परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी अब केवल अध्यात्म विषयक ग्रंथ ही क्यों लिखते हैं, इस विषय पर उनके साथ हुई अनौपचारिक बातचीत

Tसम्पूर्ण लेख में परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी के विचार, जीवन के मूल आध्यात्मिक उद्देश्य अर्थात ईश्वरप्राप्ति को समझने के परिप्रेक्ष्य से है । ‘अध्यात्मशास्त्र’ पर लेख में हमने इस बात पर बल दिया है कि यदि व्यक्ति जीवन के मूल उद्देश्य की ओर बढना चाहता है तो उसे उन अध्यात्म विषयक ग्रंथों का अध्ययन करने को प्रधानता देनी चाहिए जो संत  अथवा गुरु द्वारा लिखे गए हों । अन्य लेख ‘अध्यात्म विषयक ग्रंथों पर लेखक का प्रभाव’ में हमने अलग-अलग आध्यात्मिक स्तर के लेखकों द्वारा लिखित ग्रंथों के लाभ की तुलना की है ।

जब उपरोक्त लेख लिखे जा रहे थे तब परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी तथा संपादकीय दल के मध्य हुई अनौपचारिक बातचीत को इस लेख में दर्शाया गया है । संत माया-विषयक ग्रंथ के विपरीत अध्यात्म-विषयक ग्रंथ लिखना क्यों पसंद करते हैं, इस विषय पर यह लेख विभिन्न अंतर्दृष्टि प्रदान करता है ।

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अपनी साधना आरंभ करने से पूर्व परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी व्यावहारिक सम्मोहन चिकित्सा के एक शोधकर्ता थे तथा इस विषय पर उनके अनेकों श्वेत-पत्र तथा ग्रंथ प्रकाशित हुए । उन्होंने यूनाइटेड किंगडम (ग्रेट ब्रिटेन) में व्यावहारिक सम्मोहन चिकित्सा में अनेक वर्षों तक शोध भी किया । अपने गुरु के मार्गदर्शन में तीव्र साधना करने के उपरांत उन्हें संतपद प्राप्त हुआ तथा तदोपरांत उन्होंने अनेक अध्यात्म-विषयक ग्रंथ प्रकाशित किए । अब तक १२ भाषाओं में १०० से भी अधिक ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं ।

((हम परम पूज्य डॉ. आठवलेजी को प्रेम से परम पूज्य कहकर संबोधित करते हैं जो कि संस्कृत भाषा का एक परम-आदर सूचक शब्द है ।) )

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संपादकीय दल : परम पूज्य आपने व्यावहारिक चिकित्सा-संबंधी सम्मोहनशास्त्र तथा व्यावहारिक सम्मोहन चिकित्सा प्रणाली पर अनेक शोध-पत्र तथा ग्रंथ प्रकाशित किए तथा इस विषय में आपकी उत्कृष्टता को अनेक देशों में व्यापक रूप से अभिस्वीकृत किया गया । किंतु साधना प्रारंभ करने के उपरांत आपने केवल अध्यात्म-विषयक ग्रंथ ही लिखे । इस परिवर्तन का क्या कारण है परम पूज्य ?

परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी : जो महत्वपूर्ण बात मैंने समझी वह यह है कि आध्यात्मिक लेख कालातीत होते हैं जबकि अन्य विषय माया से संबंधित होते हैं तथा केवल सीमित समयावधि तक ही उपयोगी होते हैं । यहां तक कि महत्वपूर्ण घटनाओं जैसे भारत के स्वतंत्रता युद्ध तथा फ्रांस की क्रांति संबंधी पुस्तकें भी विश्व की जनसंख्या के एक सीमित भाग के लिए ही उपयोगी थीं, वो भी मात्र ३०–४० वर्षों के लिए ही जब तक कि वे घटनाएं अस्तित्व में थीं । भविष्य की पीढियों में ऐसे विषयों में अल्प रुचि होती है क्योंकि वे उनके अतीत में घटित हुई होती हैं, और जो उनके वर्तमान जीवन में चल रहा है सदैव वही महत्वपूर्ण स्थान रखता है । लेकिन यदि आप धार्मिक ग्रंथ देखें जैसे भगवद्गीता, बाइबल, कुरान तथा संतों  के लेखन एवं रचनाएं, ये सदियों तक लोगों के लिए प्रासंगिक बने रहते हैं ।

प्रमुख अंतर यह है कि आध्यात्मिक लेख परम सत्य अथवा ईश्वरीय तत्त्व से सम्बंधित हैं और इसलिए कालातीत हैं । ईश्वर प्राप्ति के उद्देश्य हेतु, काल तथा स्थान से परे किसी भी पीढी के लिए यह ज्ञान अपरिवर्तनीय एवं प्रासंगिक है । माया से संबंधित विषय सदैव काल, स्थान तथा व्यक्ति के संदर्भ में प्रासंगिक होते हैं और इसलिए कालातीत नहीं हो सकते ।

संपादकीय दल : परम पूज्य, एक समय जब आप व्यावहारिक सम्मोहन चिकित्सा जैसी माया-संबंधी पुस्तकों के लेखक थे तथा अब जब आप अध्यात्म-विषयक ग्रंथों के संकलक हैं; दोनों में आपने कोई अंतर पाया ?

परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी : अध्यात्मशास्त्र में हम मात्र संकलनकर्ता ही हैं । सम्पूर्ण दिव्य-ज्ञान ईश्वर तथा वैश्विक मन एवं बुद्धि से आता है और मैं तो मात्र उनका संकलन करता हूं । यदि हम साधना करें तथा गुरुकृपा प्राप्त हो जाए, तब गुरु-कृपा से हम दिव्य-ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं ।

सांसारिक विषयों से संबंधित ग्रंथ के लेखकों को अपना ग्रंथ लिखते समय पहले उस विषय पर शोध करना पडता है तथा विभिन्न स्रोतों से जानकारी लेनी पडती है । इसके विपरीत जब एक संत अध्यात्मशास्त्र पर लेख लिखते हैं तो ईश्वर स्वयं प्रेरणा तथा उत्तर प्रदान करते हैं । इससे बहुत सा समय तथा ऊर्जा बच जाती है ।

छठवीं इंद्रिय – वैश्विक मन तथा बुद्धि’ के संदर्भ में देखें

व्यावहारिक चिकित्सा-संबंधी सम्मोहनशास्त्र तथा व्यावहारिक सम्मोहन चिकित्सा प्रणाली पर अपने शोध के आधार पर उन विषयों पर जो ग्रंथ मैंने लिखे उन्हें विश्व के अनेक देशों जैसे यूएस (अमरीका) तथा ऑस्ट्रेलिया में सराहा गया । वे रोगी के उपचार से संबंधित थे, इसलिए उनसे केवल रोगी तथा उनके चिकित्सक ही लाभान्वित हो सकते थे । एक व्यावहारिक सम्मोहन चिकित्सक के रूप में २५ वर्षों के शोध के उपरांत उन शोध निष्कर्षों को अपने व्यावहारिक चिकित्साकार्य में उपयोग में लाने पर उन ग्रंथों की केवल कुछ सहस्त्र प्रतियां ही बिक पाई । दूसरी ओर अब जो अध्यात्म विषयक ग्रंथ मैं लिखता हूं, वे प्रत्येक मनुष्य के इस जन्म के किसी दिन अथवा कम से कम अगले जन्म में तो उपयोगी सिद्ध होंगे । पिछले १० वर्षों में मेरे द्वारा अध्यात्मशास्त्र के विभिन्न विषयों पर संकलित लेखों की १२ भाषाओं में २.५ लाख से भी अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं ।

संपादकीय दल : परम पूज्य, SSRF जालस्थल नि:संशय रूप से जिसे प्रत्येक माह विश्वभर के सहस्त्रों लोगों द्वारा देखा जाता है, इससे कुछ को उनका जीवन बेहतर बनाने में सहायता भी मिली है ।

परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी : किसी भी लेख का वास्तविक मूल्य तब होता है, जब वह पाठक को जीवन के मूल उद्देश्य के परिप्रेक्ष्य से लाभान्वित करता है । इस परिप्रेक्ष्य से माया से संबंधित सभी विषय सीमित जानकारी प्रदान करते हैं । इसके विपरीत अध्यात्मविषयक ग्रंथ ईश्वर से एकरूप होने की अवस्था तक हमारा मार्गदर्शन करते हैं तथा अनेक जन्मों तक हमारे साथ रहते हैं । अध्यात्मशास्त्र के विभिन्न विषयों के संकलन के कारण लाखों पाठकों की आध्यात्मिक जिज्ञासा शांत हुई है तथा ऐसा निरंतर हो रहा है । उनमें धर्म के प्रति आस्था जगी है । सहस्त्रों ने किसी प्रकार की साधना करना आरंभ किया है एवं इसलिए यह संतुष्टि है कि लोग जीवन के मूल उद्देश्य की ओर आगे बढे हैं ।

परम पूज्य डॉ. आठवले के साथ उनके केवल अध्यात्म विषयक ग्रंथ ही लिखने के महत्त्व पर हुई उपर्युक्त बातचीत से मिली प्रमुख सीखें

  • जीवन के मूल उद्देश्य को प्राप्त करने के परिप्रेक्ष्य से अध्यात्मविषयक ग्रंथ कालातीत होते हैं । जबकि अन्य विषय माया से संबंधित होते हैं तथा सीमित अवधि के लिए ही उपयोगी होते हैं ।
  • केवल अध्यात्म-विषयक ग्रंथ ही पाठक को जीवन के मूल उद्देश्य को प्राप्त करने में लाभ प्रदान करते हैं । अतः जो व्यक्ति यह बात पूर्णरूप से समझ लेगा, वह केवल अध्यात्म-विषयक ग्रंथ ही लिखेगा । इसके संदर्भ में वह लेख भी देखें जो संतों के हस्तलेखन से प्रक्षेपित चैतन्य से पाठक पर होनेवाले आध्यात्मिक उपचार का वर्णन करता है ।
  • संत अथवा गुरु द्वारा लिखित ग्रंथों में सभी जानकारी वैश्विक मन तथा बुद्धि से प्राप्त हुई होती है तथा इसलिए इसे किसी संदर्भ की आवश्यकता नहीं पडती जैसे कि माया-विषयक ग्रंथों में पडती है ।
  • अध्यात्म-विषयक ग्रंथ यदि संत अथवा गुरु द्वारा लिखित हों तो उनमें सर्वाधिक चैतन्य होता है । आध्यात्मिक प्रगति के इस स्तर पर अपने गुरु की कृपा से वे वैश्विक मन तथा बुद्धि से ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होते हैं ।