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१. प्रस्तावना

सत्संग यह शब्द ‘सत्’ और ‘संग’ इन दो अक्षरों के संयोजन से बना है । ‘सत्’ का अर्थ है परम सत्य अथवा ईश्वरीय तत्व । ‘संग’ का अर्थ है संगत । सत्संग का शब्दार्थ है, सदा ईश्वर की संगत में रहना अथवा ईश्वर में मग्न होना ।

यदि हम संतों के संगत में रहे, उनके अमूल्य मार्गदर्शन सुनें और उनकेद्वारा बताए निर्देशों का पूर्णतः पालन करें तब यह कहा जाता है कि हम संतों के सत्संग में हैं ।

संतों के सत्संग में रहना अथवा संतों की संगत में रहना, यह स्थूल सत्संग का उच्चतम प्रकार है क्योंकि संत ईश्वर के सगुण रूप होते हैं ।

२. ईश्वर और संत

संत ईश्वर का सगुण रूप होते हैं, इसीलिए संतों के साथ सत्संग ईश्वर के साथ सत्संग के समान है । संत ज्ञान के सागर समान हैं, इसलिए यदि हम उनके पास सीखने की वृत्ति से जाते हैं तब हमें अवश्य लाभ होगा ।

अनेक कार्यों में से संत का एक विशेष कार्य है लोगों को उनके खरे दिव्य स्वरूप अथवा आनंद को अनुभव करने हेतु मार्गदर्शन करना । तथापि, संतों में विद्यमान ईश्वरीय तत्व अथवा दैवीय तत्व अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण अधिकांश साधक इसे समझ नहीं पाते । क्योंकि संत को पहचानने के लिए आवश्यक सूक्ष्म को समझने की क्षमता साधक में नहीं होती । इसलिए, अधिकांश साधक संतों के स्थूल विशेषताओं जैसे उनके व्यवहार, रूप, वक्तृत्व कला, आदि पर अधिक ध्यान देते हैं । विभिन्न संतों की स्थूल विशेषताएं स्वाभाविक रूप से भिन्न होने के कारण, साधक प्राय: विभिन्न संतों में तुलना करते हैं और ये संत अन्य संतों से श्रेष्ठ हैं, ऐसा सोचते हैं । तथापि, प्रत्येक संत को यथोचित आदर देने में सक्षम होने के लिए तथा उनके दर्शन अथवा मार्गदर्शन से अधिकतम आध्यात्मिक लाभ सुनिश्चित करने के लिए, यह समझ लेना आवश्यक है कि सभी संतों में प्रकट होनेवाला ईश्वरीय तत्व एक ही है ।

३. संतों की उपस्थिति में कैसे व्यवहार करें

संतों का सान्निध्य स्थूल सत्संग का सर्वश्रेष्ठ प्रकार है । संत के प्रति अपनी वृत्ति और व्यवहार के अनुरूप व्यक्ति सत्संग का लाभ ग्रहण करता है ।

३.१ संत के पास इस भाव से जाना चाहिए कि वे संत स्वयं ईश्वर का रूप हैं । तद्नुसार संतों के प्रति आदर से व्यवहार करना चाहिए । उदा. संतों से मिलने पर उन्हें नमस्कार करने के लिए स्वयं को उनके चरणों में समर्पित कर रहे हैं इस भाव से उनके चरणों पर अपना शीश रखना चाहिए । और ऐसा करने से संत के चरणों से प्रक्षेपित होनेवाली आनंद की तरंगें अधिकतम मात्रा में ब्रह्मरंध्र के माध्यम से व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर सकती हैं ।

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३.२ संतों की उपस्थिति में अधिकाधिक नामजप करना चाहिए । संत का ध्यान केवल हमारी साधना और ईश्वर तक पहुंचने के हमारे प्रयासों में होता है ।

३.३ संतों की उपस्थिति में नम्रतापूर्वक में बोलना चाहिए ना कि उंचे स्वर में अथवा आवेश में ।
३.४ उनकी परीक्षा लेने हेतु कभी प्रश्न नहीं करना चाहिए । यदि कोई संत की परीक्षा लेने का प्रयत्न करता है, तब यह उस साधक में स्वयं को श्रेष्ठ समझने की भावना को दर्शाता है और इससे संतों से कुछ सीखने की वृत्ति में अथवा उनकी कृपा प्राप्त करने में बाधा उत्पन्न होती है ।

३.५ संत विभिन्न प्रकार से सिखाते हैं उदा. उनके शब्दों से , कृत्यों से, उद्धरण देकर, विनोद से, परीक्षा लेकर, अनुभूतियां से इत्यादि । इसलिए उनकी सीख को अधिकतम मात्रा में आत्मसात करने हेतु व्यक्ति को सदा अपने सीखने की वृत्ति को बनाए रखना चाहिए । साथ ही, व्यक्ति को संत द्वारा प्रदत्त सीख का अध्ययन करने, समझने और उसका पालन करने हेतु निष्ठा से प्रयास करने चाहिए । संत केवल उन्हीं का मार्गदर्शन करते हैं जो उनकी सीख का पालन करते हैं ।

३.६ कभी-कभी संत हमें डांटते-फटकारते हैं अथवा गाली देते हैं, परंतु हमें उससे दुखी अथवा अपमानित अनुभव नहीं करना चाहिए अपितु हमें सुधारने के लिए संत कितना परिश्रम करते हैं, इसके लिए उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए । हमें यह भान होना चाहिए कि उनका सुधारने का उद्देश्य हमें सिखाना तथा प्रायः हमारा अहं नष्ट करना होता है । और जैसा उन्हें अपेक्षित है, उसका अध्ययन कर उससे सीखना चाहिए और विचार करना चाहिए कि हम उन्हें अपेक्षित सुधार कैसे कर सकते हैं । संत केवल साधक की आध्यात्मिक प्रगति के लिए ही उसे डांटते-फटकारते हैं ।

३.७ संत के दर्शन हेतु जाते समय व्यक्ति के मन में किसी भी प्रकार की अपेक्षा विशेष रूप से सांसारिक अपेक्षा नहीं होनी चाहिए, भले ही कुछ संत सांसारिक विषयाें पर प्रतिसाद अथवा आशीर्वाद दें । यह महत्वपूर्ण है कि संत दर्शन हेतु आध्यात्मिक भाव से जाएं । जिससे केवल सांसारिक लाभ हेतु आर्शीवाद प्राप्त करने की अपेक्षा साधना के लिए मार्गदर्शन और आशीर्वाद प्राप्त हो ।

३.८ व्यक्ति को संत सेवा के प्रत्येक अवसर का लाभ लेना चाहिए, क्योंकि यह अवसर ईश्वर के प्रकट स्वरुप की सेवा करने का है । जैसे अध्यात्म प्रसार करना (जो र्इश्वर की निर्गुण रूप की सेवा है), संत की सेवा करना साधक की आध्यात्मिक प्रगति के लिए महत्वपूर्ण है ।

४. संतों के साथ सत्संग के लाभ

४.१ साधना के लिए आशीर्वाद और व्यक्तिगत मार्गदर्शन प्राप्त होना

संत अपेक्षारहित प्रीति के प्रतीक हैं और उनका ध्यान केवल ईश्वर प्राप्ति की तीव्र इच्छावाले साधक की आध्यात्मिक प्रगति पर होती है । संत सत्संग में साधकों का व्यक्तिगत स्तर पर मार्गदर्शन करते हैं । उन्हें निश्चित रूप से ज्ञात होता है कि उस साधक की प्रगति के लिए क्या आवश्यक है और इसलिए वे यथोचित साधना हेतु उसका मार्गदर्शन करते हैं । जो साधक संत द्वारा बताए गए निर्देशों को आज्ञापूर्वक पालन करते हैं, उस पर उनकी कृपा की वर्षा होती है और वह आध्यात्मिक पथ पर आगे बढता है ।

अध्यात्म में शीघ्रता से प्रगति करने के लिए अत्यावश्यक है कि संतद्वारा दी गर्इ आज्ञा को अविलंब तथा अपेक्षा से रहित होकर पूर्ण करना । आज्ञापालन का अर्थ है दिए गए मार्गदर्शन को अविलंब, परिपूर्ण तथा बिना अपेक्षा के स्वीकार कर उसका पालन करना । यदि आज्ञापालन परिपूर्ण होता है तब सर्वाधिक लाभ प्राप्त होता है । साधना की प्रारंभिक अवस्था में साधक पूर्ण रूप से आज्ञापालन करने में असमर्थ हो सकता है; इसलिए जितना संभव हो सके उतना पालन करने का प्रयास करना चाहिए । यदि निर्देश न समझ आए अथवा सहमत न हो अथवा उसका पालन करने में असमर्थता लगे, तब भी व्यक्ति को संत द्वारा दिए गए निर्देश का पालन करना चाहिए क्योंकि संत ने ऐसा करने के लिए कहा है । इसप्रकार साधक के मन का लय होता है तथा परिणामस्वरूप साधक ईश्वर के वैश्विक मन से जुडने में सक्षम होता जाता है और अधिक आनंद अनुभव करता है ।

४.२ चैतन्य आत्मसात करना

संत चैतन्य के भंडार होते हैं । उनके संपर्क में आनेवाले लोग, वस्तुएं तथा आसपास का वातावरण उनकी उपस्थिति मात्र से सात्विकता से  ओत-प्रोत हो जाते हैं । संतों द्वारा उपयोग की गर्इ अनेक वस्तुएं सूक्ष्म सकारात्मक परिवर्तन प्रदर्शित कर रही हैं ।

संतों के साथ सत्संग के समय, वातावरण सात्विकता से भर जाता है, अत: उपस्थित साधक संतों से प्रक्षेपित होनेवाली सात्विकता और चैतन्य आत्मसात करते हैं और फलस्वरूप संत की संगत में साधक की सात्विकता में वृद्धि होती है ।

४.३ आध्यात्मिक उपचार

यह ध्यान में आया है कि संतों के साथ सत्संग में अनिष्ट शक्तियों से आविष् अथवा प्रभावित साधक में विद्यमान अनिष्ट शक्ति का प्रकटीकरण होने लगता है । क्योंकि अनिष्ट शक्तियां संत से प्रक्षेपित होनेवाली वृद्धिंगत सात्विकता सहन नहीं कर सकतीं । संत की सात्विकता और अनिष्ट शक्ति के रज-तम में युद्ध होता है और उसका परिणाम आविष्ट करनेवाले जीव के प्रकटीकरण के रूप में होता है । जब आविष्ट करनेवाले जीव प्रकट होता है, उसकी काली शक्ति क्षीण होती है जिसके परिणामस्वरूप साधक की सहायता होती है ।

४.४ संचित और प्रारब्ध संतों की कृपा से टल हो जाता है

जब भी हम संत दर्शन हेतु जाएं, हमें कुछ दान करना चाहिए । संत ईश्वर का सगुण रूप होते हैं, इसलिए संतों को अथवा उनके अध्यात्म प्रसार के कार्य हेतु धन अर्पण करने से व्यक्ति का संचित घटता है और प्रारब्ध सहन करने के सामर्थ्य में वृद्धि होती है । इसलिए जब भी संभव हो, दान देने का अवसर प्राप्त होने पर कृतज्ञता भाव रखकर संत अथवा उनके कार्य में सहायता कर रहे हैं, इस अहं से मुक्त होकर संतों को अर्पण करना चाहिए ।

४.५ आध्यात्मिक प्रगति होती है

सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जब हम संतों के साथ नियमित सत्संग में होते हैं, तब उपरोक्त सर्व सूत्रों से हमारी आध्यात्मिक प्रगति होती है । तद्नुसार साधक को साधना करने हेतु अधिकाधिक प्रयास करना चाहिए, जिससे वह संत के सत्संग में रह पाने हेतु उनकी कृपा प्राप्त कर सके ।