पितृदोष (अतृप्त पूवजों से उत्पन्न समस्याएं) : प्रकरण-अध्ययन

अपने पाठकों को दिशा देने के लिए SSRF ऐसी शारीरिक अथवा मानसिक समस्याओं के विषय में आध्यात्मिक शोध प्रकाशित करता है जिनका मूल कारण आध्यात्मिक होता है । यह ध्यान में आया है कि जब भी किसी समस्या का मूल कारण आध्यात्मिक होता है, तो उसे दूर करने के लिए आध्यात्मिक उपायों से सर्वश्रेष्ठ परिणाम मिलते हैं । SSRF का मत है कि शारीरिक अथवा मानसिक रोगों को दूर करने के लिए आध्यात्मिक उपायों के साथ पारंपरिक चिकित्सकीय उपचार भी जारी रखे जाएं । पाठकों को सुझाव दिया जाता है कि वे स्वविवेक से आध्यात्मिक उपचार विधियों का चयन करें ।

कुलाचार का (पारिवारिक परंपराओं का) पालन नहीं करने से उत्पन्न पितृदोष (मृत पूर्वजों द्वारा उत्पन्न समस्याएं

२८ फरवरी २००३ तक,  भारत निवासी एक साधक, महेश, अपने जीवन में विभिन्न समस्याओं का सामना कर रहा था, जैसे पढार्इ में रुकावटें, परिवार से अनबन इत्यादि । साधना आरंभ करने के पश्‍चात वह मुंबई के उपनगर, ठाणे स्थित अध्यात्मशास्त्र शेाध संस्था ( SSRF) के केंद्र में रहने लगा । साधनाकाल में उसने यह पाया गया कि उसके स्वभाव में अचानक ही अविश्‍वसनीय परिवर्तन हो जाता है । वह अपने स्वभाव के विपरीत अनियंत्रित रूप से उग्र होकर अपना आपा खो देता है और कोलाहल करने लग जाता है, जैसे वह भूतावेशित हो तथा किसी और के नियंत्रण में हो । सूक्ष्म-ज्ञान रखनेवाले साधकों ने आध्यात्मिक उपचार के लिए इस साधक को भारत के ही एक अन्य नगर पनवेल में स्थित SSRF  के आश्रम में भेजा, जिससे वह अपनी समस्याओं के मूल कारण तक पहुंच पाए । शीघ्र ही यह पता चला कि उसके पूर्वज का भूत ही उसके कष्टों का मूल कारण था ।

निम्नलिखित सार में प्रकटीकरण के समय उस भूत तथा उससे बात करने की क्षमता रखनेवाले SSRF के साधकों के मध्य हुई वार्ता का एक अंश है ।

टिप्पणी : यह पूवजों द्वारा वंशजों को आवेशित कर उनके माध्यम से संवाद करने के अनेक प्रकारों में से एक प्रकार है ।

पूर्वजकी सूक्ष्म देह : मैं इसके पिता का चचेरा भाई हूं । मुझे खारेश्‍वर में (हिन्दुस्थान में एक मंदिर) छोड दो ।

साधक: खारेश्‍वर में क्या है ?

पूर्वजकी सूक्ष्म देह : मैंने इसे खारेश्‍वरमें पकडा था, इसलिए मैं इसे वहीं छोड सकता हूं । आपके प.पू. डॉ. जयंत आठवले ने मुझसे इसे छोड देने को कहा है । मुझे उनकी बात मानने की इच्छा हो रही है ।

टिप्पणी: प्रत्येक भूत पीडित व्यक्ति को छोडने के लिए भिन्न-भिन्न मांग रखता है । हर बार उनकी मांग का कारण ज्ञात करना कठिन होता है । इस प्रकरण में क्योंकि भूत से छोडकर जाने के लिए कहा गया है तथा पीडित व्यक्ति को पकडने के स्थान पर ही छोडने से, पीडित एवं उसके परिजनों से भूत का लेन-देन पूर्ण होता है और चक्र पूरा होता है जैसे किसी पाप को भोगकर समाप्त करना ।

साधक : आप इसे क्यों कष्ट दे रहे हैं ?

पूर्वज की सूक्ष्म देह : क्योंकि इसके परिवार का कोई भी व्यक्ति खारेश्‍वर जाकर भगवान शिव (लय के देवता) के पूजन की पारिवारिक परंपराओं का पालन नहीं करता जिस कारण मुझे प्रेत योनि से मुक्ति नहीं मिल रही । जब वे परंपरा का अनुसरण नहीं कर रहे हैं, तो मैं क्यों उन्हें जीवित रहने दूं ? मैं इस परिवार को नष्ट कर देना चाहता हूं ।

 टिप्पणी : मरणोपरांत पुनर्जन्म होने तक सूक्ष्म देह अपने बनाए लेन-देन के अनुसार अस्तित्त्व के विभिन्न स्तरों में भ्रमण करती है । प्राय: वे किसी स्तर विशेष में अटक जाती हैं तथा ऊर्जा एवं क्षमता के अभाव में आगे के स्तरतक नहीं जा पाती । ये आत्माएं अथवा भूत अपने जीवित वंशज के आध्यात्मिक प्रयासों के फलस्वरूप उच्चतर स्तर तक पहुंचने के लिए अपेक्षित शक्ति प्राप्त करते हैं । अत: यदि उनके वंशज ऐसा आध्यात्मिक प्रयास नहीं करते हैं तो उनके मृत पूर्वज पूरे परिवार को कष्ट देकर ऐसा करने को विवश करते हैं । इसे ही पितृदोष अथवा मृत पूर्वजों के कष्ट कहते हैं ।

साधक : आप इतना उपद्रव एवं कोलाहल क्यों करते हैं ?

पूर्वजकी सूक्ष्म देह : क्योंकि मैं इस आश्रम में नहीं रह सकता । मुझे खारेश्‍वर में छोड आओ । मुझमें इतना सामर्थ्य नहीं है कि मैं इसे  इस आश्रम में मुक्त कर पाऊं ।

टिप्पणी : उपरोक्त संदर्भ के अनुसार प्रत्येक भूत पीडित व्यक्ति को मुक्त करने के लिए विभिन्न प्रकार की विशिष्ट मांगें रखता है । इस प्रसंग में भूत साधक को मुक्त नहीं कर पाया क्योंकि आश्रम की सात्त्विकता अति उच्च स्तर की होने के कारण भूत की समस्त शक्ति क्षीण हो गई थी, अत: पीडित साधक को मुक्त करने की शक्ति शेष नहीं रह गई थी ।

साधक : आपने इसे कब पकडा ?

पूर्वजकी सूक्ष्म देह : जब यह ४ वर्ष का था, मैंने इसे खारेश्‍वर मंदिर में पकड लिया था ।

साधक : आपने इसे कैसे पीडित किया ?

पूर्वज की सूक्ष्म देह : मैंने इसकी लिखावट (handwriting) बिगाड दी (साधक की लिखावट बुरी थी), मैंने इसकी शिक्षा में बाधा डाली । (पीडित साधक अभियांत्रिकी की शिक्षा में एक वर्ष बैठ नहीं पाया । तत्पश्‍चात उसने कठिन परिश्रम किया, तब भी वह असफल रहा । उसने पढाई छोडनी चाही किंतु अन्य साधकों ने उसे पढाई पूरी करने का सुझाव दिया ।) मैंने उसकी मां को कष्ट दिया तथा अन्य साधकों के मन में उसके प्रति शंका उत्पन्न करने का भी प्रयास किया ।

(साधक एवं भूत के मध्य वार्तालाप से पूर्व साधक सदैव कहा करता था, ‘मैं ठाणे वापस जाना चाहता हूं ।)

साधक : ठाणे में क्या है ?

पूर्वज की सूक्ष्म देह : मैं इसे ठाणे के SSRF के केंद्र में अधिक पीडित कर सकता हूं किंतु यहां पनवेल के आश्रम में नहीं क्योंकि यहां बहुत अधिक सात्त्विक ऊर्जा है ।

टिप्पणी : पावन परिवेश में भूत को (अनिष्ट शक्तियों को) स्वयं बहुत कष्ट होते हैं । ऐसे स्थानों में पीडित व्यक्ति को कष्ट देने हेतु उनके पास पर्याप्त ऊर्जा अथवा क्षमता नहीं होती ।

साधक : यदि हम इसे खारेश्‍वर ले जाएं तो क्या आप इसे निश्‍चितरूप से छोड देंगे ?

अनिष्ट शक्ति : मैं इसे निश्‍चित ही छोड दूंगा, ‘शपथ खारेश्‍वर की ! (यह बात भूत ने तीन बार कही)

टिप्पणी: भूत बहुधा मिथ्या बोलने हेतु ही जाने जाते हैं क्योंकि सत्य भाषण उनके अन्यों को कष्ट देने के उद्देश्य को बाधित कर सकता है । किंतु कोई प्रेत यदि अपनी बात तीन बार कहता है तो वास्तव में यह उसके सत्य बोलने का दृढ संकेत है ।

साधक : खारेश्‍वर जाते समय यदि आपने इसे कष्ट दिया तो हम इसे लेकर नहीं जा पाएंगे ।

पूर्वज की सूक्ष्म देह : नहीं, मार्ग में मैं उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं दूंगा । किंतु मंदिर में भगवान शिव की पिंडी के सम्मुख शीश झुकाते समय मैं इसे कष्ट दूंगा । (‘मैं मंदिर जाते समय इसे कष्ट नहीं दूंगा तथा इस साधक को पुन: कभी कष्ट नहीं दूंगा, भूत ने यह बात तीन बार कही ।)

२ मार्च २००३ को पीडित साधक को खारेश्‍वर मंदिर ले जाया गया और जैसे ही उसने भगवान शिव के सम्मुख शीश झुकाया, भूत पुन: प्रकट हो गया और उसने यह निम्नलिखित बात कही :

पूर्वज की सूक्ष्म देह : मेरी इच्छा है कि यह साधक प्रति वर्ष दर्शन हेतु इस मंदिर में तथा पवित्र स्थान काशी (भारत का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान) अवश्य जाए । मैंने इसे बहुत कष्ट दिया, इसका मुझे दुख है । प.पू. डॉ. जयंत आठवलेजी को मेरा अभिवादन ! जाते समय मुझे दुख हो रहा है ।

तत्पश्‍चात साधक को हल्का अनुभव हुआ, मानो वह एक बहुत बडे भार से मुक्त हो गया, इसके पश्‍चात उसे कभी किसी प्रकार की पीडा नहीं हुर्इ ।

टिप्पणी: अनेक बार भूत-बाधा दूर करने हेतु किसी संत के संकल्प की आवश्कता पडती है जैसा उपरोक्त उदाहरण में दिखता है । यहां यह रेखांकित करना महत्त्वपूर्ण है कि पीडित साधक के स्वयं की साधना की गुणवत्ता के अनुसार भूत की अंतिम इच्छाओं पर ध्यान देना अनावश्यक भी हो सकता है ।

यह ध्यान रखना अपेक्षित है कि अनिष्ट शक्तियों पर विजय प्राप्त करने हेतु किसी ओझा, तांत्रिक की नहीं अपितु ईश्‍वर के नामजप एवं पूरक साधना की शक्ति ही आवश्यक है जैसा इस साधक के साथ हुआ ।