1-HIN-Past-Lives-influence-on-Subconscious-mind-and-Personality

१. मन के आध्यात्मिक पहलू की प्रस्तावना

एक ही परिस्थिति में अलग लोग अलग वर्त्तन क्यों करते हैं, इसे समझने में व्यक्ति के मन का आध्यात्मिक पक्ष एक महत्वपूर्ण पहलू है । किसी परिस्थिति में व्यक्ति कैसे वर्त्तन करेगा, कभी-कभी यह उसके स्वभाव से विपरीत हो सकता है । यह सिद्धांत आधुनिक मनोविज्ञान को अज्ञात है, जिसके कारण व्यक्ति की वास्तव में सहायता करने में इसकी प्रभावकारिता सीमित हो जाती है ।

२. पिछले जन्म अवचेतन मन तथा व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं

तो मन आध्यात्मिक आयाम से कैसे प्रभावित होता है ? हमने अपने अन्य ट्यूटोरियल में मन कैसे कार्य करता है, यह विस्तार से समझाया है । मन को विस्तार से जानने के लिए, हम निम्नलिखित ट्यूटोरियल देखने का सुझाव देते हैं :

2-HIN-Mind  3-HIN-Destiny-Tutorial  4-HIN-Why-we-do-the-things-we-do

मनुष्य अनेक पहलुओं से मिलकर बना होता है । वे हैं स्थूल देह, प्राणशक्ति, मन, बुद्धि, सूक्ष्म देह तथा आत्मा । आत्मा है जो प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान ईश्‍वर है । मन हमारे विचारों, भावनाओं तथा इच्छाओं का घर है तथा यह हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित करनेवाला सर्वाधिक शक्तिशाली घटक है । मनुष्य का मन दो भागों से मिलकर बना होता है :

बाह्य मन : यह हमारे विचारों तथा भावनाओं का वह भाग होता है जिसकी हमें जानकारी होती है । यद्यपि यह हमारे मन का १० प्रतिशत भाग ही होता है । बाह्य मन पूर्णतः अवचेतन मन से नियंत्रित होता है । यह अवचेतन मन के लिए दुकान के अग्रभाग के समान है ।

अवचेतन मन : अवचेतन मन में इस जन्म में तथा विगत जन्मों में निर्मित अथवा घटनाओं से परिवर्तित असंख्य संस्कार होते हैं । उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति में प्रतिशोध लेने का संस्कार, उसके प्रतिशोध लेने की गहरी सोच के कारण हो सकता है, जो उसके इस जीवनकाल में अथवा किसी पूर्व जन्म में घटित विशेष प्रसंगों से निर्मित तथा दृढ हुए हो सकते हैं ।

अवचेतन मन के संस्कारों के कारण उत्पन्न विचार बाह्य मन पर किसी बाह्य कारणों (उद्दीपनों) की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति में भी उसे प्रतिसाद देने हेतु निरंतर आघात करते रहते है । किसी के मन में नकारात्मक संस्कार जैसे क्रोध, घृणा तथा ईर्ष्या के संस्कार जितने दृढ रहेंगे उसका बाह्य मन उतना अधिक नकारात्मक विचारों से भरा रहेगा । जो व्यक्ति को निरंतर नकारात्मक तथा दुःख की स्थिति में धकेल देगा ।

व्यक्ति के स्वभावदोषों के लिए पूर्व के जन्मों का योगदान योगदान की प्रतिशत मात्रा
पूर्व के १००० जन्म ३० प्रतिशत
पूर्व के ७ जन्म ६१ प्रतिशत
वर्तमान जीवन ९ प्रतिशत
कुल १०० प्रतिशत

चलिए किसी व्यक्ति के वर्तमान जीवनकाल में उसके क्रोध के स्वभावदोष का उदाहरण लेते हैं । एक नन्हा बालक भी, क्रोधावेश के रूप में क्रोध प्रदर्शित कर सकता है । यहां यह ध्यान देने की बात है कि क्रोध का स्वभावदोष अकस्मात इसी जीवनकाल में ही आरंभ नहीं हुआ । अपितु, यह एक संस्कार है जो अनेक जन्मों से अधिक दृढ होता चला आ रहा है ।

  • व्यक्ति के क्रोध के स्वभावदोष का ३० प्रतिशत कारण यह होता है कि उसने पिछले १००० जन्मों में विभिन्न परिस्थितियों में क्रोध से प्रतिक्रिया देते हुए अपने स्वभाव दोष को उसने कैसे बढाया है । क्रोध को न्यून करने हेतु गंभीरता से प्रयास न करने के कारण, उसे अनेक जन्मों से अनियंत्रित रूप से बढने की अनुमति मिलती गई ।
  • व्यक्ति के पूर्व के ७ जन्म उसके अंतर्मन में क्रोध का स्वभावदोष और अधिक दृढ होने में ६१ प्रतिशत उत्तरदाई होते हैं ।
  • अतः, वर्तमानजीवन में जन्म के समय, उस व्यक्ति में क्रोध का स्वभाव दोष पहले से ही गहरा होगा । जैसे-जैसे व्यक्ति अपने जीवन में बढता है, उसके जीवन में ऐसी अनेक परिस्थितियां आ सकती हैं जिसमें उसका क्रोध भडक सकता है, और फलस्वरूप स्वभावदोष की प्रवृत्ति और अधिक दृढ होती जाती है । व्यक्ति में क्रोध का स्वभावदोष कैसे जागृत हुआ इसके लिए क्रोध की इस प्रकार की सभी प्रतिक्रियाएं केवल ९ प्रतिशत ही उत्तरदायी होती है । औसतन, किसी के भी स्वभाव दोषों की प्रवृति का ९१ प्रतिशत पूर्व के जन्मों के कारण होता है ।

अंतर्मन के संस्कारों के कारण निर्मित विचार, किसी बाह्य संवेदना की प्रतिक्रिया के रूप में अथवा उसकी अनुपस्थिति में भी, बाह्यमन पर निरंतर चालू रहते हैं । व्यक्ति में नकारात्मक संस्कार जैसे क्रोध, द्वेष, तथा ईर्ष्या जितने प्रबल होंगे, उतनी ही अधिक उसके बाह्यमन पर नकारात्मक विचारों की बौछार होगी, जो उसे नकारात्मकता तथा दुःख की एक स्थिर अवस्था में छोड देती है ।

अवचेतन मन में हमारे वर्त्तमान जीवनकाल के प्रारब्ध को पूण करने हेतु आवश्यक सभी संस्कार भी विद्यमान रहते हैं । वैसे संस्कार लेन-देन केंद्र से जुडे रहते हैं, इस केंद्र में व्यक्ति के जीवन में प्रारब्ध के कारण निश्चित घटनाओं की प्रविष्टि (पिछले जन्मों के कारण) रहती है । व्यक्ति के लेन-देन अथवा प्रारब्ध के आधार पर, मन में विद्यमान लेन-देन का केंद्र ही निश्चित करता है कि व्यक्ति अपने जीवन की घटनाओं तथा परिस्थितियों का किस प्रकार प्रतिसाद देता है । प्रारब्ध का भाग हमारे नियंत्रण से परे है । इस जन्म में अथवा पूर्व जन्मों में हमारे द्वारा अर्जित पाप तथा पुण्य के कारण प्रारब्ध हमारे सुख अथवा दुख को नियंत्रित करता है । आध्यात्मिक शोधों के द्वारा हमें ज्ञात हुआ है कि वर्त्तमान युग में लगभग ६५ प्रतिशत हमारा जीवन पूर्वनिर्धारित होता है । इसलिए जिस प्रारब्ध को साथ लेकर हम जन्म लेते हैं, हमारे सुख अथवा दुःख भोगने में उसका बडा प्रभाव होता है । हमारे जीवन में मानसिक वेदना के प्रमुख कारणों में से एक है हमारे स्वभाव दोष (जो हमारे नकारात्मक प्रारब्ध को अपना खेल खेलने देता है)।

यदि हमारा किसी व्यक्ति के साथ लेन-देन नहीं हो, तब भी स्वभाव दोष ऐसे अनुचित कृत्य करवा सकते है, जिससे अन्यों को कष्ट हो और इस प्रकार नया नकारात्मक कर्म अथवा नकारात्मक लेन-देन का निर्माण हो जाता है । यदि हम किसी को दुःख देते हैं तब कर्म के नियम के अनुसार हमें भी वर्त्तमान जन्म में अथवा अगले जन्म में उसी मात्रा में दुःख भोगना ही पडता है ।

३. पिछले जन्मों से हमारे साथ रह रहे स्वभाव दोषों का अनिष्ट शक्तियां लाभ उठाती हैं

आध्यात्मिक आयाम की अनिष्ट शक्तियां प्रायः हमारे स्वभाव दोषों का उपयोग अपने लाभ के लिए करती हैं । यह विशेषतः उन लोगों के साथ होता है जो अनिष्ट शक्तियों से आविष्ट होते हैं । मान लीजिए कि किसी का क्रोध एक विशेष परिस्थिति में ५ इकाई होता है, अनिष्ट शक्ति इसे ९ से १० इकाई तक बढा सकती है । इस प्रकार परिस्थिति के अनुपात में उसकी प्रतिक्रिया असमान कर प्रसंग को सामान्य से और भी बुरा कर देती है । उदाहरण के लिए, पति-पत्नी के एक गंभीर वाद-विवाद में अनिष्ट शक्तियां उनके स्वभाव दोषों का लाभ उठा सकती हैं और उनसे क्रोध के आवेश में ऐसी अनावश्यक बातें कहलवा सकती हैं कि उनका संबंध बिगड जाता है । स्वभाव दोष मन की दुर्बलताएं होती हैं (जो पिछले कई जन्मों में निर्मित होते रहती हैं)जिसके माध्यम से अनिष्ट शक्तियां हमें प्रभावित कर सकती हैं तथा हम पर अपनी पकड दृढ कर सकती हैं ।

यहां समझने के लिए मुख्य बात यही है कि मुख्यतः हमारे स्वभाव दोषों जैसे क्रोध तथा अपेक्षाओं के कारण ही हम पूर्वनिर्धारित प्रारब्ध के कष्ट को पूर्णता से भोगते हैं । यह हमारे इस जीवनकाल के अथवा पिछले जन्मों के पाप के कारण होता है । अपने स्वभाव दोषों के कारण हम नए नकारात्मक लेन-देन भी निर्मित कर सकते हैं ।