HIN-Guruprasad

सारांश : श्री. गुरुप्रसाद बापट को अपने मनोग्रसित बाध्यता विकार (ओ.सी.डी.) पर विजय प्राप्त करने के लिए कोर्इ भी चिकित्सीय उपाय प्राप्त नहीं हो सका । जब उन्होंने अपने चिकित्सकीय उपचारों के साथ आध्यात्मिक उपचारों को भी आरंभ किया, तब उन्हें विलक्षण सुधार अनुभूत हुए । अब वे अपना दैनिक जीवन में सकारात्मक दृष्टिकोण से व्यतीत करने में सक्षम हैं । यह प्रकरण अध्ययन उनके ही शब्दों में यहां दिया गया है ।

SSRF द्वारा प्रकाशित प्रकरण-अध्ययनों (केस स्टडीस) का मूल उद्देश्य है, उन शारीरिक अथवा मानसिक समस्याओं के विषय में पाठकों का दिशादर्शन करना, जिनका मूल कारण आध्यात्मिक हो सकता है । यदि समस्या का मूल कारण आध्यात्मिक हो, तो यह ध्यान में आया है कि सामान्यतः आध्यात्मिक उपचारों का समावेश करने से सर्वोत्तम परिणाम मिलते हैं । SSRF शारीरिक एवं मानसिक समस्याओं के लिए इन आध्यात्मिक उपचारों के साथ ही अन्य परंपरागत उपचारों को जारी रखने का परामर्श देता है । पाठकों के लिए सुझाव है कि वे स्वविवेक से किसी भी आध्यात्मिक उपचारी पद्धति का पालन करें ।

१. प्रस्तावना

मेरा नाम श्री गुरुप्रसाद बापट है एवं मैं दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य के बेलगांव नगर का निवासी हूं । मैं संगणक विज्ञान का प्रशिक्षण देनवाले एन.आर्इ.आर्इ.टी. (NIIT) में संगणक प्रशिक्षक हूं । अभी मेरी आयु ३१ वर्ष है तथा मैं SSRF के मार्गदर्शन में वर्ष २००६ से साधना कर रहा हूं । वर्तमान में मैं SSRF के आध्यात्मिक शोध केंद्र में पूर्णकाल साधना करता हूं । साधना में आने से पहले मैं अनेक शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्याओं से ग्रस्त था । साधना आरंभ करने के पश्चात ही मेरी समस्याओं में सुधार होना प्रारंभ हुआ । अनेक समस्याओं में से मेरी एक समस्या थी, मनोग्रसित बाध्यता विकार (ओ.सी.डी.)।

मनोग्रसित बाध्यता विकार, एक चिंतासंबंधी विकार है, जिसमें रोगी बारंबार अवांछित विचार, कल्पना, अनुभूति, बोध अथवा व्यवहार से ग्रस्त होकर विशिष्ट व्यवहार करने के लिए बाध्य हो जाता है । (संदर्भ: ए.डी.ए.एम. मेडिकल एनसाइक्लोपीडिया)

२. मनोग्रसित बाध्यता विकार ने मेरे दैनिक जीवन को कैसे प्रभावित किया

किसी भी कृत्य को करने के उपरांत मेरे मन में संशय उत्पन्न होता कि मैंने वह कृत्य उचित ढंग से किया है अथवा नहीं । मेरे मन को समाधान न मिलने के कारण मैं वही कृत्य पुनः-पुनः करता । उदाहरण के लिए, यह सुनिश्चित करने के लिए कि पानी का नल टपक तो नहीं रहा है, उसे पुनः-पुनः बंद करता ।

अन्य कृत्यों के साथ भी ऐसा ही होता । उदाहरण के लिए, किसी स्थान से प्रस्थान करते समय मुझे संशय होता कि मैंने अपनी सभी आवश्यक वस्तुएं ले लीं हैं अथवा नहीं । यद्यपि कोर्इ वस्तु वहां छूटी नहीं होती तथापि मैं वापस जाकर उस स्थान का निरीक्षण करता । चादर की घडी करने के पश्चात मुझे लगता क्या मैंने उसे योग्य प्रकार से घडी किया है, इसलिए मैं उसे पुन: खोलता एवं कर्इ बार घडी करता ।

इन कृत्यों के फलस्वरूप मेरा आत्मविश्वास न्यून हो गया, क्योंकि मैं भली प्रकार समझता था कि दूसरे ऎसा नहीं करते । कर्इ वर्षों तक औषधोपचार करवाने के उपरांत भी उससे मुझे लाभ नहीं हुआ । जब यह मेरे प्रत्येक कृत्य के साथ होने लगा तब मेरी परिस्थिति और गंभीर हो गर्इ ।

३. निर्णायक मोड – जब आध्यात्मिक उपचारों ने मेरे मनोग्रसित बाध्यता विकार के निवारण हेतु उपाय दिए

ठीक उसी समय जब मुझे लगता था कि अब मेरे पास कोर्इ अन्य मार्ग शेष नहीं है, मैं SSRF की साधिका डॉ. (श्रीमती) आशा ठक्कर, जो व्यवसाय से स्वयं एक मानसोपचार चिकित्सक हैं, के संपर्क में आया । उन्होंने मुझे साधना प्रारंभ करने तथा साथ ही अपनी प्रत्येक कृत्य को भाव वृद्धि के प्रयत्नों के साथ करने का सुझाव दिया । जब मैं र्इश्वर से प्रार्थना करता तब मैं इस दृष्टिकोण को ध्यान में रख कर प्रयत्न करता कि मैं उन्हें सहायता के लिए पुकार रहा हूं तथा उनसे कहता कि ‘‘हे प्रभु मुझसे होनेवाले प्रत्येक कृत्य आप ही मुझसे करवा रहे हैं, ऐसा भाव रहने दीजिए । इस दृष्टिकोण के फलस्वरूप मेरे समक्ष यह प्रश्न ही नहीं रहा कि वे योग्य ढंग से हो रहा है अथवा नहीं क्योंकि र्इश्वर द्वारा किए गए किसी भी कृत्य में त्रुटि नहीं होती । अत: किसी भी कृत्य को पुनः करने की अब आवश्यकता ही नहीं थी ।

एक अन्य लाभ मुझे यह हुआ कि किसी भी कृत्य को पुनः-पुनः न करने के फलस्वरूप समय की बहुत बचत होने लगी । जो मैं २० वर्षों में नहीं कर सका वह मैंने मात्र कुछ दिनों में ही साध्य कर लिया । उस दिन के उपरांत मैं अपने अंतर में विद्यमान र्इश्वर से यह प्रार्थना करता हूं कि वे मुझसे प्रत्येक कृत्य करवा लें एवं इससे मुझे अंतर में आनंद की अनुभूति होती है ।

संपादक की टिप्पणी : श्री गुरुप्रसाद का मनोग्रसित बाध्यता विकार का मूल कारण १० प्रतिशत शारीरिक, २० प्रतिशत मानसिक एवं ७० प्रतिशत आध्यात्मिक था । चूंकि आध्यात्मिक मूल के विकार का उपचार केवल आध्यात्मिक उपाय से ही संभव है अत: जो परंपरागत पद्धति के उपाय से २० वर्षों में साध्य न हो सका वह साधना से कुछ ही दिनों में ठीक हो गया ।

४. मनोग्रसित बाध्यता विकार का एक आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य

वे क्षण अभी भी मेरी स्मृति में हैं, वर्ष २००६ में जब परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी कुछ साधकों से उनकी साधना के संबंध में भेंट कर रहे थे । एक साधिका ने तब उन्हें बताया कि वह मनोग्रसित बाध्यता विकार से ग्रस्त है एवं उसे विकार के कारण अति मानसिक कष्ट भी होता है । साधिका सोचती थी कि चूंकि अन्य साधकों को इस प्रकार की समस्या नहीं है, इसलिए उसकी आध्यात्मिक उन्नति अन्य साधकों जैसी नहीं होगी । इस कारण वह निराशा की स्थिति में चली गर्इ ।

परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी ने उससे कहा कि ‘आप इस मानसिक विकार का उपयोग अपनी साधना से लाभ प्राप्त करने के लिए कर सकती हैं । इस विकार के कारण आपके मन में पुनः-पुनःविचार की पुनरावृत्ति होती है, इसलिए जब भी विचार आए तब र्इश्वर को स्मरण करें तो आपको उससे अनन्य लाभ होगा । इस प्रकार यह परिस्थिति आपकी साधना में सकारात्मक पक्ष होगा ।’

उन्होंने जो शब्द साधिका से कहे वे इन वर्षों में मेरे स्मृति में अंकित हो गए तथा मुझे उनसे अत्यधिक सहायता मिली । मात्र साधना एवं भाव जागृति हेतु किए गए प्रयासों के फलस्वरूप मुझे अपने असाध्य विकार को इतने अल्प काल में नियंत्रित करना संभव हुआ । मैं आशा करता हूं कि जो लोग मेरी जैसी स्थिति से ग्रस्त हैं वे साधना करने के लिए प्रेरित होंगे एवं अपनी समस्याओं का आध्यात्मिक समाधान प्राप्त कर सकेंगे । मैं परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी के प्रति अपनी अनन्य कृतज्ञता समर्पित करता हूं ।