साधकों में सकारात्मक परिवर्तन – सत्य की खोज

१. प्रस्तावना

१६ तथा १७ वर्ष की आयु के मध्य का काल मेरे लिए अध्यात्म के विषय में जिज्ञासा एक प्रेरक शक्ति के रूप में थी । यहां यह स्पष्ट करना महत्वपूर्ण है कि उस अवस्था में मेरे लिए ‘आध्यात्मिक’ शब्द क्या अर्थ रखता था । उस समय मेरे द्वारा पढे जाने वाले ग्रंथ प्रायः इस विषय के संबंध में होते थे कि जीवन में हमारी सोच किस प्रकार से हमारे स्वास्थ्य तथा खुशियों को प्रभावित करती है । मैं जो पढता था उसे कार्यान्वित भी करता था, तथा उसका परिणाम आता भी प्रतीत होता था । मुझे कुछ अधिक ही प्राप्त हो गया था, किन्तु किसी न किसी प्रकार से मैं पूर्णतया संतुष्ट नहीं भी था; तथा ऐसा क्यों था, मैं यह व्यक्त करने में भी असमर्थ था ! परिणामस्वरूप मैंने गूढ विषयों पर आधारित अनेकों ग्रंथ पढे, जिन्हें मैं उस समय ‘आध्यात्मिक’ के रूप में परिभाषित करता था । तथापि मेरे वर्तमान दृष्टिकोण से, मेरे द्वारा पढे गए समस्त ग्रंथ को सही अर्थों में ‘आध्यात्मिक’ की भांति परिभाषित नहीं किया जा सकता । जिन परामर्शों और सुधारों के संबंध में मैंने पढा था, उन्होंने मुझे केवल भौतिक तथा मानसिक स्तर पर ही लाभान्वित किया ।

यद्यपि जन्म से ही मैं एक रोमन कैथोलिक था, किन्तु इसके उपरांत भी मुझे कभी अपने धर्म अथवा ईश्वर से निकटता अनुभव नहीं हुई । तथापि यह सत्य है कि मेरी शिक्षा ने, जो कि ईसाई मूल्यों पर आधारित थी, मुझे एक अच्छा व्यक्ति बनने के लिए प्रयास करने में बहुत सहायता की ।

उन विषयों में मेरी बहुत अधिक रुचि थी जो आधुनिक विज्ञान की समझ से परे थे । मैंने सम्मोहन अथवा स्वप्न देखने जैसे सभी विषयों को सीखने का प्रयास किया किंतु मुझे सदैव ऐसा लगता था कि कहीं कुछ कमी है । वे विषय मनोरंजक थे किंतु उनमें पूर्णता नहीं थी । यह वह अनुभूति थी जो मुझे धीरे-धीरे जगा रही थी । अतः मैंने जीवन का उद्देश्य खोजना आरंभ किया । इस मार्ग में व्यक्तित्व-विकास एक पडाव था और एक सीमा तक इसने मुझे यह सिखाया कि व्यावहारिक प्रयासों के द्वारा सद्गुणों को आत्मसात करना कितना महत्वपूर्ण होता है । यह भविष्य के लिए बहुत अच्छी सीख थी । किंतु अपने व्यक्तित्व को सुधारने के प्रयास करने पर भी वहां अभी भी कुछ कमी थी जिसे मैं समझ नहीं पा रहा था । मैं सत्य की खोज में था ।

मेरे वर्तमान दृष्टिकोण से यह स्पष्ट है कि इसमें प्रथम एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक आयाम का समावेश होना था, जिससे मैंने अबतक वंचित अनुभव किया था; क्योंकि व्यक्तिगत विकास की अधिकांश पद्धतियां केवल शारीरिक तथा मानसिक स्तरों पर केंद्रित होती हैं तथा उनका उद्देश्य केवल सांसारिक सुखों को प्राप्त करने का एक साधन मात्र होती है । अतः यह पद्धतियां चिरस्थायी सुख अथवा आनंद प्राप्ति हेतु अयोग्य थीं, अतः मैं सत्य को खोजने में लगा रहा ।

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तब ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे सर्वव्यापी गुरु तत्त्व मुझमें तथा मेरी खोज में पूर्णरूपेण सम्मिलित हो गया हो । शीघ्र ही अप्रैल २०१३ में मेरे जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड आया । मेरे कुछ धार्मिक ईसाई मित्रों ने मुझे उनके पूजा समूह में सम्मिलित होने हेतु निमंत्रित किया । यद्यपि उस समय मैं ईश्वर में विश्वास नहीं रखता था किन्तु साथ ही मैं वास्तव में चाहता था कि मैं ईश्वर पर विश्वास कर सकूं । इसलिए मैंने सप्ताह में एक बार इस समूह में सम्मिलित होकर विश्वास निर्मिति हेतु प्रयत्न करने का निश्चय किया । अन्य कारण जिसने मुझे इस समूह में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित किया वह थी, मेरे अकेलेपन की भावना । इससे पूर्व, मैंने किसी को भी व्यक्तित्व विकास अथवा जीवन के कुछ उद्देश्यों को खोजने में रूचि लेते नहीं पाया था, जिसने मुझे अकेला कर दिया था ।

२. अप्रैल २०१३ में – SSRF के संपर्क में आना

उन धार्मिक बैठकों ने मुझे वेग प्रदान की । यद्यपि मैं उस समूह में वास्तव में सहज अनुभव नहीं कर पाता था; किन्तु अपने समूह के सदस्यों का ईश्वर के साथ जुडाव तथा ईश्वर के प्रति उनके भाव को देखकर मैं उस समय अत्यधिक चिंतन-मनन करने के लिए विवश हो गया । उस अवधि में ऐसा हुआ कि मैंने जालस्थल (इंटरनेट) पर ऐसे ही कुछ खोजना आरंभ किया और SSRF के जालस्थल का पृष्ठ सामने आ गया । मैं अभी यह नहीं बता सकता कि वह लेख कौन सा था ।

चूंकि मैं सत्य की खोज में था, इसलिए उसमें दी गई जानकारी की सत्यनिष्ठता के प्रति मेरे मन में अनेक शंकाओं के होने के उपरांत भी, SSRF द्वारा अध्यात्म के विषय में अत्यधिक व्यावहारिक तथा सार्वभौमिक दृष्टिकोण ने मुझे आकर्षित किया । क्यों न एक प्रयास किया जाए ? मन में यह विचार आया । SSRF के लॉग-इन सुविधा के माध्यम से लिख कर उन्हें सन्देश भेजते समय मुझे उनकी ओर से किसी भी दबाव अथवा अपेक्षा का अनुभव नहीं हुआ जो कि मेरे लिए इस संगठन की विश्वसनीयता का पता लगाने हेतु एक अत्यधिक महत्वपूर्ण कसौटी थी । अन्य सकारात्मक कारक था – ऑनलाइन सत्संग संचालन तथा लॉग-इन सुविधा पर संवाद करने वाले सभी साधकों का व्यवहार अत्यंत स्नेहशील एवं तत्परतापूर्ण था ।

यहां से, मैंने आध्यात्मिक जीवन जीने हेतु शीघ्रता से SSRF द्वारा बताए गए सुझावों को अधिक से अधिक कार्यान्वित करना आरंभ किया तथा ईश्वर पर अधिक से अधिक विश्वास करना आरंभ किया । कुछ समय पश्चात मुझे ज्ञात हुआ कि अध्यात्म शब्द का अर्थ ‘आत्मा से सबंधित है’ जो कि न तो हमारी देह है, न ही मन अथवा बुद्धि है तथा न ही हमारे ‘मैं’ पन की भावना है । पहले मैं ऐसी वस्तुओं को ‘आध्यात्मिक’ कहता था जो किसी प्रकार से असाधारण अथवा अलौकिक होती अथवा जो किसी तर्क से नहीं समझी जा सकतीं । किंतु अब ज्ञात हुआ कि आत्मा ईश्वर का ही एक अंश है तथा यह अविनाशी है एवं इसकी प्रवृत्ति सर्वोच्च सुख अर्थात आनंद है । यह SSRF का उद्देश्य है; लोगों को आध्यात्मिक आयाम तथा यह हमारे जीवन को कैसे प्रभावित करता है इसके संदर्भ में जानकारी देना; तथा इस जानकारी का क्या करना है और हम इससे कैसे लाभांवित हो सकते हैं ।

मैं SSRF के जालस्थल को प्रतिदिन कई घंटों तक पढता जब तक कि मुझे उसका कोई नया लेख नहीं मिल जाता । सत्संग में मौखिक रूप से अथवा लॉग-इन सुविधा पर तथा जालस्थल पर उपलब्ध जानकारी द्वारा मेरे प्रश्नों के उत्तर बिल्कुल सही ढंग से दिए जाते थे । मुझे सत्संग अत्यधिक अनमोल लगता था विशेषकर आरंभिक समय में, क्योंकि जैसा कि मैंने पहले बताया था कि मैं बहुत अकेला अनुभव करता था । यह अनुभव अब पूर्ण रूप से समाप्त हो चुका है । आज अनेक साधक मेरी सहायता करते हैं, मेरा मार्गदर्शन करते हैं तथा मेरे साथ साधना करते हैं । यह एक दूसरे परिवार जैसा है क्योंकि सभी स्नेहशील हैं तथा सबकी आध्यात्मिक उन्नति हो केवल उसमें रुचि रखते हैं । आरंभ से ही साधकों से संपर्क में रहने के कारण निकटता की इस भावना ने साधना की व्यावहारिक प्रभावशीलता में मेरी श्रद्धा बढा दी है ।

३. साधना

आरंभ में मेरे लिए प्रार्थना करना अत्यधिक कठिन था । वास्तव में पूर्ण मनाेभाव से करना तो असंभव था । प्रार्थना करते समय मुझे ऐसा लगता जैसे मैं मात्र कुछ शब्दों का उच्चारण कर रहा हूं वो भी उसके किसी प्रभाव होने की आशा से रहित होकर । किंतु ईश्वर कृपा, दृढता तथा दूसरे साधकों की प्रेरणा से, यह धीरे-धीरे परिवर्तित होने लगा । जो बात मुझे विशेषकर सहायक लगी वह थी सत्संग में दूसरे साधकों के साथ हाथों की सही मुद्रा बनाकर एकसाथ तथा बोलकर कही जाने वाली प्रार्थनाएं । वे सत्र अत्यंत लाभदायक थे क्योंकि उनमें मैंने सीखा कि अधिक भाव के साथ कैसे प्रार्थना की जाती है ।

इसके साथ ही सत्संग में एक सुझाव दिया गया कि प्रार्थना के लिए नियमित टाइमर लगाया जाए, जिससे जब भी टाइमर की घंटी बजे तब बोलकर प्रार्थना करें । मैंने प्रत्येक घंटे एक प्रार्थना करने से प्रारंभ किया और मुझे यह भी बहुत कठिन लगता था । ऐसा लगने के उपरांत भी ईश्वर मुझसे प्रत्येक ३० मिनट में प्रार्थना करवा लेते थे । पुनः यह अत्यधिक कठिन लगता था । तथा तब पुनः ईश्वर मुझसे प्रत्येक १५ मिनट से प्रार्थना करवा लेते थे । कहने की आवश्यकता नहीं कि मुझे शंका रहती थी कि क्या ऐसा संभव होगा । किंतु इसके उपरांत अभी ईश्वर मुझसे प्रत्येक ७.५ मिनट से प्रार्थना करवा लेते हैं ।

मैंने यह कभी नहीं सोचा था कि किसी की प्रार्थना में गुणवत्ता तथा संख्या के साथ इतनी वृद्धि होना संभव हो सकता है । इसलिए जब भी हमें ऐसा लगे कि ‘यह कार्य असंभव है’ तब हमें अपनी बुद्धि का प्रयोग करना छोड देना चाहिए क्योंकि जीवन में ईश्वर के लिए भला क्या असंभव हो सकता है ?

इसी प्रकार, यही अनुभव व्यक्ति द्वारा नामजप करने की मात्रा के संदर्भ में भी संभव होता है । प्रारंभ में, प्रतिदिन १५ मिनट बैठकर नामजप करना अत्यधिक कठिन लगता था । पुनः मुझे लगता कि प्रतिदिन इससे अधिक नामजप करना असंभव होगा । किंतु मेरा मार्गदर्शन करने वाले साधक ने मुझसे कहा कि वास्तव में लक्ष्य प्रतिदिन ३ घंटे नाम जप करने का है । पुनः मेरे लिए यह अकल्पनीय था ।

एक समय पूजनीया लोला वेजिलिकजी ने मुझे आध्यात्मिक उपचार सत्र बढाने तथा प्रतिदिन दो घंटे एकाग्रता के साथ बैठकर नामजप करने का सुझाव दिया । मैंने ऐसा करने का प्रयास किया तथा ईश्वरीय कृपा से मैं समयावधि को प्रतिदिन एक घंटे से सुझाए अनुसार दो घंटे तक बढाने में सक्षम हुआ । निश्चित रूप से यह पूजनीया लोला वेजिलिक अर्थात एक संत के संकल्प से कार्यरत ईश्वरीय कृपा के कारण ही संभव हुआ । यह दर्शाता है कि ईश्वर सदैव साधकों की सहायता करते हैं !

इन दिनों मेरे मन में वैसे ही तीव्र विचार आने लगे कि ‘कैसे मेरे लिए एक शिष्य बनने तथा गुरु कृपा प्राप्त करने के लिए स्वयं में सभी आवश्यक गुण निर्माण करना सक्षम होगा ?’ तब मुझे अपने अनुभव से स्मरण होता है कि किस प्रकार प्रत्येक चरण पर, साधना का अगला चरण सदैव संभव दिखाई देता है । मुझे यह अनुभव हुआ कि इस प्रकार के विचार आने का मुख्य कारण था ऐसा सोचना अथवा लगना कि “मैं” कुछ करने में समर्थ हो रहा हूं । किंतु वास्तव में गुरु तत्त्व (ईश्वर) ही साधकों को साधना करने का बल प्रदान करते हैं तथा वे ही इसे करवा लेते हैं । जब तक व्यक्ति चरण दर चरण आगे बढने की इच्छा रखता है तथा उसमें कुछ प्रयास भी करता रहता है तब चिंतित होने कोई बात नहीं ।

SSRF द्वारा बताई गई अपनी आध्यात्मिक यात्रा के आरंभ करने के एक वर्ष उपरांत, आजकल मैं इससे अत्यधिक लाभांवित अनुभव करता हूं । यह सब एक ही दिन में नहीं हुआ किंतु धीरे-धीरे पिछले कई महीनों में हुआ । इससे मेरे जीवन की समग्र गुणवत्ता में सभी संभावित क्षेत्रों में सुधार आया ।

४. SSRF के मार्गदर्शन में साधना करने के लाभ

१. व्यसनी (लत वाला) व्यवहार: मुझे प्रतिदिन ५ से ६ घंटे दूरदर्शन कार्यक्रम देखने की तथा कंप्यूटर गेम्स खेलने की अत्यधिक लत थी । यह मेरे विद्यालय जाने तथा न जाने पर निर्भर करता था । प्रतिदिन मेरा अधिकतर समय इन्हीं कार्यों में निकलता था । साधना के कारण अब मैं ६ महीनों से इनसे दूर हूं । अब इन गतिविधियों में लिप्त होने की कोई इच्छा नहीं रही ।

२. संबंधों में सुधार: अपने अभिभावकों, बंधुओं तथा अन्य लोगों के साथ संबंधों में सुधार हुआ है । अब हम बहुत अच्छी तरह से मिलकर रहते हैं । पहले ऐसा नहीं था क्योंकि मैं आलसी तथा अवज्ञाकारी था ।

३. भीतर शांति का अनुभव होना : अब मैं पहले की अपेक्षा अत्यल्प तनाव में रहता हूं । अब मुझे रोगों से भय नहीं लगता जिनसे पहले मैं बहुत घबरा जाता था । ऐसा इसलिए क्योंकि आध्यात्मिक सिद्धांतों के ज्ञान ने जीवन में दुःख होने के कारण का एक तात्त्विक दृष्टिकोण प्रदान किया । इसलिए अब विभिन्न परिस्थितियों को स्वीकारना अपेक्षाकृत सरल हो गया है ।

४. जीवन शैली में अधिक जागरूकता (आहार, खेलकूद, तनाव) इत्यादि:

  • आहार: पहले मैं अत्यधिक मिष्ठान, चॉकलेट, मांस खाता था । किंतु अब मैं बहुत कम मिष्ठान खाता हूं तथा शाकाहारी बन गया हूं ।
  • खेलकूद: इससे पहले मैं अत्यधिक वॉलीबॉल खेलकर अपने जोडों को अत्यंत परिश्रम करवाता था । लेकिन अब मैं योग जैसे लचक वाले तथा जोडों के लिए आरामदायक व्यायाम ही करता हूं ।
  • तनाव: पहले मैं प्रातःकाल बस पकडने के लिए बहुत ही हडबडी में उठता था, किंतु अब मैं उठते ही सर्वप्रथम नामजप के लिए अपना समय देता हूं और इस प्रकार दिन का आरंभ अब पूर्णतया भिन्न प्रकार से होता है ।
  • सामयिकता: पहले मैं अपने विद्यालय के कार्य को आगे के लिए टाल देने का आदी था, किंतु अब मैं अध्ययन को एक विद्यार्थी के रूप में अपना कर्तव्य समझकर करता हूं ।

आज, जब समस्याएं अथवा कठिनाइयां आती हैं तो उन्हें सहना आसान हो जाता है क्योंकि अब यह दृष्टिकोण रहता है कि यह प्रारब्ध भोगने का तथा ईश्वर के प्रति शरणागत भाव बढाने का एक अवसर है । संक्षेप में, मैं जीवन में अधिक से अधिक तृप्त रहने लगा हूं तथा चिरकालिक आनंद की प्राप्ति हेतु साधना करने के लिए मिले इस अवसर के लिए कृतज्ञता का अनुभव करता हूं । ईश्वर सभी पर साधना के प्रति अत्यधिक श्रद्धा निर्माण होने की कृपा करें, ऐसे उनके चरणों में प्रार्थना है ।

– श्री एड्रियन डूर, जर्मनी, यूरोप.