३ जनवरी २००६ को कु. शिल्पा देशमुख के साथ हुए साक्षात्कार की प्रतिलिपि

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प्रस्तावना

कु. शिल्पा देशमुख एक गृहविज्ञान स्नातक हैं तथा वस्त्र एवं परिधान (टेक्सटार्इल एंड क्लोंथिंग) में विशेषज्ञ हैं । वे एक प्रशिक्षित कत्थक नृत्यांगना भी हैं । वर्तमान में वे स्पिरिच्युअल साइन्स रिसर्च फाऊंडेशन के मार्गदर्शन में अपना पूर्ण समय सत्सेवा हेतु समर्पित कर रही हैं । उनके पिताजी श्री. दादाजी देशमुख भारत के महाराष्ट्र स्थित नाशिक के आर्इबीपी तेल कंपनी में ज्येष्ठ अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं । उनकी मां श्रीमती श्यामला देशमुख एक गृहिणी हैं तथा SSRF की एक साधिका हैं । यद्यपि शिल्पा अभी २४ वर्षों की ही हैं तब भी उन्होंने अपने पूरे जीवन का एक तिहार्इ भाग SSRF के मार्गदर्शन में साधना करने में समर्पित किया है । उनके इस समर्पण का फल यह है कि र्इश्वर ने अपनी कृपा उन पर अपने दैवी ज्ञान को प्राप्त करने का एक माध्यम उन्हें बनाकर की है ।

टिप्पणी : इस साधिका द्वारा प्राप्त ईश्वरीय ज्ञान का उदाहरण देखने के लिए, कृपया लेख के अंत में दी गई कडी (लिंक) को देखें ।

प्रश्न : र्इश्वर के संदर्भ में आपकी सबसे पुरानी स्मृति कौनसी है ?

उत्तर : मेरे बचपन में, जब मैं किसी-किसी परिस्थिति में भयभीत हो जाती थी जैसे घर पर अकेले रहने से अथवा कोर्इ बुरा स्वप्न देखने से, मुझे त्वरित दृढता से भान होता था कि भगवान श्रीगणेशजी मेरे साथ हैं । यह भान उतना दृढ नहीं होता था कि मेरे डर के अनुभव को समाप्त कर दे किंतु यह उस समय तक रहता जब तक मैं सामान्य स्थिति में न पहुंच जाऊं । मुझे ऐसा एक भी प्रसंग का स्मरण नहीं है कि श्रीगणेशजी ने डर पर विजय प्राप्त करने में मेरी सहायता न की हो । उस समय उनके साथ ‘आवश्यकता पडने पर सहायता करनेवाले मित्र’ के समान संबंध थे क्योंकि उस समय मैं किसी भी अर्थ से साधक नहीं थी ।

प्रश्न : तब आपके अनुसार साधक की क्या परिभाषा है ? 

उत्तर : मेरे बचपन में मुझे ऐसा प्रतीत होता था कि मैं जहां भी जाती थी तथा जो भी करती थी र्इश्वर मेरे पीछे-पीछे आते थे । मुझे आवश्यकता पडने पर वे अपने उपस्थिति का भान मुझे कराते थे । दूसरी ओर साधक वह होता है जो अपनी आवश्यकताओं के अनुसार नहीं अपितु वह जहां भी जाता है अथवा जो भी करता है, वह र्इश्वर को ढूंढने का प्रयत्न करता है ।

प्रश्न : आप कैसे तथा कब साधक बन गए ?

उत्तर : मुझे निश्चित दिनांक का तो स्मरण नहीं है; किंतु जुलार्इ १९९७ में यह हुआ था । जब पहली बार र्इश्वरप्राप्ति की जिज्ञासा इतनी बलिष्ठ थी कि उसने मुझे जीवन को परिवर्तित करनेवाला निश्चय करने हेतु दृढ बनाया कि ‘मुझे इसी जन्म में र्इश्वर को अनुभव करना है ।’ वह अनुभूति आज भी मेरे मन में जागृत है । वह १९ मर्इ १९९७ का दिन था । उस संध्या परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी महाराष्ट्र के मेरे ही गृहनगर नासिक में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित करनेवाले थे । मैं अपने अभिभावकों के साथ उस सभा की तैयारी की सत्सेवा हेतु गर्इ थी । वह सभागृह पूरा भर गया था । हमें बहुत कठिनार्इ से सभागृह के अंतिम पंक्ति में बैठने हेतु स्थान मिल पाया । मैं जहां बैठी थी वहां से परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी को बिना किसी व्यवधान के देख पा रही थी । उनके शब्दों से अधिक, यह अनुभव मुझे स्पष्ट रूप से स्मरण है (जो पश्चात मुझे पता चला कि यह एक अनुभूति थी ।) जब वे जनमानस को संबोधित कर रहे थे मुझे लगा कि मैं उनसे किसी अदृश्य तथा अटूट बंधन से जुड गर्इ हूं । मैं उनके चैतन्य से इतनी अभिभूत हुर्इ कि मैंने तभी वहां निश्चय कर लिया कि मैं SSRF के मार्गदर्शन में साधना आरंभ करूंगी । मेरे साधक बनने के निर्णय का बीज उस सभा में बोया गया ।

प्रश्न : यद्पपि साधक बनना एक अलग बात है और पूर्णरूप से समर्पित साधक अपने घर की सुविधाओं को त्याग कर एक आश्रम में रहना पूर्णतः अलग बात है । कितना सरल अथवा कठिन था, यह निर्णय लेना ?

उत्तर : निर्णय का सरल अथवा कठिन होने का कोर्इ प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता क्योंकि यह मुझ पर थोपा नहीं गया था । तथापि उस समय की परिस्थितियां भी इस निर्णय को सरल बनाने हेतु समर्थनकारी नहीं थी । साधक के रूप में मैं जो भी करती मेरी मां का पूर्ण समर्थन रहता । किंतु मेरे पिताजी की तीव्र इच्छा थी कि मैं कोर्इ नौकरी अथवा व्यवसाय करुं । वे चाहते थे कि शेष समय ही मैं SSRF के कार्यों को दूं ।

प्रश्न : तो आपने अपने पिताजी को कैसे मनाया ?

उत्तर : पिताजी को मेरे पूर्णकालीन साधिका बनने हेतु विरोध था । वे स्वयं भी साधक हैं तथा वे स्वयं भी सत्सेवा के लिए अपना खाली समय देते थे । इसलिए प्रारंभ में मैंने उनसे २ माह के लिए बाहर जाने की अनुमति ली । मैंने इसी को एक और बार दोहराया । जब मैं उनसे तीसरी बार अनुमति लेने गर्इ तो वे मेरे उद्देश्य को भांप गए और उन्होंने विरोध दर्शाया । उसी समय मैंने उन्हें स्पष्ट कर दिया तथा बताया कि मेरे जीवन की एकमात्र इच्छा यही है – ‘SSRF के मार्गदर्शनानुसार र्इश्वरप्राप्ति करना’ तथा यह एक पूर्णकालिक साधक बनकर ही हो सकता है ।

प्रश्न : क्या अभी भी वे आपसे रूष्ट हैं ?

उत्तर : कुछ समय के लिए थोडे थे, किंतु जबसे मुझे र्इश्वरीय ज्ञान मिलना प्रारंभ हुआ, उनका रोष अल्प होने लगा । जब वे इस अक्टूबर में मां, भार्इ तथा बहन के साथ आश्रम में एक सप्ताह के लिए रहने आए तब उनका क्रोध पूर्णतः समाप्त हो गया ।

प्रश्न : र्इश्वरीय ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया कबसे प्रारंभ हुर्इ ?

उत्तर : २२ जनवरी २००४ से

प्रश्न : यह सब कैसे आरंभ हुआ ? 

उत्तर : जब मैं SSRF के आश्रम में रहने लगी तब १७ दिसंबर २००३ को परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी ने मुझे बताया कि र्इश्वरप्राप्ति हेतु मेरा मार्ग भारतीय शास्त्रीय नृत्य होगा । उस दिन उन्होंने मुझे शरीर की विविध मुद्राओं पर प्रयोग कर सूक्ष्म-परीक्षण करने को कहा । प्रयोग प्रारंभ करने से पूर्व मैंने हृदय से प्रार्थना की । यद्यपि मैंने सूक्ष्म प्रयोगों के संदर्भ में सुना था किंतु कभी किया नहीं था । प्रार्थना करते ही मुझे नृत्य के संदर्भ में विचार आने लगे । इन विचारों से प्राप्त हुर्इ जानकारी पूर्णतः नई थी । सबसे अच्छा यह हुआ कि जब मैं इस जानकारी का टंकन संगणक पर कर रही थी, मुझे नवीनता तथा आनंद का अनुभव हुआ । उस दिन जब मैंने यह पूरी घटना परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी को बतार्इ, तब उन्होंने कहा, ‘‘र्इश्वरीय ज्ञान का प्रवाह आरंभ हो गया है ।’’

प्रश्न : शिल्पाजी, नवीनता न होने पर भी प्रथम बार सदैव विशेष होता है तथा स्मरण रहता है । किंतु यह अपने साथ र्इश्वरीय ज्ञान को प्राप्त करने हेतु सक्षम होने का दबाव भी लाता है । आपने इसका सामना कैसे किया ?

उत्तर : जब मैंने भारतीय शास्त्रीय नृत्य की मुद्राओं का सूक्ष्म परीक्षण करना प्रारंभ किया, तब उसमें मेरे इस क्षेत्र में नए होने की एक चिंता थी । परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी की अपेक्षा में खरा उतरने का दबाव भी था । कुछ क्षणों के लिए दबाव मुझे विचलित कर देता था । किंतु प्रार्थना के उपरांत, मुझे मानसिक स्थिरता पुनः प्राप्त हुर्इ तथा र्इश्वरीय ज्ञान का प्रवाह आरंभ हो गया ।

प्रश्न : प्रथम बार जब र्इश्वरीय ज्ञान का प्रवाह आरंभ हुआ तो वह कैसा था ? 

उत्तर : प्रथम बार से आगे तक र्इश्वरीय ज्ञान विचारों तथा दृश्यों के रूप में रहता था । जब मैं र्इश्वर से जुड जाती तब मन में भाव की सुखदायक तरंगें होतीं । केवल मन ही नहीं अपितु पूरा शरीर ही हल्का लगता । जो र्इश्वरीय विचार मुझे प्राप्त होते वे भी हल्के थे । हल्कापन का भान उस दिन के लिए प्रक्रिया बंद होने के उपरांत भी लंबे समयतक रहता ।

प्रश्न : क्या आप ज्ञान के स्रोत को जानने के लिए उत्सुक थीं ?

उत्तर : हां मैं थी । जब मैंने पूछा, तब उस शक्ति ने स्वयं को ‘भगवान शिव’ (ब्रह्मांड में शिवजी का एक कार्य दिव्य नृत्य तत्त्व के रूप में हैं) बताया । वास्तव में, भारतीय शास्त्रीय नृत्य के संदर्भ में दिव्य ज्ञान प्राप्त करते समय, मुझे कर्इ बार विभिन्न मुद्राओं में स्वयं शिवजी के दृश्य दिखे ।

प्रश्न : क्या आपको शास्त्रीय नृत्य में रूचि है ?

उत्तर : जी हां । मैंने नौ वर्षों तक भारतीय शास्त्रीय नृत्य कत्थक की शिक्षा ली । कत्थक की छः परिक्षाएं भी दी हैं जो स्नातक स्तर तक पहुंचने समान है ।

प्रश्न : आपको जो जानकारी प्राप्त होती है आप उसे संरक्षित रखने के लिए किस माध्यम का प्रयोग करती हैं ?

उत्तर : जो भी जानकारी मिलती है मैं उसे सीधे संगणक में टंकन कर रखती हूं । अडचन तब आती है जब मेरे पास संगणक नहीं होता; क्योंकि ज्ञान का प्रवाह कभी भी कहीं भी आरंभ हो सकता है । पहले कर्इ बार ज्ञान के प्रेषण को रोकने हेतु मुझे र्इश्वर से प्रार्थना कर क्षमा मांगनी पडती थी । चूंकि मैं उसे भूल सकती थी । पश्चात मैंने अपने साथ सदैव लेखनी तथा बही रखने की आदत बना ली ।

प्रश्न : मान लीजिए मुझे र्इश्वरीय ज्ञान मिल रहा है, इसका अर्थ यह नहीं कि मेरी अपनी विचार प्रकिया पूर्णतः रूक जाए । यदि ऐसा है, तो आप अपने विचारों से र्इश्वरीय विचारों को कैसे अलग कर पाती हैं ?

उत्तर : आरंभिक अवस्था में जब मुझे र्इश्वरीय ज्ञान से संबंधित विचार कभी भी और कहीं भी आने लगते थे, तब मेरे मन में भी प्रश्न उठता कि ये मेरे विचार हैं अथवा र्इश्वरीय विचार हैं । तत्पश्चात मैं र्इश्वर से प्रार्थना करने लगी कि आप ही मुझे इन दो विचाराें के मध्य अंतर करने में मेरी सहायता करें । सदैव की भांति जब वह र्इश्वरीय ज्ञान होता तो वे अपनी पद्धति से बताते । जब विचार मेरे होते तब मेरा सिर भारी हो जाता; किंतु जब र्इश्वरीय विचार रहते तब केवल मेरा सिर ही हल्का नहीं होता अपितु मुझे उत्साह लगता ।

प्रश्न : क्या ज्ञान का प्रवाह निरंतर है अथवा इसमें कोर्इ बाधा भी है ?

उत्तर : जैसा कि मैंने अभी कहा कि ज्ञान का प्रवाह सदैव ही हल्केपन तथा उत्साह के अनुभव से संबंधित है । किंतु कभी-कभी सिर में भारीपन लगता अथवा उत्साह का अभाव रहता अथवा ज्ञानप्राप्ति की इच्छा नहीं होती । किंतु यह सब आरंभिक अवस्था में ही होता था और समय बीतने के साथ इसकी तीव्रता अल्प हो गर्इ ।

प्रश्न : क्या आप हमें बता सकती हैं कि र्इश्वरीय ज्ञानप्राप्ति की अवस्था का सर्वाधिक अविस्मरणीय भाग कौन-सा रहा ?

उत्तर : यह तब की अवस्था थी जब मुझे अत्यधिक आध्यात्मिक कष्ट हो रहे थे । २८ अप्रैल २००५ में मुझे कष्ट देनेवाला सूक्ष्म स्तरीय मांत्रिक प्रकट हुआ । SSRF  के सूक्ष्म विभाग के साधक मेरा उपचार कर रहे थे । मैं गहरी नींद से सो गर्इ । नींद में मुझे दिखा कि परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी मेरे बगल में बैठे हैं और फूलों के माध्यम से मेरा उपचार कर रहे हैं । उसके उपरांत कुछ दिनों के लिए मुझे विभिन्न  सूक्ष्म विश्व के फूलों का दृष्टांत होने लगे तथा उनके संदर्भ में दिव्य ज्ञान प्राप्त होने लगा । उन दिनों मैं नित्य आनंद की अवस्था में थी ।

प्रश्न : सूक्ष्म विश्व के ये फूल क्या हैं ? वे कैसे दिखते हैं ? उनकी गंध कैसी होती है ?

उत्तर : ये फूल विविध सूक्ष्म विश्व के विभिन्न देवताओं से संबंधित हैं । ये वे फूल हैं जो हम इस संसार में नहीं देखते । उनकी सुगंध, रंग तथा रूप विवरण के परे है । मैं कुछ उदाहरण देती हूं । एकबार मैंने नीले रंग का फूल देखा, जिससे हलके नीले रंग का प्रकाश उत्सर्जित हो रहा था । जिस क्षण मुझे इस फूल का दृष्टांत हुआ श्रीकृष्णजी के प्रति मेरा भाव जागृत हुआ और मैंने उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की । अन्य बार मुझे देवी श्रीलक्ष्मीजी के सुनहरे कमल का दृष्टांत हुआ । वह पुष्प भाव तथा शक्ति उत्सर्जित कर रहा था । भाव का रंग नीला था तथा शक्ति का रंग श्वेत था । मैं आपको इन फूलों के संदर्भ में इससे अधिक नहीं बता सकूंगी क्योंकि उनके संदर्भ में यह ज्ञान अभी पूर्ण नहीं हुआ है । और अभीतक जो भी ज्ञान मिला, उसकी सत्यता की पुष्टि परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी ने की है ।

प्रश्न : तो आपको र्इश्वरीय ज्ञान प्राप्त करते हुए २ वर्ष से अधिक हो गए हैं न ?

उत्तर : वास्तव में नहीं । जिस दिन मुझे प्रथम बार र्इश्वरीय ज्ञान प्राप्त हुआ, उसके लगभग ८ माह के उपरांत सूक्ष्म स्तरीय-मांत्रिक के कारण मुझे होनेवाले कष्ट कर्इ गुना बढ गए । यह एक बाधा है, जब हम साधना करते हैं तब अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, राक्षस इत्यादि) हमें आध्यात्मिक रूप से प्रगति करने से रोकने का प्रयास करती हैं । दिन-प्रतिदिन जीवन और अधिक असहनीय बन गया था । उसी समय परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी ने मुझे र्इश्वरीय ज्ञान प्राप्ति को रोकने के लिए कहा था । तबसे यह प्रकिया खंडित हो गर्इ है ।

प्रश्न : ऐसा कहा जाने पर क्या आपको बुरा लगा था ?

उत्तर : नहीं बिलकुल भी नहीं ।

प्रश्न : शिल्पाजी आपको क्या लगता है कि दिव्य ज्ञान देने हेतु र्इश्वर ने आपका चयन क्यों किया ?

उत्तर : पहला सीखने की आतुरता थी दूसरा आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति मेरी जिज्ञासा के कारण ।

प्रश्न : इस कारण आपको कितना अच्छा अथवा विशेष अनुभव होता है ?

उत्तर : र्इश्वर की कृपा है कि अपने अहं में हुर्इ तनिक भी वृद्धि का भान मुझे उसके प्रारंभिक चरण में ही हो जाता है । अहं में वृद्धि होने के संदर्भ में मुझे समय पर भान कराने के लिए मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूं तथा परम पूजनीय डॉ. आठवलेजी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती हूं I

प्रश्न : दिव्य ज्ञान प्राप्त करना प्रारंभ करने के उपरांत आपमें हुए परिवर्त्तन के संदर्भ में कुछ बतार्इए ?

उत्तर : मैं वही शिल्पा हूं, थोडी अधिक विनम्र ।

प्रश्न : विनम्रता में हुर्इ वृद्धि के अतिरिक्त, क्या आपमें अन्य कोर्इ परिवर्त्तन हुए ?

उत्तर : हां । एकाग्रता बढ गर्इ है । मेरा मन अधिक शीघ्रता से निर्विचार हो जाता है तथा स्वभाव दोषों का भान भी प्रायः होता रहता है । मुझे सतत सत्सेवा में रहने का भान होता है । मुझे लगता है कि मैं कुछ भी अथवा सब कुछ जो मैं करती हूं, वह सब सत्सेवा ही है ।

प्रश्न : र्इश्वरीय ज्ञान प्राप्त करना यह स्वयं में ही एक अनुभूति है, जिसे ‘इस संसार से भी अलग’ कहा जा सकता है । क्या आप हमारे पाठकों से कोर्इ और रोचक अनुभूति साझा करना चाहेंगी ?

 उत्तर :  एक दिन माध्यमिक परीक्षा में सम्मिलित होने से पूर्व सफलता मांगने के स्थान पर मैंने यह प्रार्थना की, ‘‘हे र्इश्वर, मुझे भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य  दीजिए ।’’ मैं नहीं जानती कि मेरे मुख से ये शब्द क्यों निकले । यह प्रार्थना आदत बन गर्इ । पश्चात मुझे पता चला कि भारत के एक संत स्वामी विवेकानंदजी भी इन्हीं शब्दों में प्रार्थना किया करते थे । जब मैंने SSRF द्वारा आयोजित साप्ताहिक सत्संगों में जाना प्रारंभ किया, धीरे-धीरे इस प्रार्थना का अर्थ मेरे अंर्तमन में प्रवेश करने लगा ।

प्रश्न : क्या आप हमे बता सकती हैं कि साधना में इतनी दूर आने के लिए आपने क्या विशिष्ट प्रयास किए ?

उत्तर : सत्य तो यह है कि मैंने कभी भी बडे लक्ष्य नहीं रखे और ना ही उन्हें साध्य करने के लिए संघर्ष किया । तथापि मैं जीवन में एक ही बात के लिए बहुत दृढ थी कि – साधना और केवल साधना ही करनी है । मैंने सफलता के लिए केवल र्इश्वर से प्रार्थना की ।