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प्रस्तावना

पिछले अनेक दशकों से, मानव जाति के आध्यात्मिक स्तर के साथ साथ उसके धर्माचरण करने, नैतिक मूल्यों का पालन करने, तथा अच्छा मानवीय आचरण करनेमें तीव्र गिरावट हुई है । लोगों को अधिक स्वतंत्रता देने अथवा जीवन में अधिक विस्तृत मानसिकता के बनने की आड में, लोग अपनी कुछ इच्छाओं, स्वभाव दोषों तथा अहं को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने लगे हैं । ऐसे प्रदर्शन के संदर्भ में हमने १०० वर्ष पहले तक कुछ सुना भी नहीं था । यह रोचक है कि अधिकतर लोग वर्तमान में यही सोचते हैं कि हमने प्रगति की है, क्योंकि वे तकनीकों तथा संचार में हुई प्रगति तथा अंतरिक्ष में प्रवेश को प्रगति मान रहे हैं । किंतु खेद की बात यह है कि पिछले सहस्रों वर्षों से मानवता का नैतिक तथा परिणामस्वरूप आध्यात्मिक पतन हो रहा है । इस कलियुग में अनिष्ट शक्तियों ने मानवता पर अधिकाधिक शासन करने के लिए मनुष्य की इच्छाओं, स्वभाव दोषों तथा अहं का दुरुपयोग किया है ।

लोगों के मन में सार्वजनिक चुंबन लेने का विचार कहां से आया ?

इस कलियुग में धर्म, जो कि ईश्वर का नियम है, उसे पूर्ण रूप से अनदेखा करने तथा अधिकतर लोगों के निम्न आध्यात्मिक स्तर के कारण, अधिकांश विश्व ने उन्मुक्त जीवनशैली तथा वृत्ति, साथ ही यह विचार कि हम जो करना चाहते हैं उससे जब तक अन्य लाेगों को कोई कष्ट न हो, उसके लिए हमें स्वतंत्र होना चाहिए । हम सार्वजनिक रूप से अपनी इच्छाएं प्रदर्शित करते हैं और अपने बच्चों तथा युवाओं को अपने उन आचरणों से सिखाते हैं । उदाहरण के लिए, सार्वजनिक स्थान में शारीरिक प्रेम दर्शाना अच्छा प्रदर्शन है ।

धर्म वह है जिससे ३ उद्देश्य साध्य होते हैं : १. समाज व्यवस्था को उत्तम बनाए रखना २. प्रत्येक प्राणिमात्र की व्यावहारिक उन्नति साध्य करना ३. आध्यात्मिक स्तर पर भी प्रगति साध्य करना । आद्य शंकराचार्य

आजकल लोगों को आलिंगन करने तथा सार्वजनिक स्थलों जैसे पार्क, सार्वजनिक यातायात के साधनों में, गलियों तथा अब तो विद्यालयों में भी, विशेषकर बडे नगरों में, सबके सामने एक दूसरे को चुंबन करते हुए सामान्य रूप से देखा जाता है ।

 

 

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यह अनुचित क्यों है ?

सिद्धांत के स्तर पर मनुष्यों तथा जानवरों में कुछ बातें एकसमान होती हैं, जैसे खाना, सोना, भय तथा यौन क्रिया । जानवर सार्वजनिक यौन क्रिया करते हैं । मनुष्य सार्वजनिक रूप से संभोग क्रिया नहीं करते, यही बात मनुष्यों को जानवरों से अलग करती है, क्योंकि यह मानवोचित्त व्यवहार नहीं है । यदि मनुष्य इस प्रकार से व्यवहार करने लगे, तब उनका व्यवहार जानवरों के व्यवहार के स्तर तक गिर जाएगा । समय के साथ- साथ, यदि इस प्रकार की गतिविधियां और अधिक होती रहीं, तो पूरे समाज का पतन होने लगेगा । इसलिए, यह आचरण स्वीकार्य नहीं है और हमें सार्वजनिक रूप से चुंबन नहीं करना चाहिए ।

जो दृश्य देखता है, वह उस दृश्य से प्रभावित होता है । - परम पूजनीय डॉ.आठवले जी

हम जो भी देखते हैं, उसका हम पर प्रभाव पडता है । उदाहरण के लिए, जब हम भगवान का पूजा स्थल देखते हैं, तब हमारे मनमें अच्छे तथा पावन विचार आते हैं । यदि हम कुछ नकारात्मक देखते हैं तो हमारा मन भी नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है । हम सार्वजनिक रूप से जैसा वर्तन करते हैं, इसका प्रभाव हम पर तथा साथ ही अन्यों पर भी पडता है ।

मनुष्य की रक्षा समाज, समाज की रक्षा देश और देश की रक्षा ईश्वर करते हैं । - परम पूजनीय डॉ.आठवले जी

यदि एक बच्चा सदैव वही करे जो उसे अच्छा लगता है, तब वैसे में वह बच्चा बडा होकर एक सुसंस्कृत मनुष्य नहीं बनेगा । उसी प्रकार, यदि हम सभी जैसा चाहते हैं वैसा ही करने लगें, तो यह हमारे लिए अच्छा नहीं होगा और इस प्रकार हम समाज की भी हानि करेंगे । मनुष्य होने के कारण यह हमारा व्यक्तिगत तथा सामूहिक उत्तरदायित्व है कि हम हमारे समाज में अन्य लोगों की उपस्थिति में उचित ढंग से व्यवहार करें ।

‘‘स्वार्थी लोगों के मन में केवल उनकी आवश्यकताएं तथा इच्छाएं होती हैं और उनका पूरा ध्यान केवल ‘मैं’ पर होता है । इसके विपरीत, साधकों का ध्यान केवल ईश्वर पर होता है और इसलिए उन्हें ईश्वर से सुरक्षा प्राप्त होती है । इसलिए आध्यात्मिक रूप से प्रगति करने तथा स्वार्थ एवं वैसी अन्य प्रथाएं जो आध्यात्मिक रूप से हमारे तथा समाज के लिए हानिकारक हैं, उनसे स्वाभाविक रूप से दूर जाने के लिए हमें अध्यात्म के मूलभूत छः सिद्धांतों के अनुसार नियमित साधना करनी चाहिए ।’’ – परम पूजनीय डॉ.आठवलेजी

 

स्वयं पर नकारात्मक प्रभाव अन्यों पर नकारात्मक प्रभाव
२ प्रतिशत १ प्रतिशत

साथ ही, सार्वजनिक रूप से चुंबन लेने के कृत्य से अनिष्ट शक्तियां भी आकर्षित होती हैं । इससे वैसे कृत्यों में लिप्त लोग तथा जो उसकी सराहना अथवा अनुसरण करते हैं, वे स्वयं के और अधिक पतन को निमंत्रण देते हैं ।

स्वयं पर नकारात्मक प्रभाव अन्यों पर नकारात्मक प्रभाव
कितने मिनट तक इसका प्रभाव रहता है ३० मिनट ५ मिनट
अर्जित पाप की प्रतिशत मात्रा २ प्रतिशत

हम सार्वजनिक चुंबन करने में जितना अधिक मग्न होंगे, उतना ही हम स्वयं को तथा अन्यों को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करेंगे ।

सार्वजनिक रूप से चुंबन लेने में प्रत्येक बार २ प्रतिशत पाप अर्जित होता है ।

उपरोक्त बिंदु अच्छे से समझने के लिए पापार्जन की तुलनात्मक सारणी :

पाप प्रतिशत
 अपशब्दों का प्रयोग करना
सार्वजनिक चुंबन करना
अन्यों के सामने नग्न होना
सार्वजनिक रूप से यौन क्रिया १०
किसी पर आक्रमण करना १३
हत्या करना १००

सार्वजनिक स्थलों पर चुंबन के आदान- प्रदान की प्रथा में निरंतर वृद्धि समाज को व्यापक रूप से प्रभावित कर इसके अध:पतन का कारण ही बनती है । चूंकि ईश्वरीय विधान का पालन समाज में सुख और प्रसन्नता सुनिश्चित करता है, ईश्वर के इस विधान के विपरीत आचरण करता समाज समय के साथ निश्चित रूप से दुःखी ही होगा और हम इस बात को विभिन्न प्रकार से प्रत्यक्ष देख रहे हैं ।

  • ‘‘प्रत्येक वर्ष, प्रत्येक पांच आस्ट्रेलियाई में एक मानसिक व्याधि से ग्रस्त होता है’’ । –  सौजन्य- माइंडफ्रेम (ऑस्ट्रेलिया)
  • ‘‘चार वयस्कों में एक, कुल मिलाकर लगभग ६१.५ मिलियन अमरीकी एक वर्ष में मानसिक व्याधि से पीडित होते हैं । युवाओं के १३ से १८ आयुवर्ग के लगभग २० प्रतिशत युवा प्रति वर्ष गंभीर मानसिक विकार से ग्रस्त होते हैं । आयुवर्ग १३ से १५ के लिए यह आंकडा १३ प्रतिशत है ।’’ – सौजन्य एनएएमआई – नेशनल एलाइंस फॉर मेंटल इलनेस (यूएसए)
  • ‘‘ब्रिटेन में ४ में १ व्यक्ति किसी न किसी प्रकार की मानसिक अस्वस्थता अनुभव करता ही है । ब्रिटेन में चिंता तथा निराशा एकत्रित रूप से सर्वाधिक सामान्य मानसिक विकार हैं । पुरुषों की तुलना में महिलाओं में मानसिक अस्वस्थता अधिक पाई जाती है । लगभग १० प्रतिशत बच्चे भी किसी समय मानसिक अस्वस्थता से ग्रसित होते हैं । प्रौढों में ५ में १ व्यक्ति निराशा से प्रभावित है ।’’ – सौजन्य मेंटल हेल्थ फाउंडेशन (यूके)
 ‘‘लोग सुख चाहते हैं; किंतु आनंद सर्वोच्च स्तर का सुख है । यह निर्भर करता है कि हम क्या चाहते हैं :स्थायी सुख तथा आनंद अथवा सुख एवं उसके साथ आनेवाला दुख ? ईश्वर का अर्थ है आनंद – किसी भी दुख के बिना’’ – परम पूजनीय डॉ.आठवलेजी

लोगों को केवल अध्यात्म तथा धर्म का ज्ञान देने तथा व्यक्ति के आध्यात्मिक स्तर में वृद्धि करानेवाली और उसेआनंद की सुनिश्चित अनुभूति करवानेवाली, पर्याप्त मात्रा में साधना करने से ही समाज धीरे-धीरे धर्माचरणी, नैतिक तथा आध्यात्मिक रूप से शुद्ध होगा । इस समाज में रहना सभी के लिए अधिक सुखदायी होगा ।