कृतज्ञता का महत्त्व क्या है ?

१. कृतज्ञता क्या होती है ?

ईश्वर हमारे सृजनकर्त्ता हैं, जीवन की प्रत्येक वस्तु उन्होंने ही हमें दी है, हमारा जीवन भी उनकी ही देन है । प्रतिदिन सुबह जब हम उठते हैं, तो उनकी कृपा से ही एक और नया दिन जीने के लिए मिलता है । पृथ्वी पर मिला जन्म हमारे लिए अनमाेल है; क्योंकि यही एक लोक है जहां हम साधना कर अपने जीवन के अंतिम उद्देश्य की प्राप्ति कर सकते हैं । जब भी कोई व्यक्ति हमारे लिए कुछ करता है, तो उसके प्रति कृतज्ञता लगती है । यद्यपि, हममें से अधिकतर लोग हमें सब कुछ देनेवाले ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त नहीं करते । ईश्वर द्वारा हमारे लिए किए गए सर्व उपकारों के लिए उनके प्रति आभार व्यक्त करने को साधना के अंतर्गत कृतज्ञता व्यक्त करना कहते हैं । अपनी आध्यात्मिक यात्रा के समय साधक के लिए कृतज्ञता भाव में सदैव रहने की क्षमता अति महत्वपूर्ण तथा अत्यंत आवश्यक भाग है ।

वास्तविकता यह है कि अधिकतर लोग यह तो मानते हैं कि ईश्वर सृष्टि के निर्माता हैं; परंतु इसके लिए उन्हें र्इश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती । उन्हें ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि वे सोचते हैं कि उनके जीवन में सामान्यतः जो कुछ भी, अच्छा-बुरा, हो रहा है, वह सब उनकी अपनी इच्छा के कारण हो रहा है । केवल असाधारण परिस्थितियों में, जैसे कोई बच्चा, जो किसी असाध्य व्याधि से ग्रस्त हो और आर्तता से प्रार्थना करने पर चमत्कारिक रूप से वह स्वस्थ हो जाए तब ही हम कृतज्ञता व्यक्त करने की सोचते हैं । यद्यपि यहां पर भी, जिस प्रकार से ईश्वर ने हमारी तत्काल सहायता की, उनकी इस कृपा का स्मरण भी अल्प समय के लिए रहता है । जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, व्यक्ति अपनी पुरानी दिनचर्या के अनुसार आचरण करने लगता है और तब तक करता रहता है जब तक कि कोई दूसरी समस्या आकर खडी न हाे जाए जिसके लिए उसे पुनः ईश्वर से कृपा करने हेतु प्रार्थना करनी पडे ।

आध्यात्मिक दृष्टि से सामान्य व्यक्ति के जीवन में, वर्त्तमान समय में ६५ प्रतिशत घटनाएं प्रारब्ध के अनुसार और ३५ प्रतिशत हमारे क्रियमाण कर्म के अनुसार होती हैं । जैसे-जैसे साधना पथ पर हमारी प्रगति होती है, ईश्वर के अस्तित्व का हमें भान होने लगता है और जब हमें उनके अस्तित्व का भान होने लगता है, तब हमें उनकी कृपा का तथा हमारे जीवन में सब कुछ ईश्वर की इच्छा से ही हो रहा है, यह भान भी होने लगता है । यह अवस्था अथवा इस तथ्य का भान तथा उसकी स्तुति ६० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के उपरांत ही होती है । इसी अनुभव के साथ आध्यात्मिक दृष्टि से वास्तविक रूप में कृतज्ञता का भाव उत्पन्न होता है ।

अध्यात्मशास्त्र के विद्यार्थी तथा साधकों में अच्छी अथवा बुरी, हर परिस्थिति से सीखने की वृत्ति निर्मित होती  है । विविध परिस्थितियाें तथा जीवन में घटित होनेवाली घटनाओं में वह अपने दोष अथवा गुण देख पाना सीखने लगता है । इस प्रकार से वह अपने स्वभावदोषों को किस प्रकार घटाना है यह सीखता है । साथ ही, उसे अपने गुण समझ में आने लगते हैं । जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में, उसे स्वयं को सुधारने के संकेत मिलते हैं; जो मात्र स्वयं में विद्यमान गुणों को बढाने के लिए ही नहीं अपितु अपने स्वभावदोषों को नए गुणों से परिवर्तित करने के लिए भी होते हैं । उसे भान रहता है कि ईश्वर अच्छी अथवा बुरी, प्रत्येक परिस्थिति में उसमें साधकत्व निर्माण कर रहे हैं । इससे वह ईश्वर के प्रति अच्छी अथवा बुरी, प्रत्येक परिस्थिति में कृतज्ञता व्यक्त करता है क्योंकि उसे लगता है कि ईश्वर का वरदहस्त (कृपा) उसके जीवन में परिस्थितियों की निर्मिति तथा उससे आध्यात्मिक स्तर पर सीख पाने की क्षमता भी प्रदान करते हैं ।

अधिकतर प्रसंगों में कृतज्ञता, आध्यात्मिक मार्गदर्शक अथवा गुरु के प्रति होती है । इस संदर्भ में कृपया ‘गुरु कौन हैं’ यह लेख देखें और वे किस प्रकार साधक का मार्गदर्शन करते हैं ।

जो साधक नहीं है वह भावनाओं में डूबा रहता है । आध्यात्मिक उन्नति करने के लिए साधक को भावना से (सकारात्मक अथवा नकारात्मक) ऊपर उठना पडता है, तभी उसमें भाव उत्पन्न होता है जिससे उसे सर्वत्र ईश्वर के अस्तित्व का भान होने लगता है । कृतज्ञता हममें भाव वृद्धि करने में सहायक होती है ।

. ऊपरी (सतही) कृतज्ञता एवं भावपूर्ण कृतज्ञता

जब हम कृतज्ञता केवल शब्दों में व्यक्त करते हैं तो वह ऊपर-ऊपर की होती है । साधना के प्रारंभिक अवस्था में, भगवान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए शब्द ढूंढने के लिए भी प्रयास करना पडता है । तब भी अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए ये प्रयास करने आवश्यक हैं जिससे हमारे भीतर कृतज्ञता का संस्कार निर्मित हो ।

प्रारंभिक अवस्था में मनःपूर्वक कृतज्ञता तभी व्यक्त होती है जब हमें हमारे जीवन में साक्षात ईश्वरीय हस्तक्षेप का भान होने लगता है । जैसे हमारे किसी प्रियजन के रोग के ठीक होने की आशा चिकित्सक भी छोड दे और वह अचानक चमत्कारिक ढंग से ठीक हो जाए अथवा किसी बहुत पुरानी समस्या का निदान, आर्त्तता से प्रार्थना करने पर हो जाए । अधिकतर सभी प्रसंगों में, हम अपने जीवन तथा इसमें मिली प्रत्येक वस्तु के लिए बौद्धिक अथवा मानसिक स्तर पर ही कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ।

हम जैसे-जैसे साधना में मग्न होते जाते हैं, हमें एक नई दुनिया का अनुभव होने लगता है, जो अबतक हम से छिपी थी । हमें अनुभूतियां होने लगती हैं और इन अनुभूतियों के माध्यम से ही ईश्वर हमसे वार्तालाप करते हैं । हमारे जीवन में  संयोगवश अनगिनत छोटी-छोटी सुखमयी घटनाएं घटती हैं, जिससे हम धीरे परंतु निश्चित रूप से अपने जीवन में ईश्वर का कृपाहस्त देख पाते हैं । साधना करते समय जो ईश्वरीय सहायता और प्रोत्साहन मिलने से हम सामान्य घटनाओं के लिए भी कृतज्ञता व्यक्त करने लगते हैं । जब हमें कृतज्ञता का भान होता है, और हम उसे पूरे दिन बार-बार व्यक्त करने लगते हैं तब हममें शनैःशनैः कृतज्ञता भाव का निर्माण होने लगता है । जैसे कि इस लेख में ऊपर बताया था, यह कृतज्ञ भाव कि जो कुछ भी हो रहा है, वह ईश्वर की इच्छा से हो रहा है, वे ही कर्त्ता करवन-हार हैं, यह भाव किसी कार्य के होने से पहले, होते समय एवं होने के उपरांत भी बना रहता है । इसलिए वह निरंतर कृतज्ञता व्यक्त करता रहता है, जो ह्रदय से भावपूर्ण शब्दों में व्यक्त होते हैं । इस अवस्था में, हमारी वृत्ति, कृत्य एवं विचारों में कृतज्ञता व्यक्त होने लगती है ।

आध्यात्मिक उन्नति की उच्च अवस्था में अहंभाव अल्प होता है और जब हम कृतज्ञता भावावस्था में होते हैं तब हमारा अहं अल्प रहता है ।

वास्तव में, निरंतर कृतज्ञता भाव में रहना गुरु-कृपा से ही संभव होता है इससे वह निरंतर बना रहता है ।

. कृतज्ञता व्यक्त करने का महत्व क्या है ?

आरंभ में साधक को कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए प्रयास करने पडते हैं; समय बीतने पर, सदैव कृतज्ञता व्यक्त करने पर, जैसे-जैसे आध्यात्मिक स्तर बढने लगता है वह सदैव कृतज्ञता भाव में रहने लगता है । इस अवस्था में पहुंच जाने पर ईश्वर ही सब कुछ करनेवाले हैं, मैं कुछ भी नहीं हूं साधक को इसका भान निरंतर रहता है जिससे उसका सूक्ष्म अहं भी क्षीण होने लगता है । वह अपनी सीमा तथा अपनी क्षमता के अभाव को स्वीकारने लगता है । इसलिए वह किसी भी कठिन परिस्थिति में, हर कृत्य से पहले विनम्रतापूर्वक ईश्वर के शरण जाता है । इसी को ईश्वर के प्रति शरणागति कहते हैं । केवल कठिन परिस्थितियों में ही नहीं, अपितु छोटी-छोटी घटनाओं में भी दिन-प्रतिदिन ईश्वर के चरणों में शरणागत होता है । तब कहीं जाकर समर्पण भाव बढता है । जब हम ईश्वर से भावपूर्ण प्रार्थना करते हैं तो शीघ्र ही वे हमारी प्रार्थना सुनते हैं, जैसे कि ‘ हे प्रभु आप ही मेरी आध्यात्मिक उन्नति करवाएं, आप ही मुझे आगे क्या करना है वह सुझाएं, आप ही मेरा मार्गदर्शन करें । जिस साधक में समर्पण तथा कृतज्ञता का भाव होता है, वह भगवान के सदैव निकट होता है । उसे जो चाहिए ईश्वर से मांगे बिना ही वे उसे प्रदान करते हैं, जैसे अनुभूतियां, उनका मार्गदर्शन एवं ज्ञान ।