अध्यात्म के सामान्य सिद्धान्त
अध्यात्म अनुभूति का शास्त्र है
अध्यात्म में शब्दों का महत्त्व मात्र २% है, जबकि अनुभव का महत्त्व ९८% है ।
इस चित्र में हमें दो पर्वतों के बीच एक खाई दिखाई दे रही है । कोई पूर्णतया बौद्धिक ज्ञान के एक शिखर से, उसी ज्ञान की अनुभूति के दूसरे शिखर तक कैसे पहुंच सकता है ?
इस चित्र में सेतु, ‘साधना’ का प्रतीक है । ‘साधना’ बैद्धिक ज्ञान को प्रत्यक्ष अनुभव कर पाने के लिए एक महत्वपूर्ण कुंजी है । लेकिन एक अत्यंत बुद्धिमान व्यक्ति, जिसने अध्यात्म के विषय में बहुत कुछ पढा-सुना है, उसके लिए भी ‘साधना’ को आचरण में लाना कठिन होता है । इसलिए कि अधिकांश बुद्धिजीवी शब्द जाल में फंसकर धर्म ग्रंथों पर तर्म-वितर्क करते हैं, जबकि अंततः अध्यात्म और धर्म ग्रंथों में लिखे शब्दों की अनुभूति होना आवश्यक है । (संदर्भ : आध्यात्मिक अनुभूतियां क्या हैं ?)
एक बार एक गरीब नाविक एक विद्वान व्यक्ति को नाव से नदी पार करा रहा था ।
इस बीच वे बातचीत करने लगे । विद्वान ने कुछ ग्रंथों का नाम लेकर पूछा कि क्या नाविक ने वे ग्रंथ पढे हैं । नाविक के ‘ना’ कहने पर विद्वान ने कहा ‘तुमने अपना आधा जीवन व्यर्थ कर दिया ।’ अभी चर्चा चल ही रही थी कि नाव में छेद हो गया और नाव में पानी भरने लगा । यह देखकर नाविक ने विद्वान से पूछा ‘श्रीमान क्या आपको तैरना आता है ?’ विद्वान ने कहा ‘मैंने तैराकी पर अनेक ग्रंथ पढे हैं और विविध जानकारी प्राप्त की है; पर मुझे तैरना नहीं आता । इस पर नाविक ने कहा, तब आपका सारा जीवन व्यर्थ हो गया क्योंकि यह नाव अब डूबने वाली है !
‘विद्वान का सैद्धांतिक ज्ञान उसके किसी काम नहीं आया, उसी प्रकार भवसागर को पार करने और आनंद प्राप्ति के लिए केवल शाब्दिक ज्ञान पर्याप्त नहीं; अपितु साधना ही आवश्यक है ।