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१. परिचय

र्इश्वर हैं, इसका उत्कट भान ही भाव है । हमारी आध्यात्मिक यात्रा में र्इश्वर के प्रति अपना भाव बढाना एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है । क्योंकि जब हमें तीव्रता से र्इश्वर का भान होता है तब इससे र्इश्वर के प्रति दृढ भक्ति जागृत(निर्मित)होती है । जब हममें र्इश्वर के प्रति दृढ भक्ति होती है, तब हमें स्वयं का भान नहीं रहता केवल र्इश्वर का स्मरण रहता है और इस स्थिति में पहुंचने पर, र्इश्वर हम पर अपनी कृपा का वर्षाव करते हैं और हम अधिक आनंद अनुभव करते हैं ।

अनेक साधकों को लगता है कि केवल साधना करने से हमारी भाव जागृति हो जाएगी । यद्यपि सैद्धांतिक रूप से यह सत्य है, तथापि यह सुनिश्‍चित नहीं है, कि साधना करनेवाले प्रत्येक साधक में यह प्रक्रिया सहजता से होगी । ऐसा इसलिए, क्योंकि यद्यपि साधना के माध्यम से हमें भाव की अनभूति होती है, तथापि यह अन्य अनेक कारकों पर निर्भर करता है, जैसे हम किस उद्देश्य से साधना कर रहे हैं, र्इश्वरप्राप्ति हेतु तीव्र उत्कंठा, अवचेतन मन में र्इश्वर के लिए निर्मित केंद्र, वास्तव में हुई साधना तथा अनुकरण किया जा रहा साधना का पथ इत्यादि सम्मिलित हैं । तीव्रता से स्वयं में (भक्ति)भाव बढाने के लिए हमें सर्वप्रथम यह सीखना चाहिए, कि भाव को अनुभूत करने में हमारी सहायता किससे होगी तथा इससे भी महत्त्वपूर्ण है प्राप्त मार्गदर्शन को आचरण में उतारने का प्रयत्न करना ।

इस लेख में हमने र्इश्वर के प्रति अपना भाव बढाने हेतु करनेयोग्य कुछ सुझाव दिए हैं, परिणामत: हमारी साधना को गति मिल सकती है ।

२. भाव बढाने में बाधाएं

इससे पूर्व, कि हम भाव बढाने के उद्देश्य की खोज आरंभ करें, यह आवश्यक है कि भाव बढाने के हमारे प्रयत्नों को बाधित करनेवाले कारकों को जान लें, जिससे हम उन पर ध्यान रख सकें । भाव जागृति में होनेवाली मुख्य बाधाएं निम्नलिखित हैं :

१. अनभिज्ञता – इसका अर्थ है, र्इश्वर के रूप, गुण तथा उनकी कार्य पद्धति से अनभिज्ञ होना । संतों द्वारा रचित आध्यात्मिक ग्रंथों के वाचन अथवा ssrf.org जैसे जालस्थल के अध्ययन से आध्यात्मिक ज्ञान में वृद्धि की जा सकती है ।

२. कर्त्तापन – जीवन में हो रही घटनाओं के कर्ता र्इश्वर नहीं, अपितु स्वयं हम अथवा कोई और है, ऐसा लगना कर्त्तापन है ।

३. अहं – मैं र्इश्वर से भिन्न हूं ऐसा अनुभव होना ही अहं है । भाव जागृति में यह सबसे बडी बाधा है । अहं जितना अधिक होगा, भाव जागृति की संभावना उतनी ही अल्प होगी । अहं अल्प कैसे करें, इसके संदर्भ में अधिक जानकारी हमारे खंड अहं निर्मूलन अथवा परम पूज्य डॉ.आठवलेजी द्वारा संकलित SSRF का ग्रंथ अहं निर्मूलन कैसे करें पढें ।

४. स्वभावदोष : जब स्वभावदोष अधिक होते हैं, तब भाव के विचार सहजता से बिंबित नहीं हो सकते । अपने स्वभावदोष समझकर उन्हें दूर करने के प्रयत्न करना साधक की आध्यात्मिक यात्रा का महत्त्वपूर्ण भाग है ।

हमने अपनी साधना के अन्य अनुभागों में इन सभी पक्षों का विस्तृत विवरण दिया है ।

३. भाववृद्धि के लिए किए जानेवाले प्रयासों का तुलनात्मक महत्त्व

नीचे दिए गए आलेख(चार्ट)में हमने भाव बढाने में सहायक विविध प्रयत्नों को सूचीबद्ध किया है । नीचे दिए गए बार ग्राफ में दिए आंकडे इन प्रयत्नों का महत्त्व दर्शाते हैं । इस आलेख से हम यह निरीक्षण कर सकते हैं कि ऐसी वृत्ति रखकर हम जो कुछ भी करते हैं, वह र्इश्वर की सेवा अर्थात गुरुसेवा है, इससे भाव वृद्धि सर्वाधिक तीव्र गति से होती है । इससे हमें अपने कृत्यों पर ध्यान देने में सहायता होगी, तथा अपने प्रयत्नों से हम अधिकतम लाभ प्राप्त कर पाएंगे ।

 

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४. भाव बढाने हेतु साधना संबंधी प्रयास

४.१ गुरुसेवा

जैसा आपने ऊपर दिए आलेख में देखा, जब हम अपने सारे क्रियाकलाप, (साधना संबंधी अथवा सांसारिक) इस भाव से करते हैं कि हम अपने गुरु की सेवा कर रहे हैं, तब भाव बढाने में हमें सर्वाधिक लाभ मिलता है । हमने अपने अन्य लेख गुरु कौन हैं में साधक के जीवन में गुरु का महत्त्व वर्णित किया है । गुरु र्इश्वर के निर्गुण मार्गदर्शक तत्त्व के सगुण मानवी रूप होते हैं । र्इश्वर कृपा के कारण ही यह जीवन हमें उपहारस्वरूप मिला है । गुरु अनेक जन्मों से धैर्यपूर्वक हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं जिससे हम जीवन – मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाएं और र्इश्वर को अनुभव कर उनसे एकरूप हो पाएं । जब हम र्इश्वर से एकरूप हो जाएंगे तब हमें शांति की अनुभूति होगी । जब हम यह समझ लेते हैं कि गुरु ने किस सीमा तक हमारा पोषण किया है और प्रत्येक बार हमारी रक्षा कर रहे हैं, हम कृतज्ञता की गहरी अनुभूति से भर जाते हैं ।

गुरु की सेवा कर हम र्इश्वर की सेवा करते हैं । मनुष्य योनि में हम सभी को र्इश्वर की सेवा करने का अवसर नहीं मिलता;तथापि हम अपने सर्व कृत्य इस प्रकार कर सकते हैं जैसे वास्तव में उनके स्थूल रूप की सेवा कर रहे हों । यह हमारे दैनिक जीवन में हो सकता है और इसके हमने कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं ।

  • यदि हम वस्त्र धो रहे हों अथवा भोजन बना रहे हों, तो इसे इस भाव से कर सकते हैं कि हम यह भोजन र्इश्वर के लिए बना रहे हैं । यहां तक कि (किसी को)भोजन परोसते समय भी यह भाव रख सकते हैं कि हम र्इश्वर अथवा गुरु के लिए ही भोजन परोस रहे हैं ।

यहां हम एक क्षण के लिए रुकें और कल्पना करें, कि र्इश्वर स्थूल रूप में हमारे घर आए हैं और हमें दिनभर उनकी सेवा करनी है, तब हमारे कृत्य तथा वृत्ति कैसी होगी । यह दृष्टिकोण रखकर, अपने परिवार के सदस्यों की अथवा हमारे संपर्क में आनेवालों की सहायता करते समय यही भाव रख सकते हैं । यदि हम इस एक पक्ष को व्यवहार में लाते हैं, तब हमारे घर के आध्यात्मिक स्पंदनों में सकारात्मक परिवर्तन होंगे साथ ही भाव में भी वृद्धि होगी ।

  • उपरोक्त सूत्रों के अनुसरण से हम अपने घर को आश्रम बनाने का प्रयास कर सकते हैं तथा साथ ही उसे सात्त्विक पद्धति से रखने का प्रयास कर सकते हैं । हम अपने घर को, मन से र्इश्वर अथवा गुरु को अर्पण कर इस भाव से उसकी देखभाल करें कि हम इस घर के संरक्षक मात्र हैं । यह पक्ष हमें, मैं इस घर का स्वामी हूं, इस अहं से मुक्त होने में सहायता ही करेगा ।
  • यदि हम अपने घर की सभी वस्तुओं का उपयोग इस भाव से करें कि ये र्इश्वर अथवा गुरु की हैं, तब हम पर्याप्त ध्यान देकर सतर्कतापूर्वक उनका उपयोग करेंगे । इससे घर में र्इश्वर अथवा गुरु के अस्तित्व की भी अनुभूति होती है । एक बार जब साधक अपनी साधना हेतु उपयोग में आनेवाली वस्तुओं में ईश्‍वरीय तत्त्व को देखना सीख जाता है, तो शनैःशनैः वह सर्वत्र र्इश्वर को देखने में सक्षम होने लगता है । यह उसे सजीव तथा निर्जीव सभी में ईश्‍वरीय तत्त्व को अनुभव कर पाने में सहायता करती है ।
  • साधक यह विचार करता है कि गुरु सभी परिस्थितियों में उसके साथ हैं, तो इससे उसके भय लगने का स्वभावदोष दूर होने में सहायता होती है ।

जब हम कोई सत्सेवा करते हैं, तब प्रारंभ में हमें लगता है कि हमने वह सेवा की है, इससे कुछ मात्रा में सूक्ष्म-अहं की उत्पत्ति होती है । इसे वास्तविक अर्थ में सत्सेवा नहीं कहेंगे । जब कोई सत्सेवा करता है, तब उसे इस भाव से करना चाहिए कि र्इश्वर ही उससे यह सत्सेवा करवा रहे हैं और हमें उसका कर्त्तापन नहीं लेना चाहिए ।

सत्सेवा पूर्ण होने पर उनकी सेवा करने का अवसर देने के लिए हमें र्इश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए । हमारे कृत्य सत्सेवा के रूप में हुए हैं अथवा नहीं इसका मापदंड है हमारे प्रयत्नों से मिलनेवाले आनंद की मात्रा । जब हम निरंतर अंतर्मुख होकर, हमारे कृत्य र्इश्वर को अपेक्षित, ऐसा हो रहा है अथवा नहीं, ऐसा देखने लगते हैं तब हमारा भाव तीव्रता से बढता है ।

४.२ भाव बढाने के कुछ और उपाय

नामस्मरण : भाव सहित नामजप करने से ही वह र्इश्वर तक पहुंचता है । हम जिन्हें प्रेम करते हैं अथवा पसंद करते हैं, उनके संबंध में हम बिना किसी प्रयास के पुनः-पुनः विचार करते रहते हैं (जैसे -एक प्रेमी अपनी प्रेमिका के विषय में अथवा एक मां अपने बच्चे के विषय में सोचती है), र्इश्वर से उसी प्रकार का प्रेम करने के लिए मन को अभ्यस्त करना चाहिए । जब कोई र्इश्वर से प्रेम करने लगता है, तो उसे सहजता से र्इश्वर के नाम का स्मरण होता है तथा उस नाम को पुनःपुनः उच्चारने में आनंद मिलता है । इसके उपरांत नामस्मरण उसकी जीवन शैली बन जाती है । प्रत्येक आधे घंटे में हमें र्इश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारे नामजप को सूक्ष्म बनाएं तथा निष्ठापूर्वक करवा लें ।

प्रार्थना तथा कृतज्ञता : साधना हेतु सहायता करने के लिए हमें निरंतर र्इश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए तथा हमारा प्रत्येक कृत्य साधना के अनुरूप हो, इस हेतु भी सहायता के लिए र्इश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए । हम जितनी बार प्रार्थना करते हैं, उतनी बार यह निष्ठा दर्शाते हैं कि हमें उनकी सहायता की आवश्यकता है । इससे हमारे मन में शरणागति का भाव निर्मित होता है, जिससे हमारा अहं अल्प होता है । प्रार्थना शरणागति का पर्यायवाची शब्द है । शरणागति का यह कृत्य कृतज्ञता व्यक्त करने के उपरांत ही पूर्ण होता है । कृतज्ञता, किए गए कार्य का कर्त्तापन गुरु अथवा र्इश्वर को अर्पित करने का ही एक साधन है, जिससे हमारा अहं अल्प हो सकता है । प्रायः साधक अपनी प्रार्थना के अनुसार कुछ भी होने पर/कार्य की सिद्धि होने पर र्इश्वर को धन्यवाद देना भूल जाते हैं । सत्सेवा करने हेतु र्इश्वर की सहायता मिलने के उपरांत, जब सेवा सुचारु रूप से होने लगती है, तो सेवा होने के उपरांत मिलनेवाले आनंद से संतुष्ट होकर हम कृतज्ञता व्यक्त करना भूल जाते हैं । अनुभूति अथवा आनंद को अनुभूत करने से साधक का सूक्ष्म-अहं बढने की संभावना रहती है । इसलिए अनुभूति अथवा आनंद को अनुभूत करने पर उसके प्रति कर्त्तापन अर्पित करने हेतु कृतज्ञता व्यक्त करना महत्त्वपूर्ण है ।

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अध्ययन एवं सत्संग : भाव बढाने का एक सरल मार्ग है, भाव युक्त साधकों के प्रयासों का अध्ययन करना । इसके लिए सत्संग में उपस्थित रहकर र्इश्वर के प्रति भाव रखनेवाले साधकों का निरीक्षण कर उनसे सीखना आवश्यक है । हमारा सुझाव है कि SSRF का ग्रंथ, भावजागृति कैसे करें पढें तथा इससे प्रतिदिन कुछ नया व्यवहार में लाएं ।

सीखने की वृत्ति : सभी में र्इश्वर का अस्तित्त्व देखने का प्रयास करें तथा सभी से कुछ सीखने की दृष्टि रखें । इसमें अच्छी अथवा बुरी कोई भी परिस्थिति सम्मिलित हो सकती है । जब हम सीखने की स्थिति में होते हैं, हम सदैव आनंदी रहते हैं क्योंकि हमारा भाव रहता है कि र्इश्वर हमारे भीतर हैं तथा प्रत्येक परिस्थिति एवं अनुभव से, हम अच्छा साधक कैसे बनें, यह सीखते रहते हैं ।

अहं क्षीण करना : यदि हम गुरु के विशेष कार्य के संदर्भ में सदैव चिंतन करते रहें, तो हमारे कृत्य ईश्‍वरेच्छा से होने लगते हैं । सत्सेवा करते समय हमें अन्यों के विषय में अपने मन में कोई भी गलत/त्रुटिपूर्ण प्रतिक्रिया अथवा शंका नहीं आने देना चाहिए, क्योंकि यदि हमारी प्रतिक्रिया से अन्य साधकों को दुःख पहुंचेगा तब हमपर गुरु की कृपा का वर्षाव नहीं होगा । इसलिए सदैव सेवक के रूप में भक्ति करने का अभ्यास करना चाहिए । भक्ति के इस प्रकार में भक्त र्इश्वर को ही अपना सर्वेसर्वा तथा स्वयं को उनका पुत्र अथवा सेवक मानता है । जब हम विनम्र होंगे, हम अपने अहं को क्षीण करने का प्रयास करेंगे तो इस प्रकार अपने भाव को बढाने हेतु प्रयास करने में सक्षम हो पाएंगे ।