प्रार्थना कैसे कार्य करती है ? - एक आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य

सार

इस लेख में हमने प्रार्थना कैसे कार्य करती है इसका विवेचन किया है । प्रार्थना दो प्रकार की होती है – सांसारिक लाभ हेतु और आध्यात्मिक प्रगति हेतु । तदनुसार प्रार्थना का फल भी र्इश्वर के भिन्न तत्वों द्वारा दिया जाता है । आध्यात्मिक शोध द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि अनिष्ट शक्तियां भी हमारी प्रार्थना सुनती (पूरी करती) हैं; पर हमें हानि पहुंचाने के लिए ! व्यक्ति को प्रार्थना का फल मिला जाएगा कि नहीं, इस बात का निर्धारण करने में उसका आध्यात्मिक स्तर एक अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । विश्व शांति हेतु प्रार्थना, एक बहुत ही उच्च विचार है; परंतु इसका अधिकांशतः फल नहीं मिलता क्योंकि प्रार्थना करनेवाले का आध्यात्मिक स्तर इसके लिए पर्याप्त नहीं होता । तथापि जो मात्र एक प्रार्थना द्वारा स्थिति में परिवर्तन ला सकते हैं वे हैं संत, परंतु वे इस प्रकार की प्रार्थना को निरर्थक मानते है; क्योंकि वे पूर्ण रूप से र्इश्वर इच्छा को ही अपनाते हैं और उसे अपनी इच्छा से भिन्न नहीं समझते । अंत में प्रार्थना का फल मिलने में प्रार्थना की मुद्रा का भी बडा योगदान होता है ।

१. प्रार्थना की कार्यविधि का परिचय

जब अपने दैनिक जीवन में कठिन और असहनीय स्थितियाें जैसे, अमूल्य वस्तु खो जाना, असाध्य रोग, बडी आर्थिक हानि आदि का सामना करते समय मनुष्य र्इश्वर से अथवा उनके किसी तत्व जिन्हें हम देवता कहते हैं, उनसे प्रार्थना करता है । इस प्रकार की प्रार्थना एेहिक अथवा सांसारिक इच्छाओं से की जाती है ।

जिन साधकों के जीवन का ध्येय आध्यात्मिक उन्नति करना है, वे केवल कठिन परिस्थिति में ही नहीं, अपितु दैनिक जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में भी भगवान से प्रार्थना करते है । उनकी ये प्रार्थनाएं सांसारिक इच्छाओं के लिए नहीं, अपितु साधना में उन्नति के लिए होती है और ऐसी प्रार्थना को साधना का एक अंग कहा जाता है ।

यह लेख दोनों प्रकार की प्रार्थनाओं की पूरी होने की कार्यविधि समझाएगा ।

इस लेख को अच्छे से समझने हेतु कृपया निम्नलिखित संदर्भ लेख पढें :

इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि जब जीवन में आनेवाली समस्याओं का मूल कारण शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक स्वरूप का हो सकता है । SSRF द्वारा किए गए शोध दिखाते हैं कि जीवन की ८०% समस्याओं का मूल कारण आध्यात्मिक स्वरूप का होता है । जीवन की समस्याओं के आध्यात्मिक कारणों में प्रारब्ध और मृत पूर्वज, ये दो महत्वपूर्ण घटक होते हैं ।

२. प्रार्थना का फल कैसे मिलता है ? इसकी कार्यविधि क्या है ?

२.१ हमारी प्रार्थना का फल कौन देता है ?

  • नीचे दिए गए चित्र में दर्शाया गया है कि हमारी प्रार्थना का फल कौन देता है ?, यह प्रार्थना के प्रकार पर निर्भर करता है । सामान्यतया, प्रार्थना व्यक्ति के आध्यात्मिक स्तरानुसार भिन्न-भिन्न होती है । उदाहरण हेतु ३०% आध्यात्मिक स्तर का व्यक्ति अधिकांशतः सांसारिक लाभ हेतु प्रार्थना करेगा । ५०% आध्यात्मिक स्तर का व्यक्ति साधना में उन्नति हेतु प्रार्थना करेगा । उसी अनुसार ब्रह्मांड की विभिन्न प्रकार की सूक्ष्म-शक्तियां प्रार्थना का फल देती हैं । रोचक बात यह है कि उस स्थिति में अनिष्ट शक्तियां भी प्रार्थना का फल देती हैं,  जब प्रार्थना में किसी अन्य व्यक्ति को क्षति पहुंचाने की कामना हो अथवा व्यक्ति को अपने प्रभाव में फंसाने के लिए आरंभ में वे उनकी कामनाओं की पूर्ति करना हो । उदाहरणार्थ नीचे दिए चित्र में दर्शाए अनुसार, एक व्यक्ति जो दूसरे की मृत्यु हेतु प्रार्थना करता है उसकी सहायता चौथे पाताल की सूक्ष्म अनिष्ट शक्तियां करती है । सांसारिक सुख के लिए की गर्इ प्रार्थना अधिकांशतः क्षुद्र देवी- देवता अथवा निम्न स्तर की सकारात्मक शक्तियां पूरी करती हैं । साधना में उन्नति हेतु की गर्इ प्रार्थना उच्च लोक के देवी-देवताओं अथवा उच्च सकारात्मक शक्तियों द्वारा पूरी की जाती है ।
हमारी प्रार्थना का फल कौन देता है ?
  • जब हम र्इश्वर अथवा किसी विशिष्ट देवता से नौकरी , असाध्य रोग आदि जैसी किसी अपेक्षा के साथ प्रार्थना करते हैं, तो हमारी प्रार्थना का फल, पहले बताए अनुसार क्षुद्र देवताओं अथवा निम्न स्तर की सकारात्मक शक्तियों द्वारा दिया जाता है । अब हम नौकरी के लिए व्याकुलता से प्रार्थना करनेवाले व्यक्ति का उदाहरण देखेंगे । प्रारब्ध के अनुसार यदि इस व्यक्ति के जीवन में अगले पांच वर्षोंतक नौकरी नहीं है, तो निम्न स्तर की सकारात्मक शक्तियां अथवा क्षुद्र देवता उस व्यक्ति के जीवन के ये पांच वर्ष भविष्य में स्थानांतरित कर उसकी इच्छा पूर्ति करेंगे । इस प्रकार उस व्यक्ति को जीवन के किसी अन्य समय में बिना नौकरी के रहना ही पडेगा । (क्योंकि किसी भी परिस्थिति में प्रत्येक व्यक्ति को अपना प्रारब्ध भोगना ही पडता है और केवल साधना से ही उस पर विजय प्राप्त की जा सकती है ।)
  • यदि किसी सांसारिक समस्या के कारण साधक की साधना में बाधा उत्पन्न हो रही हो, तो उच्च स्तर के देवता भी कभी-कभी उस स्तर पर साधक की सहायता करते हैं ।

२.२ प्रार्थना का फल कैसे मिलता है ?

  • जब व्यक्ति प्रार्थना करता है, तब वह व्याकुलता से र्इश्वर का स्मरण करता है और अपने अंतर्मन की बात उन्हें बताता है । बिंब-प्रतिबिंब के नियमानुसार, र्इश्वर भी उससे निकटता अनुभव करते हैं ।
  • प्रार्थना में ब्रह्मांड के देवता तत्वों को सक्रिय करने की क्षमता है । जब कोई प्रार्थना के साथ कृतज्ञता व्यक्त करता है तो सूक्ष्मतम तरंगे उत्पन्न होती हैं । इन तरंगों में केवल देवताओं को सक्रिय करने की ही नहीं, अपितु स्पर्श करने की भी क्षमता होती है; फलस्वरूप देवता तत्त्व अतिशीघ्र सक्रिय होता है । देवता तत्त्व के सक्रिय होने से प्रार्थना का फल मिलता है । देवता अपनी संकल्प शक्ति द्वारा प्रार्थना का फल देते है । पढें संदर्भ लेख – देवता कौन होते है ?

    प्रार्थना के साथ की जानेवाली कृतज्ञता के कुछ उदाहरण

    • हे र्इश्वर, कृपया मुझे यह नौकरी मिलने दीजिए, मुझे इसकी बहुत आवश्यकता है । हे र्इश्वर, आपने मुझे यह प्रार्थना करने का विचार दिया, इसलिए मैं आपके चरणों में कृतज्ञ हूं ।
    • हे र्इश्वर, पूरे दिन में मुझसे होनेवाले सभी कृत्य साधना के रूप में होने दीजिए । हे र्इश्वर, आपने मुझे यह विचार देकर मुझसे यह प्रार्थना करवाई, इसलिए मैं आपके चरणों में कृतज्ञता व्यक्त करता हूं  ।
  • प्रार्थना र्इश्वरीय तरंगों को व्यक्ति की ओर आकर्षित करती है और फलस्वरूप व्यक्ति के सर्व ओर का रज -तम नष्ट हो जाता है । जिससे उसके सर्व ओर का वातावरण तुलनात्मकरूप से अधिक सात्विक हो जाता है । जैसे ही वातावरण में सत्व गुण की वृद्धि होती है, व्यक्ति के विचार न्यून हो जाते हैं और वे सात्विक भी हो जाते हैं । बाहरी वातावरण से मन अधिक प्रभावित हो जाने के कारण ऐसा होता है ।
  • प्राणदेह और मनोदेह संबंधी अधिक जानकारी के लिए पढें, संदर्भ लेख  – ‘‘मनुष्यदेह किन घटकों से बने हैं ?’’
    सूक्ष्म शरीर के प्रत्येक घटक का सूक्ष्मतर आच्छादन (कोष) होता है और वह अधिक शक्तिशाली होता है । इस प्रकार प्राणदेह, मनोदेह, कारणदेह (बुद्धि), महाकारण देह (सूक्ष्म अहं), इन सभी के सर्व ओर भिन्न-भिन्न कोष होते हैं ।
  • प्रार्थना से प्राणमय कोष में सत्वगुण के कणों की वृद्धि होती है । जब हम कृतज्ञता व्यक्त करते हैं, तब मनोमय कोष में सत्वगुण के कणों की वृद्धि होती है । इस प्रकार कृतज्ञता सहित की गर्इ प्रार्थना के फलस्वरूप प्राणमय कोष और मनोमय कोष की आध्यात्मिक शुद्धि होती है ।
  • प्राणमय कोष और मनोमय कोष की आध्यात्मिक शुद्धि होने से इन कोषों में विद्यमान संस्कार घटने लगते हैं । जैसे-जैसे संस्कार घटते जाते हैं, स्वयं के प्रति विचार भी घटने लगते हैं और सांसारिक वस्तुओं के प्रति आकर्षण भी न्यून होने लगता है । इससे र्इश्वर प्राप्ति की इच्छा तीव्र होकर उनसे एकरूप होने की लगन बढती है । साथ ही दोनों कोषों की शुद्धि होने से अनिष्ट शक्तियां शरीर में प्रवेश नहीं कर पातीं ।
  • देखे संदर्भ लेख –  मन के संस्कार शुद्ध करने में नामजप किस प्रकार सहायक होता है ?
  • जब हम प्रार्थना करते हैं, तब हम अपनी समस्या को सुलझाने में अपनी असमर्थता स्वीकारते हैं । इस प्रकार अपनी न्यूनता देखनेसे हमारा अहं क्षीण होता है । अहं क्षीण होने से हमारे आध्यात्मिक स्तर में अस्थायी वृद्धि होती है । फलतः सत्व गुण में भी अस्थायी वृद्धि होती है । आगे जब हम कृतज्ञता व्यक्त करते हैं, तब हममें नम्रता उत्पन्न होती है जिसका हमारे आध्यात्मिक स्तर पर और भी अधिक सकारात्मक प्रभाव पडता है । जिससे र्इश्वर के साथ हमारा आंतरिक सान्निध्य बढता है । सत्वगुण में वृद्धि होने से समस्या पर विजय प्राप्त करने अथवा उसका सामना करने की हमारी क्षमता बढती है  ।

३. हमारी प्रार्थना कब सफल होती है ?

हमारे जीवन की, ६५% घटनाएं प्रारब्ध के कारण होती है । प्रारब्ध की घटनाएं वे हैं, जो हमारे नियंत्रण में नहीं होती । कृपया पढें संदर्भ लेख – प्रारब्ध और क्रियमाण कर्म

प्रारब्धानुसार निश्चित घटना, अच्छी हो अथवा बुरी हमारे जीवन में होने ही वाली है । रोग अथवा दुखदायी विवाह जैसी घटनाएं अनिष्ट प्रारब्धानुसार होती हैं । सामान्य व्यक्ति जीवन में जब अनिष्ट घटना होती है, तभी र्इश्वर से प्रार्थना करता है । इस अप्रिय घटना से मुक्ति पाने हेतु वह र्इश्वर से प्रार्थना करता है; परंतु, हम जानते है कि हमारी प्रार्थना सदैव फलदायी नहीं होती । देखें संदर्भ लेख – जीवन की समस्याओं का मूल आध्यात्मिक कारण – प्रारब्ध

अब प्रश्न यह है कि इसका नियम क्या है ? प्रारब्ध के अनुसार होनेवाली अप्रिय घटना के विरुद्ध प्रार्थना कब सफल होती है, जिससे कि उस प्रार्थनाद्वारा वह घटना ही घटित न हो अथवा हमें उससे सुरक्षा तो प्राप्त हो ?

सामान्य नियम है :

  • यदि प्रारब्ध की तीव्रता की तुलना में प्रार्थना की तीव्रता अधिक है, तो प्रार्थना सफल होगी ।
  • यदि प्रारब्ध की तीव्रता प्रार्थना की तुलना में अधिक है, तो प्रार्थना आंशिक रूप से सफल  होगी अथवा नहीं होगी ।

४. प्रार्थना प्रभावी होना किस बात पर निर्भर करता है ?

प्रार्थना प्रभावी होने के लिए निम्न घटक सहायक होते हैं :-

  • प्रार्थना करने वाले व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर – व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर जितना अधिक होगा, प्रार्थना की परिणामकारकता उतनी ही अधिक होगी ।
  • प्रार्थना की गुणात्मकता – प्रार्थना के स्वरूप पर निर्भर होती है उदा. यांत्रिक, अंतःकरण से अथवा भावपूर्ण ।
  • प्रार्थना किसके लिए कर रहे हैं (जैसे कि अपने अथवा दूसरों के लिए) – दूसरों के लिए प्रार्थना करने हेतु अधिक आध्यात्मिक बल की आवश्यकता होती है । समाज के जितने अधिक व्यक्ति उस घटना से प्रभावित होने की संभावना होगी इच्छित फल प्राप्त करने के लिए उतने ही अधिक आध्यात्मिक बल की आवश्यकता होती है । केवल उच्च कोटि के संत ही समाज में परिवर्तन ला सकते हैं ।
  • अहंकार – प्रार्थना परिणामकारक होने में अल्प अहंकार का बहुत बडा योगदान होता है ।
  • प्रार्थना करते समय व्यक्ति कैसी मुद्रा अपनाता है ? समाज के अधिकांश लोगों के लिए यह  एक महत्त्वपूर्ण घटक है; क्योंकि ऊपर बताए घटक अधिकांश लोगों में अल्प ही होते हैं ।

४.१ व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर और प्रार्थना

प्रार्थना करनेवाले व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर, प्रार्थना की प्रभावकारिता निश्चित करने में एक महत्त्वपूर्ण घटक है ।

  • ६०% से अधिक आध्यात्मिक स्तर के साधकों को प्रार्थना की आवश्यकता नहीं होती । वे इस भाव में कार्य करते हैं कि – सब ईश्वरीय इच्छा से ही होने दीजिए । वे यह प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि उनके जीवन की प्रत्येक घटना और जो कुछ मिल रहा है, वह र्इश्वर के आशीर्वाद और कृपा के कारण है । उनके मन में निरंतर र्इश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव बना रहता है । एक बार यह स्थिति प्राप्त होने के पश्चात्, प्रार्थना की आवश्यकता नहीं रहती ।
  • जिनका आध्यात्मिक स्तर ३०% से कम है, उनकी प्रार्थना में क्षमता नहीं होती और उन्हें प्रार्थना से केवल मनोवैज्ञानिक लाभ होता है । अहं का आवरण अधिक होने से उनकी प्रार्थना देवता तत्त्व तक नहीं पहुंच पाती ।
  • अतएव, हम देखते है कि प्रार्थना अधिकतर उन व्यक्तियों के लिए प्रभावशाली ढंग से कार्य करती है जिनका आध्यात्मिक स्तर ३०% – ६०% है ।

देखें संदर्भ लेख – ‘आध्यात्मिक स्तर के आधार पर विश्व की जनसंख्या का वर्गीकरण

कर्इ बार हम सुनते हैं कि लोग एकत्रित होकर विश्व शांति हेतु अथवा ग्लोबल वार्मिंग अल्प होने जैसे किसी महान उद्देश्य से प्रार्थना करते हैं । परिणामों के परिप्रेक्ष्य से देखा जाए, तो यह अधिक से अधिक एक मनोवैज्ञानिक प्रयत्न है । क्योंकि विश्व की अधिकांश घटनाओं का मूल कारण आध्यात्मिक होता है और केवल उच्च कोटि के संतो के आध्यात्मिक प्रयत्नों द्वारा ही उनका निराकरण हो सकता है । भले ही करोडों लोग (साधारण आध्यात्मिक स्तर के) एकत्रित होकर विश्व की बडी घटना के लिए प्रार्थना करें, तब भी यह अनेक चींटियों द्वारा मिलकर एक चट्टान को उठाने के प्रयास जैसा होगा  ।

टिप्पणी : कुछ लोग सोच रहे होंगे कि यदि संत विश्वव्यापी परिवर्तनों को प्रभावित कर सकते हैं, तो वे विश्व शांति हेतु अथवा ग्लोबल वार्मिंग न्यून करने हेतु प्रयत्न क्यों नहीं करते ? विरोधाभास यह है कि संतो के पास वैश्विक घटनाओं को प्रभावित करने के लिए आवश्यक आध्यात्मिक बल होता है, परंतु उनमें यह भाव होता है कि केवल र्इश्वर ही उचित-अनुचित जानते हैं । साथ ही वे साक्षीभाव को प्राप्त हुए होते है, उनके स्वभाव के अनुसार वे र्इश्वर के किसी भी योजना में हस्तक्षेप नहीं करते और पूर्णरूप से उनकी योजना को स्वीकारते हैं । उन्हें यह पूर्णरूप से ज्ञात होता है कि प्रत्येक घटना व्यक्तिगत (व्यष्टि) अथवा सामूहिक (समष्टि) प्रारब्ध के अनुसार घटित होती है । (प्रारब्ध जनित घटनाएं वे हैं, जो हमारे पूर्व जन्मों के अथवा इस जन्म के कर्म के कारण निर्मित होती हैं ।)

५. प्रार्थना के लिए कौनसी मुद्रा सर्वश्रेष्ठ है ?

आध्यात्मिक शोध द्वारा, SSRF को यह ज्ञात हुआ है कि निम्न मुद्रा अथवा स्थिति प्रार्थना द्वारा अधिकतम र्इश्वरीय शक्ति प्राप्त करने के लिए अधिक अनुकूल है । अतः SSRF इसे अपनाने का सुझाव देता है ।

सूक्ष्म-ज्ञान पर आधारित निम्न चित्र मुद्रा के दो चरण तथा प्रार्थना करते समय इनसे आध्यात्मिक स्तर पर होनेवाली प्रत्यक्ष प्रक्रिया दर्शाते हैं ।

५.१ प्रार्थना की मुद्रा के पहले चरण का विश्लेषण

प्रार्थना की आरंभिक मुद्रा ( स्थिति )

इस मुद्रा की पहली अवस्था में प्रार्थना हेतु दोनों हाथ उठाकर अंगूठे से आज्ञाचक्र (दोनों भौहों के मध्य का आध्यात्मिक उर्जा केंद्र) को हलके से स्पर्श करते हैं । इस मुद्रा की स्थिति में आने के पश्चात ही प्रार्थना आरंभ करना अच्छा है ।

जब हमारा शीश इस अवस्था में झुकता है, हममें शरणागत भाव जागृत होता है । परिणामस्वरूप ब्रह्मांड के विशिष्ट देवताओं की सूक्ष्म-तरंगे कायर्रत होती हैं । ये देवता तरंगे हमारी उंगलियों के अग्रभाग से, जो कि ग्रहण करने का कार्य करते हैं, भीतर प्रवेश करती हैं । आगे ये तरंगे अंगूठे से आज्ञाचक्र के माध्यम से शरीर के भीतर प्रवाहित होती हैं । इससे हमारे शरीर में सकारात्मक आध्यात्मिक शक्ति बढती है । परिणामस्वरूप हमें हलका प्रतीत होने लगता है अथवा शारीरिक एवं मानसिक कष्ट से राहत मिलती है ।

५.२ प्रार्थना की मुद्रा के दूसरे चरण का विश्लेषण

प्रार्थना की अंतिम मुद्रा (स्थिति)

प्रार्थना समाप्त करने के पश्चात्, व्यक्ति को सूक्ष्म-ज्ञान पर आधारित चित्रांकन में दिखाए अनुसार दूसरी मुद्रा करनी चाहिए । अर्थात् प्रार्थना के पश्चात् हाथ तुरंत नीचे करने की अपेक्षा, कलार्इ छाती से स्पर्श करे, इस प्रकार से उसे छाती के मध्य में लाएं । ऐसा करने से देवता तत्त्व का चैतन्य पूर्णरूप से ग्रहण करने की प्रक्रिया सुगम होती है । प्रारंभ में देवतातत्त्व का जो चैतन्य उंगलियो के अग्रभाग में प्रविष्ट हुआ है, वह अब अनाहत चक्र से छाती में संक्रमित होता है । आज्ञाचक्र की भांति अनाहतचक्र भी सात्विक तरंगे अवशोषित करता है । कलाई को छाती से स्पर्श करने से अनाहतचक्र कार्यरत होकर अधिक से अधिक सात्विक तरंगो को ग्रहण करने में सहायता करता है । अनाहत चक्र कार्यरत होने पर साधक में भाव और भक्ति जागृत होती है ।

प्रार्थना की मुद्रा की इस अवस्था में, व्यक्ति को आत्मचिंतन तथा र्इश्वर के अस्तित्व की अनुभूति  पर ध्यान लगाना चाहिए ।

५.२.१ प्रार्थना करते समय सिर की उचित अवस्था

प्रार्थना के समय सिर की उचित स्थिति
प्रार्थना करते समय उंगलिया मस्तक से समांतर हो और अंगूठा आज्ञाचक्र को हलके स्पर्श करे

कृपया ध्यान दें:

  • शरीर झुका होना चाहिए ना कि तना हुआ (सीधा) ।
  • उंगलिया मस्तक से समांतर हो । उंगलिया तनी नहीं अपितु तनाव मुक्त (शिथिल) हों ।
  • उंगलिया एक दूसरे को स्पर्श करती हों –  फैली हुई न हों
  • अंगूठे से आज्ञाचक्र को हलका स्पर्श हो ।
  • हाथ हल्के से दबे हुए हो और हथेलियों के मध्य थोडी रिक्ति हो । ५०% आध्यात्मिक स्तर से ऊपर के साधकों के लिए, हथेलियों के मध्य रिक्ति होना आवश्यक नहीं है ।

५.३ भावपूर्ण प्रार्थना करते समय

५०% से अधिक आध्यात्मिक स्तर का साधक जब भावपूर्ण साधना करता है, तब होनेवाली प्रक्रिया सूक्ष्म-ज्ञान पर आधारित निम्नांकित चित्र दर्शाता है । महत्वपूर्ण बात यह है कि आसपास के व्यक्तियों को भी साधकद्वारा आकृष्ट चैतन्य का लाभ होता है । (सूक्ष्म ज्ञान पर आधारित चित्रांकन का वह भाग भी देखें जहां दिखाया है कि ५%  स्पंदन शरीर से बाहर संक्रमित होते हैं ।) जब कोई व्यक्ति भावपूर्ण प्रार्थना करता है, तब आसपास के व्यक्तियों में भी भाव जागृत होने का यही कारण है ।

भावसहित प्रार्थना

५.४ क्या प्रार्थना करते समय सदैव यह मुद्रा करना आवश्यक है ?

यदि किसी का आध्यात्मिक स्तर उच्च (५०% से अधिक) हो, तो सूक्ष्म र्इश्वरीय तरंगे सीधे ब्रह्मरंध्र द्वारा ग्रहण करने की प्रक्रिया आरंभ होती है । ब्रह्मरंध्र सहस्रार चक्र के ऊपर स्थित एक सूक्ष्म द्वार होता है (कुण्डलिनी योग के अनुसार) जिससे विश्वमन और विश्वबुद्धि से संपर्क करना संभव होता है । यह सूक्ष्म द्वार निम्न आध्यात्मिक स्तर के व्यक्तियों में बंद रहता है । अल्प अहं ब्रह्मरंध्र को खोलने में सहायक होता है । आध्यात्मिक उन्नति की इस अवस्था में ऊपर बताई गर्इ प्रार्थना की मुद्राओं की आवश्यकता न्यून होती जाती है ।

५०% से ८०% आध्यात्मिक स्तर का व्यक्ति यदि प्रार्थना करते समय बताई गई मुद्रा करता है, तो उसे अधिक चैतन्य का लाभ मिलता है । ५०% स्तर के व्यक्ति में यह लाभ अधिकतम ३०% तक होता है । बढते स्तर के साथ यह लाभ न्यून होता जाता है ।

अधिकांश व्यक्तियों का आध्यात्मिक स्तर उच्च नहीं होता । वे ब्रह्मरंध्र के माध्यम से र्इश्वरीय स्पंदन ग्रहण करने में सक्षम नहीं होते । परंतु उंगलियों के अग्रभाग सूक्ष्म-उर्जा ग्रहण करने तथा संक्रमित करने में अत्यंत संवेदनशील होते हैं; इसलिए अधिकांश व्यक्ति ( ३०-६०% आध्यात्मिक स्तर के) उंगलियों के अग्रभाग से (न्यून मात्रा में) सूक्ष्म-तरंगे ग्रहण कर सकते हैं । परंतु इन व्यक्तियों के लिए ऊपर दर्शाई गई मुद्रा में प्रार्थना करना आवश्यक है । अन्य सभी घटक समान होंगे, तो ऊपर बताई गई मुद्रा में प्रार्थना करने से, बिना मुद्रा की प्रार्थना की तुलना में व्यक्ति को २०% तक का अधिक लाभ होता है ।

५.५ प्रार्थना की मुद्राओं का तुलनात्मक प्रभाव

प्रार्थना करते समय हम हाथोंकी विभिन्न प्रकार की मुद्राएं करते है । प्रार्थना से संबंधित विविध प्रकार की मुद्राओं संबंधी आध्यात्मिक शोध करनेपर प्रभावकारिता संबंधी, प्राप्त परिणाम इस प्रकार हैं :

प्रार्थना की विविध मुद्राओं की गुणवत्ता

प्रार्थना की मुद्रा तुलनात्मक आध्यात्मिक लाभ  अच्छी शक्ति ग्रहण करने का स्तर  अच्छी शक्ति ग्रहण करने की मात्रा  अनिष्ट शक्तियों द्वारा बाधा 
1

८ प्रतिशत

अधिक

३० प्रतिशत

२ प्रतिशत

2 ४ प्रतिशत मध्यम १० प्रतिशत ४ प्रतिशत
3 २ प्रतिशत अल्प ५ प्रतिशत ५ प्रतिशत
4 २ प्रतिशत अल्प ५ प्रतिशत ५ प्रतिशत
टिप्पणी:
१. १००% का अर्थ है पूर्ण आध्यात्मिक लाभ, फलस्वरूप ईश्वर से एकरूप होना
२. प्रकट देवता तत्व का स्तर, जैसे सर्वोच्च, मध्यम अथवा निम्न स्तर के देवी-देवता ।
३. कितने प्रतिशत मात्रा में देवता तत्व ग्रहण हुआ ।
४. यह अनिष्ट शक्तियों द्वारा प्रार्थना में बाधा डालकर साधक की श्रद्धा न्यून करने की संभावना दर्शाता है । अनिष्ट शक्तियां प्रार्थना में अडचन उत्पन्न करती है जिससे कि व्यक्ति की प्रार्थना फलप्रद न हो, फलस्वरूप व्यक्ति का विश्वास न्यून हो जाता है ।

एक ही प्रार्थना उपर्युक्त सभी मुद्राओं में कर स्वयं ही सूक्ष्म-प्रयोग करें ।

कभी-कभी लोग अपनी उंगलियां आपस में फंसाकर प्रार्थना करते हैं । यह आध्यात्मिक स्तर पर अनुचित है क्योंकि यदि समीप खडा व्यक्ति अनिष्ट शक्तियों द्वारा प्रभावित होगा, तो वह काली शक्ति हममें संक्रमित हो सकती है ।

पढें संदर्भ लेख, “ विश्व की कितनी जनसंख्या अनिष्ट शक्तियों से प्रभावित है ? ”

६. प्रार्थना की प्रक्रिया के महत्त्वपूर्ण सूत्र – सारांश

  • व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर सामान्यतः यह निर्धारित करता है कि वह साधना में आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्रार्थना करता है अथवा भौतिक सुख की कामना से । प्रार्थना के प्रकार पर वह क्रमशः उच्च लोक के देवताओं द्वारा अथवा निम्न लोकों के देवताओं द्वारा पूरी होगी, यह निर्भर करता है ।
  • भावपूर्ण प्रार्थना करने पर प्रार्थना में बहुत सकारात्मक प्रभाव पडता है ।
  • प्रार्थना के लिए प्रयुक्त मुद्रानुसार प्रार्थना के विभिन्न लाभ होते हैं ।
  • अन्य सभी घटक सामान होते हुए बताई गर्इ मुद्रा में प्रार्थना करने से प्रार्थना फलप्रद होने की संभावना २०% तक अधिक बढ जाती है ।
  • निम्न आध्यात्मिक स्तर के व्यक्तियों द्वारा समाज को प्रभावित करनेवाली विश्व शांति अथवा ग्लोबल वार्मिंग जैसी घटनाओं के लिए की गर्इ प्रार्थना का कोई प्रभाव नहीं होता है ।
  • जब कोई प्रार्थना के साथ कृतज्ञता व्यक्त करता है, तो यह प्रार्थना के प्रभाव में वृद्धि करता है ।