१. प्रस्तावना

जीवन में प्रत्येक घटना के का एक समय होता है । यही बात साधना में भी लागू होती है । यदि अयोग्य समय पर सही कार्य हो तब उसका वांछित परिणाम नहीं मिलता । उदाहरणार्थ, जैसे वर्षा ऋतु की अपेक्षा ग्रीष्म ऋतु में बीज बोए जाएं, तो मिट्टी कितनी भी उपजाऊ क्यों न हो, फसल नहीं होगी । उसी प्रकार, विशेष काल के लिए विशेष साधना अनुकूल होती है ।

. ब्रह्मांड के युग, मानव जाति का आध्यात्मिक स्तर एवं उचित साधना

२.१ पृष्ठभूमि की जानकारी

  • हमने अपने लेख ‘ब्रह्मांड की आयु तथा उसके चक्र पर आध्यात्मिक शोध’  में, यह समझाया है कि ब्रह्मांड अपनी उत्पत्ति के प्रारंभ से ही इन चार मुख्य युगों में से होता आया है । ये चार युग हैं – सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग । इनमें सतयुग प्रथम युग था तथा वर्तमान में कलियुग चल रहा है जिसमें अभी हम हैं । पृथ्वी पर इन चारों युगों में मानव का औसत आध्यात्मिक स्तर में अत्यधिक भिन्नता रही है ।
  • साधना का मूलभूत चौथा सिद्धांत है आध्यात्मिक स्तरानुसार साधना करना । इस पर आधारित अपने लेख में हमने यह भी बताया है कि व्यक्ति की साधना उसके आध्यात्मिक स्तर के अनुरूप होनी आवश्यक है । तदानुसार, ब्रह्मांड के प्रत्येक युग के लिए उचित साधना भी भिन्न होगी ।
  • इस सिद्धांत को विस्तार से समझने के लिए कृपया आध्यात्मिक स्तर पर हमारा लेख देखें ।

२.२ प्रत्येक युग के लिए उचित साधनामार्ग

आगे दी गई सारणी में, हमने ४ युगों के अनुसार औसत आध्यात्मिक स्तर दर्शाए हैं ।

युग युग के वर्ष औसत आध्यात्मिक स्तर योग्य साधना मार्ग का सामान्य रूप स्वभाव दोष (प्रतिशत ) अहं (प्रतिशत)
सतयुग १,७२८,००० ८० प्रतिशत ज्ञानयोग १०
त्रेतायुग १,२९०,००० ७० प्रतिशत तपस्या तथा ध्यान योग २० १५
द्वापरयुग ८६४,००० ५० प्रतिशत कर्मकांड यज्ञ आदि योग ३० २०
कलियुग ४३२,००० २० प्रतिशत स्वभाव दोष निर्मूलन तथा अहं निर्मूलन के प्रयासों के साथ ईश्वर का नामजप ५० ३०

टिप्पणियां :

१. २०१६ तक, हम कलियुग जिसे ‘संघर्ष का युग’ भी कहते है, इसके ५११८ वें वर्ष में हैं ।

२. प्रत्येक अगले युग में औसत आध्यात्मिक स्तर घटा है ।

३. जब तक व्यक्ति १०० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर पर नहीं पहुंच जाता, उसमें दोष न्यूनतम तीव्रता के साथ न्यूनतम स्तर पर रहते हैं ।

४.दोषों से संबंधित यह अहं तब तक व्यक्ति में विद्यमान रहेगा जब तक कि वह १०० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त नहीं कर लेता ।

२.३ प्रत्येक युग के लिए आवश्यक उचित साधना के प्रकार

SSRF के जालस्थल पर हमने दो प्रकार की साधनाओं पर चर्चा की है, वह है व्यष्टि साधना एवं समष्टि साधना । व्यष्टि साधना अर्थात अपनी स्वयं की आध्यात्मिक उन्नति के लिए साधना करना । समष्टि साधना अर्थात अध्यात्म प्रसार करने में तथा दूसरों की आध्यात्मिक उन्नति होने में सहायता के लिए प्रयास करना । युग के आधार पर, इन दोनों प्रकार की साधनाओं का महत्व भिन्न हो जाता है ।

युग व्यष्टि साधना समष्टि साधना कुल
सतयुग १०० १००
त्रेतायुग ८० २० १००
द्वापरयुग ७० ३० १००
कलियुग ५० ५० १००
कलियुग (१९९९-२०२३) ३० ७० १००

टिप्पणियां :

१. सतयुग के समय सभी का आध्यात्मिक स्तर उच्च था इसलिए उस समय समष्टि साधना की आवश्यकता नहीं थी ।

२. कलियुग में समष्टि साधना का भी समान महत्त्व है । क्योंकि वातावरण में आध्यात्मिक प्रदूषण में समग्र रूप से वृद्धि हुई है तथा लोगों का आध्यात्मिक स्तर घटा है एवं उन्हें आध्यात्मिक सहायता की आवश्यकता है । विश्व वर्ष १९९९-२०२३ की अवधि में एक अशांत अवस्था से गुजर रहा है एवं तृतीय विश्वयुद्ध का संकट सामने है । इस प्रतिकूल समय में साधकों को जीवित रहने में केवल साधना ही सहायता कर सकती है । अतः वर्तमान काल में व्यष्टि साधना को ३० प्रतिशत और समष्टि साधना को ७० प्रतिशत प्रधानता दी गई है ।

२.४ युग के अनुसार साधना की जानकारी

  • सत्ययुग : यह युग आध्यात्मिक रूप से अत्यधिक सात्विक युग था और तब व्यक्ति का औसत आध्यात्मिक स्तर ८० प्रतिशत था (यह आध्यात्मिक स्तर उच्च कोटि के संत का स्तर होता है) । इस युग के लोग आध्यात्मिक रूप से इतने अधिक सात्त्विक थे कि उनके लिए ज्ञानयोग के अनुसार साधना करना संभव था । ऐसा इसलिए क्योंकि उनमें ईश्वर से एकरूप होने की क्षमता थी तथा सम्पूर्ण आध्यात्मिक जगत का ज्ञान उनके पास उपलब्ध था । उनमें समस्त आध्यात्मिक शास्त्रों, जो कि उस समय केवल सूक्ष्म स्वरूप से विद्यमान थे, के भावार्थ को समझने की क्षमता थी । (धार्मिक ग्रंथ लिखित स्वरूप में पश्चात के युगों में आए ।)
  • त्रेतायुग : इस युग में, सामान्य व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर ७० प्रतिशत हो गया तथा इसलिए उनमें ज्ञानयोग के अनुसार साधना करने की क्षमता नहीं रही । किंतु वे तब भी आध्यात्मिक रूप से इतने समर्थ थे कि वे कठिन तपस्या (साधना का वह प्रकार जिसमें साधक १२ वर्षों तक एक पांव पर खडा रह सकता था) तथा ध्यान (साधना का एक वह प्रकार जिसमें साधक इतने अधिक समय तक ध्यान में रह सकता था कि उस पर चीटियों का बमीठा बन जाता था ।
  • द्वापरयुग : इस युग में लोगों का आध्यात्मिक स्तर और न्यून हो गया तथा उनमें कठोर तपस्या तथा निरंतर ध्यान करने की क्षमता अब नहीं रही । तदनुसार, ईश्वर ने उन्हें कर्मकांड, यज्ञादि के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति करने का मार्ग प्रदान किया । इन विधियों तथा यज्ञों को करने में बहुत समय लगता था तथा उनमें बहुत परिश्रमकी आवश्यकता थी क्योंकि उन्हें कठोर आचार एवं नियमों को ध्यान में रखकर किया जाता था । इसके साथ ही उनमें अनेक चरण होते थे जिनका अनुसरण अनुष्ठान के अंत तक किया जाता था । इस युग के लोग इतने धार्मिक प्रवृत्ति के थे कि वे इन यज्ञादि कर्मकांडों को करने के लिए समय, प्रयास तथा धन व्यय कर सकते थे ।
  • कलियुग : इसे ‘संघर्ष का युग’ भी कहा जाता है और ये वर्तमान काल में चल रहा है जिसमें अभी हम हैं । इसमें औसत व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर मात्र २० प्रतिशत रह गया है । पिछले युगों के किसी भी साधना मार्ग का अनुसरण करने के लिए हमारी क्षमता अब अत्यधिक न्यून हो गई है । इसके साथ ही पहले के युगों की तुलना में अब वर्तमान वैश्विक वातावरण आध्यात्मिक उन्नति के लिए उतना अनुकूल नहीं है । लोगों में स्वाभाव दोष अधिक मात्रा में होने के कारण तथा आध्यात्मिक जगत से अनिष्ट शक्तियों  की अधिक गतिविधियों के कारण सूक्ष्म रज तम गुणों में उल्लेखनीय रूप से वृद्धि हुई है । फलस्वरूप आध्यात्मिक प्रदूषण में वृद्धि हुई है जो कि किसी भी प्रकार की साधना करने के लिए एक गंभीर बाधा के रूप में सामने है और इसलिए आध्यात्मिक उन्नति में बाधक है ।

    वर्तमान के अशांत तथा तनावग्रस्त समय को तथा इसके साथ ही हमारी वर्तमान आध्यात्मिक क्षमता की कमी को ध्यान में रखते हुए, ईश्वर ने हमारे लिए सभी बाधाओं के विरुद्ध आध्यात्मिक उन्नति करने हेतु एक बहुत सरल मार्ग बनाया है । वह है अपने स्वभाव दोषों तथा अहं को कम करने के लिए प्रयासरत रहना तथा ईश्वर का नामजप करना  । वास्तव में, ईश्वर का नाम जप साधना के सही अर्थ में (अर्थात प्रत्येक समय एकाग्रता तथा भाव के साथ) केवल उच्च आध्यात्मिक स्तर पर ही किया जा सकता है । यद्यपि, स्वयं का विश्लेषण करके तथा अपने मन से स्वभाव दोष एवं अहं को दूर कर एकाग्र रहा जा सकता है । इस प्रकार, व्यक्ति ईश्वर का नामजप निरंतर करने में समर्थ हो जाता है ।