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सार : यह लेख परम पूज्य डॉ. आठवलेजी के शरीर पर कब और क्यों दैवी कण प्रकट होने लगे, कैसे परम पूज्य डॉ. आठवलेजी के संकल्प के कारण वे अन्य स्थानों पर प्रकट हुए, दैवी कणों का परिमाण, उनके, प्रभाव, उनके प्रकट होने का अध्यात्मशास्त्र और मानवजाति हेतु उनका महत्त्व इत्यादि बिंदुओं की विवेचना करता है ।

Scientific-analysisदैवी कणों की रासायनिक संरचना संबंधी ज्ञान प्राप्त करने हेतु Bhabha Atomic Research Centre (BARC) मुंबई एवं IIT, मुंबई द्वारा किए प्रयोगशाला विश्लेषण के परिणामों का अध्ययन करें ।

 

इस विषय को समझने के लिए हम निम्नांकित विषयों से अवगत होने का सुझाव देते हैं :

विषय सूची

१. परिचय

आरंभिक काल से ही विज्ञान ब्रह्मांड की उत्पत्ति संबंधी प्रश्नों के उत्तर खोजता रहा है । कुछ दशकों से भौतिकशास्त्र विशेषज्ञ इस खोज के लिए भूमि की गहराइयों में निर्मित प्रयोगशालाओं में जटिल वैज्ञानिक उपकरणों का प्रयोग कर पदार्थ के मूलभूत तत्त्वों का अध्ययन कर रहे हैं ।

नाभिकीय शोध के यूरोपीय केंद्र – यूरोपियन आर्गेनाइजेशन फॉर न्यूक्लियर रिसर्च (CERN) में एक प्रयोग द्वारा कण त्वरक (particle accelerator) का उपयोग कर मूलभूत भौतिकीय सिद्धांत हिग्स कण में द्रव्यमान अथवा भार की उत्पत्ति की पुष्टि करने का प्रयास किया गया ।

इसके विपरीत स्पिरिच्युअल साइन्स रिसर्च फाऊंडेशन (SSRF) अपनी स्थापना के समय से ही आध्यात्मिक आयाम के प्रणालीबद्ध शोध को समर्पित है । आध्यात्मिक शोध की सीमाहीनता के कारण SSRFने घटनाओं के कारकों की खोज हमारे आसपास के भौतिक विश्व में ही नहीं, अपितु अस्तित्त्व के अन्य आयामों, जैसे स्वर्गलोक, पाताललोक एवं इससे आगे के लोकों में भी की है ।

५ जुलाई, २०१२ को SSRF शोधकेंद्र में विशिष्ट प्रकार की चमक से जगमगाते कण स्वतः प्रकट हुए । इसी दिन (ईश्वरीय कण के रूप में विख्यात) Higgs Boson की परिकल्पित प्राप्ति भी हुई थी । स्वतः यह संयोग हमारी उत्सुकता को बढा गया । जैसे-जैसे हम SSRF में पाए गए कणों का संग्रह और अध्ययन करते गए, हमें उनकी विशेषताएं एवं महत्त्व समझ में आया, जिसे इस लेख में प्रस्तुत किया जा रहा है ।

२.दैवी कणों का प्राकट्य

प्रथम चमकीला कण परम पूज्य डॉ. आठवले की त्वचा पर प्रकट हुआ ।

वहां उपस्थित कु.कल्याणी गांगण बताती हैं :

५ जुलाई २०१२ को सवेरे ७.३० बजे जब मैंने परम पूज्य डॉ.आठवले के कक्ष में प्रवेश किया तब उन्होंने कहा, आज मैं स्नान नहीं करुंगा क्योंकि मेरी प्राण शक्ति बहुत क्षीण है । उस समय उनके कथन पर विचार करते हुए मैं सत्सेवा में संलग्न थी तभी उन्होंने अपने हाथ पर आया एक स्वर्णिम कण मुझे दिखाया और कहा, ऐसे कण प्रतिदिन मेरे हाथ से गिरते हैं ।

जिस कण को मैं टकटकी लगाए देख रही थी, उसमें अत्यधिक चमक थी । उस कण को देखकर मुझे बहुत आनंद हो रहा था तथा मैं उससे प्रक्षेपित किरणों को भी देख पा रही थी । कुछ क्षणों के पश्चात उन्होंने कहा, हमें इन्हें एकत्र करना चाहिए ।

कुछ समय पश्चात जब उन्होंने एक डायरी से अपना हाथ झाडा तो कुछ कण गिरे । वे कांतिमय थे तथा तारों की भांति चमक रहे थे ।

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अगले दिन ऐसे चमकीले कण रामनाथी, गोवा (भारत) आश्रम में SSRFशोध केंद्र के निवासी साधकों के शरीर, उनके संबद्ध विभाग, मेज-कुर्सियों तथा सत्सेवा में संलग्न कुछ साधकों के कक्ष, बिछावन एवं भूमि पर भी देखे गए ।
अगले कुछ दिनों में ऐसे चमकीले कण बहुत से साधकों को उनके घर तथा सत्सेवा होनेवाले पूरे भारत एवं विश्व के अनेक स्थानों पर पाए गए ।

३. दैवी कणों के प्राकट्य का आध्यात्मिक विज्ञान

जब विकसित छठवीं इंद्रिय युक्त साधकों ने इन दैवी कणों का विश्लेषण किया, तो उन्होंने पाया कि ये कण सकारात्मक ऊर्जा के साथ दैवी शक्ति भी प्रक्षेपित करते हैं ।

ये भिन्न दैवी कण आवश्यक हैं:

  • संसार में अध्यात्म के प्रचार-प्रसार में संलग्न साधकों के स्थूल शरीर की रक्षा करने हेतु
  • साधकों को ऊर्जा एवं ईश्वर की प्रकट शक्ति प्रदान करने हेतु

SSRF ने अपने अनेक साधकों को प्राप्त अतींद्रिय शक्ति अथवा छठवीं इंद्रिय का प्रयोग सूक्ष्म जगत देखने हेतु किया है । इसके लिए हम सूक्ष्म ज्ञान पर आधारित चित्र का एक साधन के रूप में, प्रयोग करते हैं । फ्रांस की पूजनीया श्रीमती योया वाले ऐसी ही एक छठवीं इंद्रिय युक्त साधिका हैं ।

निम्नांकित चित्र पूजनीया श्रीमती योया वाले को प्राप्त सूक्ष्म-ज्ञान के आधार पर बनाया गया है :

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सूक्ष्म ज्ञान पर आधारित चित्र से यह स्पष्ट है, कि ये कण ईश्वरीय तत्त्व का प्रवाह आकृष्ट करते हैं । वे आनंद  का वलय उत्पन्न एवं सक्रिय करते हैं । निर्गुण चैतन्य भी उनकी ओर आकृष्ट होता है और ये कण इस निर्गुण चैतन्य को वातावरण में सक्रिय कर प्रक्षेपित भी करते हैं ।

४. दैवी कणों के विभिन्न रंगों का आशय एवं कार्य

अपने अनुसंधान में हमने पाया कि ये सभी दैवी कण समान नहीं थे । ये विविध रंगों जैसे सुनहरे, रुपहले, लाल, गुलाबी, नारंगी, नीले इत्यादि रंगों में थे । गहन अध्ययन के पश्चात ज्ञात हुआ, कि रंगीन दैवी कण विशेष कार्य हेतु उपयोगी हैं । इनमें से कुछ के कार्य का विवरण आगे दिया है ।

संक्षेप में, ये विभिन्न रंग ईश्वर के दैवी प्रयोजन के बहुआयामी गुणों को प्रदर्शित करते हैं ।

५. दैवी कणों के विभिन्न स्रोत

५.१ परम पूज्य डॉ. आठवलेजी की त्वचा पर प्रकट कण

सर्वप्रथम, ये कण परम पूज्य डॉ. आठवलेजी की त्वचा पर प्रकट हुए ।

SSRF के शोध में आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य से संतों  के महत्त्व को प्रमुखता दी जाती है । दैवी कणों का घनीकरण पुन: संत एवं परात्पर गुरु  (९० प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर प्राप्त) जैसे परम पूज्य डॉ. आठवलेजी के महत्त्व की पुष्टि करता है ।

परम पूज्य डॉ. आठवलेजी की आध्यात्मिक प्रगति एवं उनके दैवी गुण उनमें हो रहे दैवी परिवर्तन दर्शाते हैं । ये परिवर्तन वर्ष २०१० से निरंतर हो रहे हैं एवं उनके शरीर, केश, त्वचा और नाखूनों में लक्षणीय हैं । उदाहरणार्थ, ॐ, कमल पुष्प इत्यादि के चिह्न उनके शरीर पर प्रकट हुए हैं । उनकी त्वचा पर स्वर्णिम आभा छा गई है और दैवी चैतन्य के कारण उनके नाखून भी पीले हो चुके हैं ।

ये दैवी कण अब उनकी त्वचा से बाहर आ रहे हैं ।

५.२ दैवी कण उच्च आध्यात्मिक स्तर के व्यक्तियों के सान्निध्य में एवं चैतन्यदायी स्थानों में प्रकट होते हैं ।

दैवी कण संतों   द्वारा प्रयुक्त वस्तुओं एवं वस्त्रादि में, ६० प्रतिशत अथवा उससे अधिक आध्यात्मिक स्तर के साधकों तथा ईश्वर प्राप्ति की तीव्र तडप तथा/अथवा भावयुक्त साधकों के पास से प्राप्त हुए । कुछ आध्यात्मिक पत्रिकाओं एवं धार्मिक ग्रंथों पर भी ये कण पाए गए ।

ऐसे अनेक स्थानों पर जहां साधक निवास करते हैं अथवा सत्सेवा  में संलग्न हैं, साधना कक्षों में, मंदिर में, संतों के निवास स्थान पर भी ये दैवी कण पाए गए; यहां तक कि दैवी प्रतिमाओं एवं चित्रों पर भी ये कण पाए गए ।

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स्वर्ग अथवा उच्च स्वर्ग लोक अर्थात महर्लोक  से पृथ्वी पर जन्मे बाल साधकों के मुखमंडल तथा उनके केश पर भी ये कण पाए गए । क्योंकि ये अभी छोटी आयु के हैं और बडों की अपेक्षा उनके अंतर्मन में संस्कारों की मात्रा अल्प है तथा वे अपेक्षाकृत अधिक सत्त्व  प्रधान हैं ।

अतएव, दैवी कण ऐसे स्थानों में प्रकट होते हैं जहां सात्त्विकता अधिक होती है ।

५.३. दैवी कण किसी विशेष उद्देश्य-प्राप्ति हेतु प्रकट होते हैं

कुछ प्रकरणों में, दैवी कण विशेष उद्देश्य की पूर्ति हेतु आवश्यक तत्त्व-रूप में प्रकट होते हैं । उदाहरणार्थ :

  • वे ऐसे साधकों के शरीर पर प्रकट होते हैं, जो अनिष्ट शक्तियों से त्रस्त होने पर भी प्रामाणिकता से साधना करते हैं । इन कणों द्वारा प्रक्षेपित दैवी शक्ति से इन साधकों पर आया नकारात्मक शक्तियों का प्रभाव घट जाता है ।
  • वे साधकों के परिवार के उन सदस्यों के शरीर पर भी प्रकट हो सकते हैं, जो उनकी साधना का विरोध करते हैं । ऐसी स्थिति में ये दैवी कण परिवार के उन सदस्यों द्वारा किए जा रहे विरोध को घटाने हेतु भी प्रकट हो सकते हैं ।

५.४ चैतन्य के घनीकरण से निर्मित दैवी कण

एक दिन परम पूज्य डॉ.आठवले ने नौ धारिकाओं (Files) और पांच पत्रिकाओं को अपनी प्राथमिकता के अनुसार अध्ययन हेतु क्रमवार रखा । अगले दिन, जब उन्होंने सबसे ऊपर की पत्रिका उठाई तो उस पर अनेक दैवी कण पाए, ये कण उसके नीचेवाली पत्रिका पर भी पाए गए, जब उन्होंने सभी का वृहत अवलोकन किया, तो प्रत्येक धारिका और पत्रिका पर ये दैवी कण दृष्टिगोचर हुए । इसका अर्थ यह है, कि ये दैवी कण खुले स्थान (तल) के बिना भी प्रकट हो सकते हैं । वायुमंडल से प्रक्षेपित होने की अपेक्षा ये कण विभिन्न स्थानों में उपस्थित चैतन्य के घनीकरण से उत्पन्न हो सकते हैं ।

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ईश्वरीय तत्त्व सर्वप्रथम परम पूज्य डॉ.आठवले के माध्यम से ही प्रकट होता है और साधक उनके ही माध्यम से इसे अनुभव करते हैं । एक बार यह अनुभूत करने के पश्चात वे अन्यत्र भी इसकी अनुभूति ले सकते हैं ।

६. दैवी कणों में परिवर्तन और उनके विशेष गुण

अपने शोध के क्रम में कुछ कालोपरांत हमारा ध्यान इन कणों में हुए कुछ परिवर्तनों की ओर गया, जिनमें से कुछ को आध्यात्मिक शोध द्वारा प्राप्त विश्लेषण सहित प्रस्तुत कर रहे हैं ।

प्रश्न : परम पूज्य डॉ. आठवलेजी की त्वचा पर प्रकट हुए दैवी कणों की संख्या अगले दिन क्यों घट गई?

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पहले दिन जब ये सुनहरे कण परम पूज्य डॉ. आठवलेजी के शरीर पर प्रकट हुए, उस समय उन कणों की दीप्ति प्रकट (सगुण) रूप में थी । प्रकट रूप से अभिप्राय है, कि जिस कार्य के लिए वह प्रकट हुआ है, वह संपन्न हो गया है । अतः ये सुनहरे कण अधिक प्रकाशमान थे, इसलिए उनसे अधिक प्रकाश प्रक्षेपित हो रहा था । अगले दिन उनकी आभा अप्रकट (निर्गुण) रूप में परिवर्तित हो गई जिस कारण वे छोटे प्रतीत होने लगे तथा अल्प मात्रा में प्रकाश प्रक्षेपित कर रहे थे क्योंकि कार्य संपादन की आवश्यकता नहीं रह गई थी ।

चूंकि, त्वचा पर निर्मित सुनहरे कण परम पूज्य डॉ. आठवलेजी की त्वचा के ऊपरी स्तर के साथ विसर्जित हो गए, शीघ्र ही उनकी ज्योति भी वातावरण में विलीन हो गई । इसके पश्चात इन सुनहरे कणों की संख्या तथा प्रकाश अल्प हो गया । यह सब ईश्वर की इच्छा एवं निर्दिष्ट उद्देश्य-विशेष के अनुसार घटित होता है ।

प्रश्न : परम पूज्य डॉ. आठवलेजी की त्वचा के ऊपरी स्तर के साथ विसर्जित हुए प्रकट दैवी कणों का क्या होता है?

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त्वचा पर निर्मित ये सुनहरे कण उनकी त्वचा के ऊपरी स्तर के साथ स्रवित होते हैं और उनमें विद्यमान आभा के सक्रिय होने पर ये कण पृथ्वी की ओर आकृष्ट होकर एकत्र होते हैं । यह प्रकाशमान तेजतत्त्व  भूमि पर एक आच्छादन निर्माण करता है, जो भूमि तथा क्षेत्र को आध्यात्मिक क्रिया कलापों हेतु शुद्ध करता है ।

यदि त्वचा में विद्यमान सुनहरे कण की आभा प्रमुखतया अप्रकट है, तो उसका प्रकाश वातावरण को शुद्ध करते हुए वातावरण में ही विलीन हो जाता है । इस प्रकार दैवी कणों में विद्यमान परम तेजतत्त्व वर्तमान काल में धरती पर किए जा रहे आध्यात्मिक प्रयासों को शुद्ध करता है ।

स्वर्णिम कणों का ऊर्ध्वोन्मुख अथवा अधोन्मुख (downwards or upwards) गतिशील होना किसी कार्य-विशेष के संपन्न होने पर ईश्वरीय योजना एवं कार्योद्देश्य के आधार पर पूर्व-निर्धारित है । जब ये कण आध्यात्मिक रूप से प्रगत व्यक्तियों के शरीर से पृथक होते हैं, तो केवल मानवता के कल्याण हेतु कार्य करते हैं । मूलत: आध्यात्मिक रूप से प्रगत व्यक्तियों के शरीर से प्राप्त प्रत्येक तत्त्व मानवता को लाभान्वित करता है ।

७. सारांश- दैवी कणों का आध्यात्मिक महत्त्व

आज के युग में दैवी कणों का प्रादुर्भाव एक अप्रतिम एवं ऐतिहासिक आध्यात्मिक घटना है ।

क्योंकि वर्ष २०१२ के उपरांत इष्ट और अनिष्ट के मध्य युद्ध आरंभ होनेवाला है, ईश्वर उच्चतम स्तर के संत परम पूज्य डॉ. आठवलेजी के माध्यम से प्रकट हुए दैवी कणों के रूप में साधकों का सशक्तिकरण कर रहे हैं । इस प्रकार ये सुनहरे, रुपहले एवं नीले (मयूरपंखी) वर्णयुक्त कण आध्यात्मिक प्रचार-प्रसार हेतु की जा रही समष्टि साधना के लिए प्रकट होते रहेंगे ।

वर्तमान काल, समस्त ब्रह्मांड द्वारा इष्ट और अनिष्ट के मध्य संघर्ष के प्रभावों को अनुभूत करने के कारण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । यह समय आध्यात्मिक प्रगति के लिए भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । स्वयं में सात्त्विकता बढाने हेतु एवं ईश्वर से उच्चतम सुरक्षा प्राप्त करने हेतु साधना के छ: मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार की गई साधना ही इसका सुनिश्चित मार्ग है ।

इस अनुपम घटना का कर्तापन छोडने के संबंध में परम पूज्य डॉ. आठवलेजी की उक्ति, संत ज्ञानेश्वर का कथन है ‘‘यह मेरे कारण घटित हुआ है, परंतु मैं इसका कारण नहीं हूं । मैंने विशेषकर इन दैवी कणों के संदर्भ में इसे अनुभव किया । यद्यपि ये दैवी कण SSRF के शोध केंद्र में मूर्त एवं दृष्ट (स्पष्ट) रूप में मेरे कारण ही दृष्टिगोचर हुए परंतु मैंने उनकी रचना नहीं की है । – परम पूज्य डॉ. आठवले