HIN_personality-defects

१. साधना के रूप में स्वभावदोष निर्मूलन – प्रस्तावना

प्राचीन धर्म-ग्रंथों के अनुसार मनुष्य का मन ही उसके बंधन और मुक्ति का कारण है । मन के कारण ही जन्म-मरण तथा सुख-दुख के चक्रव्यूह से चिरंतन मुक्ति संभव है । स्वभाव के दोष ही मनुष्य के दुख के तथा गुण (सद्गुण) उसके सुख एवं संतोष के मूल कारण हैं । किसी व्यक्ति में दिखाई देने वाले गुण-दोष उसके अवचेतन मन में अंकित संस्कारों से उत्पन्न होते हैं ।

सुखी जीवन एवं प्रभावकारी साधना के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि व्यक्ति अपने स्वभावदोषों का निरंतर निवारण कर सद्गुणों का विकास अथवा संवर्धन करे । स्वभावदोष ही व्यक्तिगत जीवन में सुख-संतोष की प्राप्ति में सबसे बडी बाधा हैं । साथ ही ये दोष ही ईश्‍वर-प्राप्ति के प्रयासों में अर्थात साधना में भी बाधक हैं । जिस व्यक्ति में जितने अधिक दोष होते हैं, उससे व्यष्टि (व्यक्तिगत) तथा समष्टि (समाजगत) साधना में उतनी ही गलतियां होती हैं और वह ईश्‍वर से उतनी ही दूर हो जाता है । अतएव इन सबसे बचने हेतु दोषों का निर्मूलन अत्यंत आवश्यक है ।

२. व्यक्तित्व क्या है ?

कोई भी कार्य करते समय अवचेतन मन में जब बार-बार वही संस्कार उभरते हैं, तो उसे ही स्वभाव कहा जाता है । संक्षेप में, स्वभाव ही मनुष्य की प्रकृति है । अनेक लोगों में इन गुण-दोषों की अभिव्यक्ति इतनी प्रबल रहती है कि ये गुण-दोष ही उनके स्वभाव के परिचायक बन जाते हैं ।

(संदर्भ : मानव मन की कार्यकारी संरचना सम्बन्धी लेख और ट्यूटोरियल देखें )

३. स्वभाव के गुण एवं दोष क्या होते हैं ?

सामान्यत: अच्छे संस्कारों, वृत्तियों को, आदतों को, स्वभाव के गुण कहते हैं, जबकि बुरे संस्कारों, आदतों को स्वभावदोष कहते हैं । स्वभाव के किसी अंग के परिणामस्वरूप एक तो स्वयं उसे व्यक्ति को अथवा अन्यों को उसके आचरण के कारण कष्ट होता है । ऐसे में स्वभाव का वह अंग व्यक्ति का स्वभावदोष कहलाता है । यहां हम केवल स्वभावदोषों की चर्चा करेंगे ।

४. क्रिया एवं प्रतिक्रिया

हमारी समस्त क्रियाएं एवं प्रतिक्रियाएं हमारे मन के संस्कारों पर, आदतों पर निर्भर होती हैं । हमारी अनुचित क्रिया एवं प्रतिक्रिया के कारण, हमारे लिए अथवा अन्यों के लिए समस्या खडी हो जाती है । इससे उसके मन में प्रतिक्रिया उभरती है । अतएव हमें अपनी क्रिया एवं प्रतिक्रिया के प्रति सदैव सावधान रहना चाहिए ।

५. साधना का एक अंग – स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया

आध्यात्मिक उन्नति में स्वभावदोष बाधक हैं, यह समझते हुए स्वभावदोष निर्मूलन को साधना का ही अंग मानकर अपने जीवन में उतारना, इसे स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया कहते हैं । हम सभी जानते हैं कि तेल की बूंद पानी में कभी भी पूर्णतया विलीन नहीं होती; क्योंकि दोनों के गुणधर्म एक दूसरे से पृथक हैं । उसी प्रकार आध्यात्मिक विकास के शिखर तक पहुंचने के लिए अर्थात ईश्‍वर से एकरूप होने के लिए हमें अपने सारे स्वभाव-दोषों का त्याग करना ही होगा, क्योंकि ईश्‍वर दोषरहित हैं ।

यद्यपि हमारा लक्ष्य उच्चतम अर्थात ईश्‍वर-प्राप्ति न हो, तथापि शारीरिक, मानसिक, समाजिक एवं आध्यात्मिक दुष्परिणामों से बचने के लिए तथा सुखी एवं संतुष्ट जीवन के लिए अपने दोषों का आंशिक उन्मूलन आवश्यक है । स्वभावदोषों का आंशिक उन्मूलन भी हमारे व्यक्तित्व और परिवेश को साधना के अनुकूल बनाता है ।