकर उन्होंने सूक्ष्मप्रयोग करने के लिए आंखें बंद कीं । वाराणसी में वे पहली ही बार आए थे, इसलिए वहां शिवजी की पूजा होती है तथा वहां विख्यात काशी विश्वनाथजी का मंदिर है, इस बात से वे पूर्णतः अनभिज्ञ थे । धीर-धीरे उनका मन एकाग्र होता गया और उन्हें प्रतीत हुआ कि चैतन्य की तरंगें गंगाजी से प्रक्षेपित होकर वातावरण में फैल रही हैं । आगे उन्होंने बताया, कुछ ही क्षणों में मैंने ध्यानस्थ शिवजी का विशाल रूप देखा । मैं असंजस में पड गया कि मुझे शिवजी क्यों दिख रहे हैं । मुझे लगा कि शिवजी अत्यंत स्थिर हैं और शांति प्रक्षेपित कर रहे हैं । मैंने देखा कि शिवजी का तत्त्व कार्यरत है और वाराणसी एवं गंगाजी में विद्यमान है । मुझे स्पष्ट हुआ कि गंगाजी भारत का प्रमुख भाग तथा भारत की आत्मा हैं । यदि गंगाजी नहीं रहीं, तो भारत का अस्तित्व नहीं रहेगा ।
पूजनीय सिरियाकजी, पूजनीया (श्रीमती) योयाजी और उनकी बेटी अनास्तासिया के लिए भारत आना उनके जीवन में एक प्रकार से विलक्षण परिवर्तन था । पूर्णतः भिन्न संस्कृति, जीवनशैली, खान-पान इत्यादि अपनाना बहुत कठिन था । पूजनीय सिरियाकजी ने कहा, जब हम भारत आए, उस समय यह पहली बार था कि हम भारत में दीर्घकाल तक निवास कर रहे थे । काम की व्यस्तता होने के कारण मैं केवल २ सप्ताह के लिए आता था । जनवरी २००९ में एक ही बार मैं १ माह के लिए आया था । आरंभ में मुझे कम्प्यूटर पर लगातार बैठने और सेवा करने में कठिनाई होती थी । २ माह पश्चात मेरा मन अस्वस्थ होने लगा ।
‘‘आश्रम में आना एक बहुत बडा निर्णय था । भिन्न संस्कृति के कारण हमने जैसा सोचा था, यह वैसा सरल नहीं था । आश्रम में लगभग ३०० साधक रहते थे । आश्रम के विविध नियम तथा बंधन थे । भाषा की मर्यादा थी । खान-पान भी भिन्न प्रकार का था । ६ माह के उपरांत मुझे लगा कि आश्रम में जिस गति से सेवाएं की जाती हैं, उसके साथ सामंजस्य बैठाने में मेरा मन विरोध कर रहा है । आश्रम में प्रतिदिन दिनभर घंटों तक सेवा की जाती है । एक भी दिन रविवार जैसा नहीं होता । पूर्व की जीवनशैली में अनेक काम करने की मन को आदत थी, इसलिए मन को थोडा अवकाश लेने की इच्छा होती अथवा स्वयं की सुविधावाली स्थिति में रहने की इच्छा होती ।
‘‘भूतकाल में झांकने पर अब मुझे लगता है कि परम पूजनीय डॉ.आठवलेजी ने हमें आश्रम में बुलाकर हमारी सांसारिक आसक्ति न्यून कर आश्रमजीवन से एकरूप होने में सदैव हमारी सहायता की और साथ ही आश्रम में रहकर सेवा करने की क्षमता प्रदान की । अब स्पष्ट होता है कि हमें साधना में लाने का कदाचित यही एकमात्र मार्ग था ।
धीरे-धीरे पूजनीय सिरियाकजी के लिए आश्रम से एकरूप होना संभव होने लगा । साधना में वृद्धि होने हेतु उनके यथार्थ प्रयास भी आरंभ हुए । सभी साधकों को उनके साथ निकटता प्रतीत होने लगी और कुछ ही वर्षों में उनका आध्यात्मिक स्तर ६२ प्रतिशत हो गया । वर्ष २०१२ में वह ६६ प्रतिशत हुआ । सत्सेवा में उनका दायित्व भी बढ गया । आश्रम के SSRF विभाग तथा पूरे विश्व में उसके होनेवाले कार्य का दायित्व लेते समय उनमें दिखाई दिए कुछ गुण आगे दिए हैं ।
‘‘पूजनीय सिरियाक वालेजी का व्यक्तित्व प्रेममय है । वे एक बडे भाई समान लगते है, जिन्हें मैं मेरी सारी समस्याएं बता सकती हूं । मुझे उनसे साधना में सहायता भी मिलती है । उनका यह एक विशेष गुण है कि उनके व्यस्त होने पर भी यदि मैं उन्हें कोई प्रश्न पूछती हूं, वे कभी उसकी अनदेखी नहीं करते, अपितु मेरी समस्या का समाधान ही करते हैं । वे मुझे सदैव आश्वस्त करते थे कि मुझमें परिवर्तन अवश्य होगा और मेरी आध्यात्मिक उन्नति होगी । कोई प्रसंग अथवा दोष बताते समय वे अपना ही उदाहरण देते थे, जिससे उनके साथ और समीपता प्रतीत होती है । ईश्वर के प्रति उनके मन में बहुत भाव है । – श्रीमती श्वेता क्लर्क
‘‘प्रत्येक सत्संग में, इ-मेल अथवा सीधे संपर्क में पूजनीय सिरियाक वालेजी साधकों को दृढ रहने, परिस्थिति स्वीकारने अथवा कुछ नया सीखने हेतु उत्साहित कर उनकी सहायता करते हैं । वे कहते हैं कि प्रयत्न करने से सभी की आध्यात्मिक उन्नति होनेवाली ही है । मैंने यह कई बार अनुभव किया है । जब कभी मुझे उत्साह की आवश्यकता होती है, मैं पूजनीय सिरियाक वालेजी की सहायता लेती हूं । – श्रीमती ड्रगाना किस्लोवस्की
‘‘वे सदैव साधकों की बात को एकाग्रता से सुनते हैं और उनकी सहायता करने का प्रयास करते हैं । वे सेवा बडी उत्सुकता और परिपूर्णता से करते हैं । कोई भी काम समय पर ही करने का उनका प्रयास होता है । – पूजनीया (श्रीमती) योया वालेजी
आश्रम के बाहर भी साधकों ने उनके स्वाभाविक व्यक्तित्व एवं निरंतर ईश्वर के आंतरिक सान्निध्य में रहना अनुभव किया है । अप्रैल २०१४ में पुणे में कु.भाविनी कपाडिया ने उन्हें अपने घर पर रहते समय इसके कुछ उदाहरण देखे हैं । हमारे घर एक महिला स्वच्छता करने के लिए आती है । नाश्ता करने पर कभी-कभी ब्रेड के टुकडे टेबल के नीचे गिर जाते । उस समय पूजनीय सिरियाकजी उन्हें तुरंत उठा लेते थे । वे यह नहीं सोचते कि कुछ समय के उपरांत वह महिला आएगी और स्वच्छ करेगी । इससे हमें हमारी चूक ध्यान में आई और हमने इससे यह आदर्श कृत्य सीखा । कभी-कभी मेरे पिताजी सामान लाने बाहर जाते थे, तब उनके आने पर पूजनीय सिरियाकजी उनके लिए इस प्रकार दरवाजा खोलते थे कि मानों वे हमारे घर के सदस्य ही हैं । उनके हाथ से थैलियां लेकर उन्हें पूछते, आप थक गए होंगे, और उनके लिए पानी ले आते ।
९. अनेक संतों के सत्संग में पूजनीय सिरियाकजी
१०. सत्सेवा के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति
सत्सेवा के माध्यम से पू.सिरियाक वालेजी की आध्यात्मिक उन्नति हुई । निरंतर सेवारत रहने के लिए उन्होंने जो प्रयास किए, यहां उन्होंने बताया है ।
वर्ष १९९९ में जब मैंने साधना आरंभ की, तब कई वर्षोंतक मेरे और योया के कष्ट, साथ ही कार्यालयीन काम एवं अपने स्वभाव के कारण मैंने अत्यल्प सेवा की । एक मोड पर मुझे लगा कि इन वर्षों में मैंने साधना की दृष्टि से कोई प्रयत्न नहीं किए हैं । मुझे पता था कि साधना में हमें तन, मन, धन और बुद्धि का त्याग करना पडता है । तन और धन का त्याग करना सरल होता है । मुझे पता था कि मन और बुद्धि के त्याग से ही साधना हो सकती है । मैंने सेवा के अधिक प्रयत्न आरंभ किए । मुझे लगा कि सेवा से ही मेरी आध्यात्मिक उन्नति होगी । मैंने सेवा में अपनेआप को समर्पित किया;क्योंकि सेवा से मुझे अपनी प्रगति में तथा स्वभावदोष, अहंनिर्मूलन एवं गुणवृद्धि करने में सहायता मिली । जितनी अधिक सेवा होती थी, उतना ही मुझे आनंद मिलता और मेरा भाव जागृत हो जाता ।
‘‘असुरक्षा की भावना मेरी आध्यात्मिक उन्नति में सबसे बडी बाधा थी । समष्टि साधना में यह विशेषरूप से बाधा थी । मैंने इसके लिए सभी प्रकार से प्रयत्न किए । प्रत्येक प्रसंग का मैंने सामना किया । यह देखा कि उस परिस्थिति में असुरक्षा की भावना पर मैं कैसे विजय प्राप्त कर सकता हूं । मेरा मन प्रसंगों का सामना कर सके, इसलिए कोई कृत्य उचित प्रकार से कैसे किया जा सकता है, मेरा आचरण कैसा होना चाहिए और असुरक्षा के कारण मुझे क्या करना चाहिए एवं क्या नहीं, इसपर मैंने अंतर्मुख होकर चिंतन किया । मैं ईश्वर तथा परम पूजनीय डॉ.आठवलेजी से इस हेतु सदैव निष्ठापूर्वक प्रार्थना करता था;क्योंकि इस पर मात करना मेरे वश की बात नहीं थी । इसके लिए मैंने बहुत स्वयंसूचनाएं भी लीं ।
जब मैंने समष्टि साधना आरंभ की, तब मुझे कुछ अनुभूतियां हुईं । एक कार्यशाला में समष्टि साधना पर प्रवचन देते समय मुझे अनायास ही अत्यधिक आनंद की अनुभूति हुई । यह अनुभूति इतनी तीव्र थी कि मुझे भान हो गया कि केवल समष्टि साधना करने से इस प्रकार की स्थिति का अनुभव हो सकता है । समष्टि साधना के लिए आवश्यक गुण विकसित करने के लिए मैं प्रयास करने लगा ।
‘‘कुछ दिन पूर्व ही अध्यात्मप्रसार का नियोजन करने हेतु हमारी एक बैठक हुई । उस समय पहली बार मुझे शांति की अनुभूति हुई । इससे समष्टि साधना करने की मेरी उत्कंठा बढ गई । SSRF द्वारा प्राप्त ज्ञान और साधना से मुझे लाभ हुआ । इससे मेरे क्लेश और अप्रसन्नता पर मात कर मुझे प्रसन्नता और आनंद की प्राप्ति हुई । मुझे लगता है कि सभी को यह ज्ञान मिलना चाहिए, उसे अपने जीवन में उतारकर उसका अनुभव करना चाहिए ।
११. संतपद पर विराजित होना
६० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर से संतपद तक पहुंचने के लिए समर्पित प्रयत्न आवश्यक होते हैं । पूजनीय सिरियाक वालेजी ने इस बाधा पर भी लगन और भाव से विजय प्राप्त की । वे अपने प्रयत्न यहां बता रहे हैं, वर्ष २०१० में मेरे एक परिचित साधिका का आध्यात्मिक स्तर ६० प्रतिशत घोषित किया गया । मैंने वीडियो पर यह प्रसंग देखा । इसमें उसने परम पूजनीय डॉ.आठवलेजी का अस्तित्व और कृतज्ञताभाव किस प्रकार अनुभव किया, यह मैंने देखा । इसका मेरे मन पर गहरा प्रभाव पडा । मेरी समझ में आया कि मैं ६० प्रतिशत स्तर की ओर अनुचित दृष्टि से देख रहा हूं । मैं मेरे अहंभाव के कारण ६० प्रतिशत तक पहुंचना चाहता था;परंतु यह केवल संख्या से संबंधित नहीं था । परम पूजनीय डॉ.आठवलेजी और भीतर के ईश्वर के प्रति कितना भाव और कृतज्ञता है, इससे वह संबंधित था । मेरी समझ में आया कि इन सबका मुझ में अभाव था । उस दिन मुझे भान हुआ कि मैंने अनेक वर्ष व्यर्थ गंवाए हैं और मेरे लिए आवश्यक प्रयत्नों पर मैंने अपनेआप को केंद्रित करना आरंभ किया ।
मैंने सेवा, प्रार्थना बढाने के लिए प्रयत्न किए और प्रत्येक कार्य को परिपूर्णता से करने हेतु प्रयास करने लगा । मुझे लगा कि ईश्वर मेरी सहायता कर रहे हैं और मेरी लगन पहले से बढ गई है ।
अपनेआप में परिवर्तन लाने के लिए मैंने निम्नांकित प्रयास किए :
- स्वभावदोष निर्मूलन के लिए मैंने गंभीरता से प्रयास किए । मैं मन की बात नहीं सुनता था । अनेक बार मैं मन के विरुद्ध जाने का प्रयत्न करता था । उदा.मुझ से कोई चूक होने पर यदि मेरा मन उसका समर्थन करता, तो मैं उसे रोकने का प्रयत्न करता और कौन से स्वभावदोष के कारण वह चूक हुई यह ढूंढने का प्रयत्न करता था । मेरे पास कुछ ब्यौरे अथवा सारणियां बनाने की विविध सेवाएं थीं । जिस क्षण मेरा मन मुझे कहता, यह सारणी कठिन है, मैं पहले ब्यौरा बनाऊंगा, तब मैं मेरा मन जो कह रहा है, उसके विरुद्ध करता था । २ घंटे सेवा में बैठने पर कुछ विश्राम करें अथवा कुछ खाकर आएं, ऐसा विचार जब मन में आता, तब दूसरा विचार मुझे सेवा में लगे रहने हेतु प्रयास करना । मुझे लगता है कि यह दूसरा विचार ईश्वर का ही था, जो मुझे सेवा में बिठाता था ।
- अहंनिर्मूलन के लिए मैं मेरे मन की प्रतिक्रियाओं को साधकोंके सामने कभी छिपाता नहीं था, अपितु बताता था । दूसरों के सामने अपनी प्रतिमा को बनाए रखने का मैं कभी प्रयास नहीं करता था ।
- प्रातः ५.३० बजे उठकर सेवा करने जैसा प्रायश्चित्त मैं लेता था । मैं अपनेआप से कठोर रहता था और छोटी-छोटी चूकों के लिए मुझे पछतावा होता था । मुझ में हडबडी करना और उतावलापन ये स्वभावदोष हैं, जिसके कारण मैं ई-मेल में चूक शब्द लिखता था । इतनी सी चूकों के लिए भी मैं प्रायश्चित्त लेता था ।
- कर्इ बार मैं प्रातः उठ जाता था और सेवा आरंभ करता था एवं रात में देर से सोता था । मेरा मन मुझे कहता था, प्रातः उठने के कारण तुम बहुत थक गए होगे, अब बहुत देर हो गई है; अतः शीघ्र सो जाओ । उसी समय दूसरा विचार मन में आता और मुझे कहता कि मैं कैसा हूं । तब मैं मेरे मन की बात नहीं सुनता था । कई बार मुझे अनुभव होता कि मैं थका नहीं हूं; क्योंकि मैं इतनी देरतक बैठ सका था ।
- मुझे लगता है कि इस समय गंभीरता एवं शक्ति के तरंग मुझ में मेरे कारण नहीं, अपितु किसी उच्च शक्ति की ओर से आते थे । वही शक्ति मुझे ये दृष्टिकोण देती थी । मुझे लगता है कि यह शक्ति और गंभीरता मुझे ईश्वर ही देते थे । यह सब उनकी ही कृपा से हुआ ।
पू.सिरियाक वालेजी का कहना है कि ईश्वर के प्रति उनके मन में विद्यमान प्रेम ही उनके अपने व्यक्तिगत विकास की नींव है । साधना से इसमें और सुधार करना संभव हुआ ।
‘‘युवावस्था से ही मेरे मन में विचार आते थे कि मैं दूसरों की सहायता करूं और उन्हें मानसिक आधार दूं । मैं इसे सकारात्मक परिप्रेक्ष्य से देखने का प्रयत्न करता कि जो कुछ होता है, अच्छे के लिए ही होता है । मैं जब छोटा था, मेरी मां ने मुझे सिखाया था कि स्वयं से अधिक दूसरे लोग महत्त्वपूर्ण हैं । अपने आनंद की तुलना में दूसरों के आनंद में अधिक आनंद है । पहले मुझे अपेक्षाएं बहुत होती थीं और लगता था कि जो मेरे साथ अच्छा व्यवहार करते है, उनके साथ मुझे अच्छा व्यवहार करना चाहिए । साधना में मैंने दूसरों को क्या लगता है, दूसरों को समझना आदि प्रयत्न किए । इससे ध्यान में आया कि लगभग सभी बोझ ढो रहे हैं अथवा क्लेश से ग्रस्त हैं, जिससे सभी की ओर ध्यान देना और उनकी सहायता करना आवश्यक है । मैंने निष्कर्ष निकालने और अपेक्षा करने जैसे स्वभावदोष अल्प करने के लिए प्रयास किए । साथ ही सभी के साथ निकटता अनुभव करने हेतु प्रयास किए ।
इस लेख से हमें सीखने को मिले और हमारी साधना बढे, ऐसी गुरुचरणों में प्रार्थना !