‘ब्रह्मांड में ‘संकल्प शक्ति’ की प्रक्रिया

संकल्प शक्ति’ की प्रक्रिया निम्नलिखित उदाहरण से स्पष्ट होगी ।

संकल्प शक्ति’ की प्रक्रिया

हम यह मानें कि हमारे मन की कुल ऊर्जा १०० इकाई है । हमारे मन में दिन भर अनेक विचार आते हैं । ये विचार हमारे जीवन के विभिन्न पहलुओं से होते हैं । उदाहरणस्वरूप, हमारे मन में कार्यालय की किसी घटना अथवा परिवार से संबंधित अथवा छुट्टियों के नियोजन के विचार रहते हैं; जैसे – मुझे अब कार्यालय जाना है, मुझे यह कार्य निपटाना है, मुझे इस व्यक्ति से मिलना है । मन की कुल १०० इकाई ऊर्जा में से कुछ ऊर्जा प्रत्येक विचार की पूर्ति में व्यय होती है । दिन भर में मन में अनेकों विचार आने के कारण प्रचुर मात्रा में ऊर्जा का व्यय होता है । परिणामस्वरूप  संकल्प शक्ति न्यून होती है ।

जैसे ही एक व्यक्ति साधना आरंभ करता है, साधना का संस्कार हमारे अवचेतन मन पर अंकित होता है । विचार कम होने लगते है और संकल्प शक्ति बढ़ जाती है । इसकी विस्तृत जानकारी के लिए कृपया निम्नलिखित लेख पढें ।

  • भक्ति केंद्र की स्थापना
  • विक्षेपण विधि (Deflection Method) के माध्यम से नामजप किस प्रकार कार्य करता है ?

ब्रह्मांड में ‘संकल्प शक्ति’ की प्रक्रिया

जैसे-जैसे साधना बढती है, वैसे-वैसे साधना का यह केंद्र और दृढ होता जाता है । विक्षेपण विधि के माध्यम से हमारे मन के अनावश्यक एवं अनैच्छिक विचार अपनेआप अल्प होते हैं । यह हमारे आगे की साधना को और सुदृढ करता है और इस प्रकार की अनुभूति देता है कि ईश्वर ही हमारे जीवन का ध्यान रखते हैं । इस प्रकार जीवन के प्रत्येक प्रसंग से संबंधित हमारी चिंता एवं कर्तापन अनुपातिक मात्रा में घटने लगता है । जीवन में कर्तापन का न्यून होना अर्थात इस बात की पुष्टि होना कि जैसे-जैसे हममें ईश्वर के प्रति त्याग एवं सेवा की भावना बढती है, वैसे-वैसे ईश्वर हमारे जीवन के प्रत्येक प्रसंग एवं आवश्यकताओं का ध्यान रखते हैं ।

परिणामस्वरूप, उच्च आध्यात्मिक स्तर (७०% से अधिक) पर व्यक्ति विचारहीन स्थिति में पहुंच जाता है । ऐसी विचारहीन स्थिति में यदि उस व्यक्ति को एक भी विचार आ जाए जैसे‘अमुक घटना घटित हो’, तब उस व्यक्ति की १०० इकाई ऊर्जा उस विचार को फलीभूत करने में लग जाती है और वह विचार वास्तविकता में परिवर्तित हो जाता है । इसे संकल्प शक्ति कहते है । यदि वह विचार ईश्वर अथवा परम सत्य से संबंधित हो, तब इसमें उस व्यक्ति की साधना व्यय नहीं होती । ईश्वर ऐसे अध्यात्मप्रसार के अपने कार्य को स्वयं ही पूर्ण करते हैं ।