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 १. प्रस्तावना

जब मैं तीन वर्ष की थी तभी मेरे माता-पिता ने मुझे विद्यालय भेजने का निर्णय लिया क्योंकि मैं कभी शांत नहीं रहती थी; इस कारण मुझ पर अत्यधिक ध्यान देना पडता था । मैं तीन वर्षोंतक एक नर्सरी विद्यालय में अध्ययन करती रही जबतक कि मैं प्राथमिक विद्यालय में जाने योग्य नहीं हो गई । जब मैं तीन वर्ष की एक नन्हीं बच्ची थी, तब बडों का मेरे वजन को लेकर किया उपहास सहन करने की मुझमें क्षमता नहीं थी । उस समय मेरी आयु पांच वर्ष की होगी, जब मैंने भावनात्मक एवं मनोवैज्ञानिक द्वंद अनुभव किया, जिसका परिणाम आनेवाले वर्षों में मेरे व्यवहार पर हुआ ।

उस बाल्यावस्था में मुझे यह विदित न था कि अहंकार किसे कहते हैं, किंतु मैं अहं से भलीभांति परीचित थी । लगभग पांच वर्ष की आयु में मैं अपने आपसे घृणा करने लगी, मैं स्वयं को बडों से हीन समझने लगी; फलस्वरूप सामूहिक वातावरण में रहना मेरे लिए असुविधाजनक होता । मैं अपनी उपलब्धियों से कभी संतुष्टि नहीं होती और असफल होनेपर दुर्भावनाग्रस्त हो जाती । मैं अकेलेपन में अधिक आराम अनुभव करती एवं स्वयं को नकारात्मक दृष्टि से ही देखती ।

मेरा जन्म कैथोलिक संप्रदाय में हुआ था एवं मैं एक कैथोलिक विद्यालय में पढती थी । यद्यपि मेरा मन स्वयं के विषय में नकारात्मक विचारों से ओतप्रोत था, तब भी मैंने अपने धर्म के सिद्धांतों को उत्साह के साथ सीखा तथा अपने जीवन में उनका पालन करने की ओर मेरा बहुत झुकाव था । मैं एक सज्जन व्यक्ति बनना चाहती थी एवं कोई त्रुटि करने से डरती थी क्योंकि मुझे ईश्वर का भय था । विद्यालय में हमें बताया जाता कि रविवार को रोमन प्रार्थनासभा में न जाना महापाप है, फलस्वरूप पाप के भय से एवं मुझे ईश्‍वरीय दंड न मिले इसलिए मैं प्रार्थनासभा में जाने लगी । अपने धर्मानुसार थोडी-थोडी साधना करने से मुझमें ईश्वर प्राप्ति की उत्कंठा जागृत हुई । भावनात्मक समस्याओं से ग्रसित होनेके कारण मेरे अकेलेपन ने भी मुझे ईश्वर के समीप जाने में सहायता की ।

मैं बाइबल पढती, गिरजाघर जाती एवं विद्यालय द्वारा प्रणीत दूसरों की सेवा करने जैसी गतिविधियों में भी सक्रिय रूप से सम्मिलित होती । मुझे युवाओं के सत्संग में उपस्थित रहना अच्छा लगता और मैं आध्यात्मिक गतिविधियों एवं बाइबल की प्रेरक कथाओं से आध्यात्मिक यात्रा में अधिकाधिक सम्मिलित होने लगी । माध्यामिक स्तरतक आते आते मुझे इन कार्यक्रमों में नेतृत्व की भूमिकाएं प्राप्त होने लगीं एवं रविवार की प्रार्थना सभा में मुझे प्रवचनों पर विवेचन करने के लिए भी कहा जाने लगा । इन सब के साथ एवं उत्कृष्ट विद्यार्थी बनने की उत्कंठा ने मुझे एक प्रतिष्ठित सज्जन व्यक्ति बना दिया, जो मैं बनना चाहती थी ।

२. दु:खी और अन्यमनस्क

इसके पश्‍चात भी मेरे विचार एवं भावनाएं वैसी ही बनी रहीं । मैं सदा दु:खी रहती । मध्याह्न भोजन के समय मेजपर मैं परिजनोंसे अत्यल्प बोलती एवं बहुत बार मैं अपने कमरे में अकेली रोती रहती । मेरे माता-पिता प्रेम एवं आदर के मूर्तरूप थे, किंतु मैं उनसे अपनी भावनात्मक समस्याओं के संबंध में कभी चर्चा न कर सकी । मेरे बचपन से ही मेरी माता अत्यधिक निराशा एवं व्याधि से ग्रस्त थीं और मेरे बचपन से प्राय: वह रोती ही रहतीं । जबसे उन्हें विद्युत तरंगों का कष्टदायक उपचार दिया गया, तबसे मैं सदा अपनी मां के पक्ष में रहती और उससे मेरे भावनात्मक कष्ट में वृद्धि हुई । एक दिन मैनें देखा कि मैं कक्षा में उनकी याद में रो रही थी, मुझे इस बात का साक्षात्कार हो रहा था कि कोई भी चिकित्सकीय उपचार उनकी व्याधि एवं मानसिक पीडा का निवारण नहीं कर पा रहे थे ।

मैं आश्‍चर्य से अपनी इस युवावस्था में यह विचार कर रही थी कि मेरे साथ यह सब क्यों हो रहा था । ‘‘ सहन करने के लिए मेरा जन्म क्यों हुआ’’, ‘‘अन्य लोग मुझे स्वीकार क्यों नहीं करते’’, ‘‘मेरे विचार में मृत्यु का आलिंगन करना उचित है ’’ऐसे विचार निरंतर मेरे मन में आते रहते । कालांतर में मुझे ज्ञात हुआ कि अहंकार के कारण ये सब विचार मेरे अंतरमन में गहरे बैठ गए थे एवं मुझे ईश्वर प्राप्ति से दूर रखने के लिए अनिष्ट शक्तियों के प्रभाव के कारण अधिक तीव्र हो रहे थे ।

३. धार्मिक जीवन

विद्यालय से स्नातक होने के पहले एक कैथोलिक नन ने मुझे धार्मिक जीवन से संयुक्त होने के लिए प्रोत्साहित किया और कुछ दिनों तक मैं नन बनने के संबंध में सोचती रही, किंतु मेरा प्रारब्ध तो कुछ और ही था, क्योंकि मैं विवाह कर बच्चों की माता बनना चाहती थी ।

विद्यालयीन शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत मेरे जीवन का एक नवीन अध्याय प्रारंभ हुआ, और मैं पूर्णरूपेण यह भूल गई कि मेरी आंतरिक इच्छा ईश्वरप्राप्ति की थी । अपनी विश्‍वविद्यालयीन शिक्षा के उपरांत मैं एक कलाकार बन गई एवं कुछ वर्षों उपरांत एक अंतरराष्ट्रीय संगठन के सांस्कृतिक क्षेत्र में मैंने अपना व्यावसायिक जीवन प्रारंभ किया । एक व्यक्ति से मिलने के चार माह उपरांत उनसे विवाहबद्ध हो गई और तीन बच्चों के साथ अपना परिवार बनाया । इतना पाकर मैं कुछ सीमा तक प्रसन्न थी कि मैंने अपने जीवन में कुछ प्राप्त कर लिया है । किंतु मेरे बचपन के विचारों में कोई परिवर्तन नहीं आया । मेरा मन आंदोलित होता ही रहा और भावनात्मक स्तरपर मैं ठीक अनुभव नहीं कर रही थी । दूसरी ओर अपनी वैवाहिक समस्याओं के मध्य मैं यह भी भूल गई कि किसी समय मुझमें ईश्वरप्राप्ति की तीव्र उत्कंठा थी । कुछ ऐसा हुआ कि इन वर्षों में मैं ईश्वर से पूर्णतया विमुख हो गई ।

४. अपने बेटे के माध्यम से SSRF से भेंट

तदनंतर मैंने यह अनुभव किया कि ईश्वर के पास मेरे लिए एक नियोजन था । मुझे यह बोध हुआ कि अंततः मैंने जीवन में इतने पहले क्यों विवाह किया और बच्चों का परिवार बनाया । मेरे बच्चों में से एक १६ वर्ष की आयु में आते ही अत्यधिक रोगग्रस्त हो गया । उसकी अवस्था देखकर मुझे अपनी मां की स्मृति हो आई और मेरी भावनात्मक समस्याएं बढ गईं । हम अनेक चिकित्सकों से मिले, जो मेरे पुत्र की चिकित्सा विभिन्न प्रकार से कर रहे थे किंतु उसको कोई लाभ नहीं हो रहा था । ५ वर्षों तक उसका उपचार कराकर मैं निराश हो गई तथा इसी समय अपने पति से विवाह-विच्छेद कर अपने बच्चों के साथ रहने के लिए अन्य घर में आ गई । मेरे पुत्र की चिकित्सा के प्रयत्न चल ही रहे थे, तभी मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि उसमें कुछ परिवर्तन हो रहा है । वर्ष २००७ में जब उसकी आयु २२ वर्ष थी, वह संगणक पर घंटों विभिन्न जानकारियों का अध्ययन करता रहता तथा स्काइप पर बातें भी करता, किंतु प्राय: प्राप्त जानकारियां वह मेरे साथ नहीं बांटता । एक दिन अचानक मैंने उसके संगणक के दृश्यपटल(स्क्रीन)पर भूत-प्रेतों के विषय में लेख देखा, जो मैंने पढ लिया ।

मेरी यह तीव्र इच्छा थी कि मुझे यह ज्ञात हो कि मेरा बेटा क्या पढ रहा था, मैंने वह जालस्थल (वेबसाइट) देखा एवं उसमें प्रकाशित सामग्री देखने लगी । इस प्रकार से मुझे SSRF (स्पिरिच्युअल साइंस रिसर्च फाऊंडेशन) के संबंध में पता चला । कालांतर में मुझे यह विदित हुआ कि SSRF के जालस्थल पर दिए गए लेख पढने तथा अन्य साधकों के साथ संपर्क करने का मेरे पुत्र का उद्देश्य, अपनी व्याधि के संबंध में आध्यात्मिक उपचारों की जानकारी प्राप्त करना था । यह उस समय और भी स्पष्ट हुआ जब वह SSRF के भारत स्थित केंद्र में अपने स्वयं के साधनों से आया ।

५. सत्संगों में उपस्थित रहना

जब मेरा पुत्र SSRF का साधक बन गया, उसके २ वर्ष उपरांत वर्ष २००९ में मैं अपनी पुत्री, जो विदेश में अध्ययनरत थी, से मिलने जा रही थी । एक रात्रि वह अपने भाई के साथ स्काइप पर एक सत्संग  में सहभागी हुई । मेरे लिए यह बिलकुल नया था । तदुपरांत मुझे यह ज्ञात हुआ कि मेरी पुत्री भी एक साधक है और वे दोनों साथ-साथ एक सत्संग में सम्मिलित होते हैं, जबकि मैं अधिकतर अपनी व्यावहारिक गतिविधियों में ही व्यस्त रहती हूं । चूकि मैं उस कक्ष में अपनी पुत्री के साथ रह रही थी इसलिए मैं भी पहली बार उस सत्संग को सुन सकी । उस समय मैं नितांत मौन थी एवं सुन रही थी कि साधक आपस में कौन सी जानकारी साझा कर रहे हैं और मैं यह भी देख रही थी कि सत्संग के मध्य मेरी बेटी किस प्रकार प्रार्थना करती थी । जाने क्यों मुझे अति शांति की अनुभूति हुई । अब मुझे ज्ञात हुआ कि ऐसा ईश्‍वरीय चैतन्य के फलस्वरूप हुआ जो सत्संग के समय प्राप्त होता है, जिसके कारण संपूर्ण वातावरण में शांति की अनुभूति होती है ।

६. सत्सेवा का प्रारंभ

वर्ष २०१० में मेरे पुत्र ने मुझे SSRF के लेखों का भाषांतर, अंग्रेजी से स्पैनिश भाषा में करने की सत्सेवा करने के लिए प्रेरित किया, जिसे मैंने किया । कुछ माह पश्‍चात गुरुपूर्णिमा ( जब ईश्वर का ज्ञान प्रदान करनेवाला तत्त्व अन्य दिनों की अपेक्षा १००० गुना अधिक रहता है) के उपरांत मेरी आध्यात्मिक यात्रा ‘‘श्री गुरुदेव दत्त’’  का नामस्मरण करने से प्रारंभ हुई एवं मुझे ऐसी अनुभूति हुई कि इतने वर्षों के उपरांत ईश्वर मुझे पुन: बुला रहे हैं ।

७. मेरे जीवन का क्रांतिकारी परिवर्तन

वर्ष २०११ में मुझे SSRF के गोवा, भारत, केंद्र में आयोजित कार्यशाला में सहभागी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । वहां के साधकों से मिलना, साधना मार्गपर उनकेद्वारा किए गए प्रयत्न एवं उनकी अनुभूतियों का सुनना मेरे लिए एक अनन्य आनंददायी अनुभूति थी । मैंने जब अपने जीवन का सिंहावलोकन किया तो पाया कि बचपन में जब मैं अपने विद्यालय में आध्यात्मिक गतिविधियों में सहभागी होती थी तब से ईश्वर को भूलने पर भी, वे निरंतर मेरे समीप रहे । अब मेरे लिए साधना के छ: मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार साधना  करने का यह उचित समय था ।

साधना प्रारंभ करने के उपरांत, शीघ्र ही मैंने साधकों की आध्यात्मिक अनुभूतियां पढना प्रारंभ किया, जो उन्हें भाव जागृति  होने से प्राप्त हो रही थीं । मैं इससे अति प्रोत्साहित हुई क्योंकि मुझे भी वैसी अनुभूतियां प्राप्त करनी थीं एवं मुझे ऐसे आध्यात्मिक आयाम का कोई अनुभव नहीं था । मैंने यह भी देखा कि जैसे अन्य साधकों को अनुभूतियां प्राप्त होतीं हैं, मुझे वैसी प्राप्त नहीं होतीं, जिसके फलस्वरूप मैं हतोत्साहित थी । कालांतर में मुझे प्रतीत हुआ कि अनुभूतियां तो ईश्वर की इच्छासे ही प्राप्त होती हैं तथा अनुभुतियां प्राप्त करने की इच्छा रखने से अच्छा यह है कि मैं अपना ध्यान साधना पर ही केंद्रित करूं । मैं उस दिशा में प्रयत्न करने लगी और धीरे-धीरे ईश्वर मुझे आध्यात्मिक अनुभूतियों के माध्यम से सूचित करने लगे कि मेरी साधना योग्य मार्ग से हो रही है, जिससे मैं बहुत अधिक प्रोत्साहित हुई ।

८. आध्यात्मिक अनुभूतियां

मुझे मेरी प्रथम आध्यात्मिक अनुभूति तब प्राप्त हुई, जब मैं अपने सबसे कनिष्ठ पुत्र को समीप के पर्वत पर ले गई । वहां जब मैं स्थानीय सत्संग में जाने हेतु वाहन चला रही थी, तब मैं प्रार्थना कर रही थी कि समयपर सत्संग में पहुंच सकूं और इसलिए गाडी तेज चला रही थी । एकाएक मुझे वाहन के अंदर चमेली की सुगंध आने लगी । मैं सुगंध के स्रोत को ढूंढने लगी, किेंतु वह नहीं मिला । सुगंध लगभग ३० सेकेंड तक आती रही और मैं आनंद  अनुभव कर रही थी । उसके उपरांत मैं वाहन चलाकर सत्संग में ठीक समय पर पहुंच गई ।

ईश्वर ने मुझे मेरे हाथ पर दिव्य कणों को भेज कर अनुभूति प्रदान की है तथा सत्सेवा करते समय दिव्य नाद  की अनुभूति भी मुझे प्राप्त हुई है । मैं ईश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती हूं, कि उन्होंने मुझे अनुभूतियां प्रदान कर उत्साह के साथ आध्यात्मिक मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी ।

९. स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन

स्वभावदोष  एवं अहं निर्मूलन की जो प्रक्रिया मैंने साधना के रूप में प्रारंभ की, वह मेरे लिए ईश्वर प्रदत्त एक अनुपम उपहार थी । इससे मुझे पता चला कि मन पूर्वजन्म के संस्कार लेकर आता है, जिनका प्रभाव वर्तमान दैनिक जीवन में दिखाई देता है । बचपन से रचा-बसा प्रतिष्ठा का अहंकार मन में अनेक जन्मों के संस्कारों के कारण उत्पन्न हुआ होगा और SSRF के माध्यम से मुझे उसका निर्मूलन प्रारंभ करनेका एक साधन प्राप्त हुआ ।

मेरे संपूर्ण जीवन में जब तक मैं SSRF से नहीं जुडी थी, तबतक मैं अपने आपसे रूठी हुई थी एवं जो भी मुझे मेरी न्यूनताएं बताता उससे भी क्षुब्ध रहती । मैं स्वयं से घृणा करती थी, इसलिए मेरी दृष्टि में अपने आप का कोई मूल्य न था । जब दूसरे मुझे इस संबंध में कुछ कहते तो वह मुझे स्वीकार ही नहीं होता, उलटे मैं उनपर क्रोधित हो जाती । मुझे यह भी स्वीकार नहीं होता कि मैं त्रुटिपूर्ण हूं और मुझपर कई दिनोंतक इसका प्रभाव रहता क्योंकि मैं यह अपेक्षा करती थी कि मैं सदा आदर्श रहूं । मैंने अपने आपको दूसरों के सामने सदा एक आत्मविश्‍वासी व्यक्ति जैसा प्रस्तुत किया जब कि अंतरमन में मैं इसके विपरीत सोचा करती थी । इनका प्रकटीकरण उस समय भी हुआ जब मैंने स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन प्रक्रिया का कार्यान्वयन प्रारंभ किया क्योंकि साधक जब मुझे मेरी त्रुटियों के संबंध में बताते तो मुझे वह स्वीकार ही नहीं होती थी । एक बार एक साधक ने मुझे बताया कि मेरा अहं कैसे कम हो रहा है ! किंतु मैं उसी पर क्रोधित हो गई ।

SSRF के माध्यम से साधना करने से मैंने अपनी त्रुटियों को स्वीकार करना सीखा एवं वे पुन: न हों इसके लिए प्रयत्न कैसे करने चाहिए, यह भी सीखा । मैंने यह भी समझा कि त्रुटियां हमें कुछ सिखाने के लिए होतीं हैं । लोगों ने मुझे एक शांत व्यक्ति के रूप में ही पहचाना है किंतु मुझे ऐसा बोध होता है कि मेरी शांति वास्तविक नहीं थी अपितु मैं अपनी असुरक्षा एवं संघर्ष छुपाना चाहती थी । आज साधना प्रारंभ करने पर मुझे यह लगता है कि मैं सचमुच एक शांत व्यक्तित्त्व प्राप्त कर रही हूं । अपने प्रति मेरा क्रोध अब न्यून हो गया है एवं मेरा भूतकाल अब मुझे महत्त्वपूर्ण नहीं लगता । मुझे एक महान ज्ञान की प्राप्ति हुई कि मनुष्य जीवन की प्राप्ति ही एक अनन्य उपहार है, जो साधना के माध्यम से ईश्वर तक पंहुचने का एक स्रोत है ।

प्राय: मैं विचार करती हूं कि यदि मेरी मां ने साधना की होती, तो उसका अनिष्ट शक्तियों से रक्षण होता और अत्यधिक तनाव/निराशा युक्त जीवन से अधिक अच्छा जीवन प्राप्त होता । जहां तक मेरा प्रश्‍न है नकारात्मक शक्तियों ने मेरे जीवन में अहंकार को बढाकर मेरे लिए समस्याओं एवं कठिन परिस्थितियों को निर्माण किया । मैं ईश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती हूं कि मैं अपने अहंकार को न्यून कर सकी एवं SSRF के मार्गदर्शन में एक अधिक सकारात्मक मन पा सकी ।

१०. र्इश्वर से पुनर्मिलन

जिस दिन मैंने निश्‍चित किया कि मैं एक परिवार बनाऊं, मेरे अपने बच्चे हों, मुझे कदापि इसका बोध नहीं था कि यह प्रारब्धवश हो रहा है । आज उनके कारण ही मैं ईश्वर के सान्निध्य में आ सकी । हम सभी एक दूसरे की साधना में सहायता करते हैं, क्योंकि हमारा अपना परिवार है, किंतु उससे भी बढकर इसलिए कि हम सभी सहसाधक हैं ।

ईश्वर के प्रति मेरी श्रद्धा प्रतिदिन बढ रही है और जीवन के प्रत्येक प्रसंग और कार्य में मैं उनका आस्तत्व अनुभव करती हूं । आज मैं अपनेआप से द्वेष नहीं, अपितु प्रेम करती हूं, क्योंकि मेरी अंतरात्मा ही ईश्वर है और मैं ईश्वर से उत्कट प्रेम करती हूं ।

मैं अपने आपको ईश्वर के चरणों में समर्पित करती हूं ।

‘‘जीवन एक अतिथि जैसा व्यतीत करें जिससे मृत्यु के समय अप्रसन्नता नहीं होगी और किसी अतिथि को घर छोडते समय जिस प्रकार प्रसन्नता होती है, वैसा अनुभव आपको भी होगा ।’’- प.पू. डॉ. आठवले

– श्रीमती सिलविया दातोली, ला पाज, बोलीविया – दक्षिण अमेरिका.