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इस लेख में हम अहं के विभिन्न प्रकारों की चर्चा करेंगे ।

मुख्यतः अहं दो प्रकार का होता है – ईश्वरीय अहं और मानवीय अहं

१. ईश्वरीय अहं

यह अहंकार रहित स्थिति है, अर्थात व्यक्ति का अहं शून्य होना । यह स्थिति १०० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के संतों में पाई जाती है जब वे पूर्णतः विचार रहित और  ईश्वर से एकरूप स्थिति में होते हैं । ईश्वरीय तत्त्व के साथ पूर्णतः एकरूप होने के कारण उनमें ‘मैं’पन नहीं होता । अतः ऐसे व्यक्ति द्वारा होनेवाले सभी कार्य कर्म नहीं, अपितु केवल क्रियास्वरूप होते हैं, क्योंकि वे पूर्णतया ईश्वjर की इच्छानुसार होते हैं । ऐसे संतों की मानसिक स्थिति की विशेषता यह है कि व्यवहारिक जीवन में अत्यधिक विपरीत परिस्थितियां होने पर भी वे सदैव आनंद में रहते हैं ।

२. मनुष्य का अहं :

मनुष्य का अहं दो प्रकार का होता है :-

२.१ सात्त्विक अहं

यह स्थिति उच्चतम स्तर के संतों में होती है जब ईश्वर के साथ पूर्णतया एकरूप न होने के कारण उनमें अहं का कुछ अंश शेष दिखाई देता है । इसलिए इन संतों को केवल अपने अस्तित्व का भान होता है । शारीरिक क्रियाओं के निर्वाह के लिए यह अंशात्मक अहं आवश्यक होता है ।

शुद्ध अहं को निम्नलिखित वृत्तियों द्वारा समझा जा सकता है :

  • स्वयं को ब्रह्म (ईश्वरीय तत्त्व) से भिन्न समझना, अर्थात द्वैत द्वारा स्वयं का भान बनाए रखना ।
  • स्वयं के अस्तित्व का भान ।
  • यह भाव कि मैं अन्यों के लिए हूं और सभी मेरे हैं

यह अहं भी केवल भौतिक शरीर का अस्तित्व होने तक रहता है । संतों द्वारा देहत्याग के पश्चात इसका भी अंत हो जाता है ।

२.२ असात्त्विक अहं

हममें से अधिकांश लोग इस प्रकार का अहं अनुभव करते हैं । लगभग हम सबका तादात्म्य अपने भौतिक शरीर, विचार एवं भावनाओं से होता है और हम अपनी बुद्धि पर गर्व अनुभव करते हैं । ऐसा हमारे सूक्ष्म देह में विद्यमान स्वाभाविक विशेषताएं, इच्छाएं (वासनाएं), रूचि एवं अरूचि इत्यादि के संस्कारों के कारण होता है ।

संदर्भ : मन की कार्यात्मक रचना

विचारों एवं भावनाओं के अनुसार यह अहं सात्त्विक (सत्व प्रधान), राजसिक (रज प्रधान) अथवा तामसिक (तम प्रधान) हो सकता है ।

  • तामसिक अहं : सूक्ष्म तम प्रधान अहं, तामसिक अहं कहलाता है । उदा. केवल स्वयं की योग्यता में विश्वास रखना ।
  • राजसिक अहं : सूक्ष्म रज प्रधान अहं, राजसिक अहं कहलाता है । उदाहरणार्थ सदैव सुख में रहने के लिए प्रयास करना ।
  • सात्त्विक अहं : सूक्ष्म सत्त्व प्रधान अहं, अर्थात सात्त्विक अहं उदाहरणार्थ त्याग से संबंधित अहं सात्त्विक प्रकार का है ।

३. मात्रा के अनुसार अहं के प्रकार

० – १०० प्रतिशत (शून्य से सौ प्रतिशत) की सीमा मर्यादा में र्इश्वर अथवा १०० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के संत, जब वे पूर्णतः र्इश्वर से एकरूप हो चुके हैं, उनका अहं ० % होता है । सातवें पाताल के सबसे अधिक शक्तिशाली मांत्रिक का अहं १०० प्रतिशत होता है । इस मापदंड के अनुसार एक सामान्य व्यक्ति का अहं ३० प्रतिशत होता है । एडोल्फ हिटलर का अहं ६० प्रतिशत था ।

(कृपया ध्यान दें कि सामान्य व्यक्ति से हमारा अर्थ सामान्य आध्यात्मिक स्तर का व्यक्ति है । सांसारिक जीवन में यह व्यक्ति धनिक अथवा निर्धन, राज्यप्रमुख अथवा साधारण कर्मचारी हो सकता है ।)

अहं की मात्रा के आधार पर अहं को निम्न वर्गों में बांटा जा सकता है : –

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