पुण्य एवं पाप क्या है ?

१. प्रस्तावना

दैनिक जीवन में कर्म करते समय, हम उन कर्मों का फल पुण्य एवं पाप के रूप में भोगते हैं । पुण्य एवं पाप हमें अनुभव होनेवाले सुख और दुख की मात्रा निर्धारित करते हैं । अतएव यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि पापकर्म से कैसे बचें । वैसे तो अधिकांश लोग सुखी जीवन की आकांक्षा रखते हैं; परन्तु जिन लोगों को आध्यात्मिक प्रगति की इच्छा है, वे यह जानने की जिज्ञासा रखते हैं कि क्यों मोक्षप्राप्ति के आध्यात्मिक पथ में पुण्य भी अनावश्यक हैं ।

२. पुण्य एवं पाप क्या है ?

पुण्य अच्छे कर्मों का फल है, जिनके कारण हम सुख अनुभव करते हैं । पुण्य वह विशेष ऊर्जा अथवा विकसित क्षमता है, जो भक्तिभाव से धार्मिक जीवनशैली का अनुसरण करने से प्राप्त होती है । उदाहरणार्थ मित्रों की आर्थिक सहायता करना अथवा परामर्श देना पुण्य को आमन्त्रित करना है । धार्मिकता तथा धर्माचरण की विवेचना अनेक धर्मग्रंथों में विस्तृतरूप से की गई है । पुण्य के माध्यम से हम दूसरों का कल्याण करते हैं । उदाहरण के लिए कैन्सर पीडितों की सहायता के लिए दान करने से कैन्सर से जूझ रहे अनेक रोगियों को लाभ होगा, जिससे हमें पुण्य मिलेगा ।

पाप क्या है, पाप बुरे कर्म का फल है, जिससे हमें दुख मिलता है । किसी और का बुरा चाहने की इच्छा से कर्म करने पर पाप उत्पन्न होता है । यह उन कर्मों से उत्पन्न होता है जो प्रकृति अथवा ईश्वर के नियमों के विपरीत अथवा उसके विरुद्ध हों । उदाहरण के लिए यदि कोई व्यापारी अपने ग्राहकों को ठगता है, तो उसे पाप लगता है । कर्त्तव्य-पूर्ति नहीं करने पर भी पाप उत्पन्न होता है, उदा. जब कोई पिता अपने बच्चों की आवश्यकताओं की ओर ध्यान नहीं देता अथवा जब वैद्य अपने रोगियों का ध्यान नहीं रखता ।

पुण्य और पाप इसी जन्म में, मृत्यु के उपरांत अथवा आगामी जन्मों में भोगने पडते हैं ।

पुण्य एवं पाप क्या है, पुण्य और पाप लेन-देन के हिसाब से सूक्ष्म होते हैं; क्योंकि लेन-देन का हिसाब समझना तुलनात्मक रूप से सरल है उदा. परिवार के स्तर पर, परन्तु यह समझना बहुत कठिन है कि क्यों किसीने एक अपरिचित का अनादर किया ।

३. पुण्य और पाप के कारण

पुण्यसंचय के अनेक कारण हो सकते हैं । प्रमुख कारण हैं :

  • परोपकार
  • धर्मग्रंथों में बताए अनुसार धर्माचरण
  • दूसरे की साधना के लिए त्याग करना । उदाहरण के लिए यदि कोई बहू अपने कार्य से छुट्टी लेकर घर संभालती है, जिससे उसकी सास तीर्थयात्रा पर जा सके, तो बहू को सासद्वारा अर्जित तीर्थयात्रा के फल का आधा भाग मिलेगा । तथापि जहांतक संभव हो, दूसरों पर निर्भर होकर साधना न करें ।

पाप संचय के कुछ कारण हैं :

  • क्रोध, लालच एवं ईर्ष्या के रूप में स्वार्थ एवं वासना व्यक्ति को पाप के लिए उद्युक्त करते हैं ।
  • सिद्धांतहीन अथवा क्रूर होना
  • किसी भिखारी से अपमानजनक बात करना
  • मांस एवं मदिरा का सेवन करना
  • प्रतिबन्धित वस्तुएं बेचना, ऋण न चुकाना, काले धनका व्यवहार, जुआ
  • झूठी गवाही देना, झूठे आरोप लगाना
  • चोरी करना
  • दुराचार, व्यभिचार, बलात्कार इत्यादि
  • हिंसा
  • पशुहत्या
  • आत्महत्या
  • ईश्वर, मंदिर, आध्यात्मिक संस्था इत्यादि की संपत्तिका अनावश्यक व्यय एवं दुरुपयोग इत्यादि
  • अधिवक्ताओं को पाप लगता है, क्योंकि वे सत्य को असत्य एवं असत्य को सत्य बनाते हैं ।
  • पति को पत्नी के पापकर्म का आधा फल भोगना पडता है; क्योंकि उसने अपनी पत्नी को पापकर्म करने से न रोकने के कारण वह पाप का भागीदार बनता है ।
  • पतिद्वारा अधर्म से अर्जित संपत्ति व्यय करनेवाली तथा ज्ञात होने पर भी उसे न रोकनेवाली पत्नी को पाप लगता है ।
  • पापी के साथ एक वर्ष रहनेवाला भी उसके पाप का भागी हो जाता है ।

४. पुण्य एवं पाप का प्रभाव

४.१ सुख के रूप में पुण्य का प्रभाव

पुण्य एवं पाप क्या है, पुण्य की मात्रा के अनुपात में व्यक्ति को पृथ्वी पर उतना सुख मिलता है और अंत में पृथ्वी पर अपने जीवनकाल में अपेक्षासहित कर्म से अर्जित पुण्य से वे स्वर्ग में सुख पाते हैं :

  • सुसंस्कृत एवं धनाढ्य परिवार में जन्म
  • बढती आय
  • सांसारिक सुख
  • इच्छापूर्ति
  • स्वस्थ जीवन
  • समाज, संस्था एवं शासनद्वारा प्रशंसा एवं सम्मान
  • आध्यात्मिक प्रगति
  • मृत्यु के उपरांत स्वर्ग सुख

मनुष्य जन्म, अच्छे कुल-परिवार में जन्म, धन, दीर्घायु, स्वस्थ शरीर, अच्छे मित्र, अच्छा पुत्र, प्रेम करनेवाला जीवनसाथी, भगवद्-भक्ति, बुद्धिमत्ता, नम्रता, इच्छाओं पर नियंत्रण एवं पात्र व्यक्ति को दान देने की ओर झुकाव, ऐसे पहलू हैं, जो पूर्वजन्म के पुण्यकर्मों के बिना असंभव है । जब यह सब हो, तो जो पुण्यात्मा इसका लाभ उठाता है और साधना करता है, उसकी आध्यात्मिक प्रगति होती है ।

जब समष्टि पुण्य बढता है, तो राष्ट्र सिद्धांत (दर्शन) और आचरण में सर्वश्रेष्ठ होता है तथा समृद्ध होता है ।

४.२ दुख के रूप में पाप का प्रभाव

कृपया पढें हमारा लेख पाप का फल

५. पुण्य एवं पापार्जन कैसे होता है ?

पुण्य एवं पाप का सिद्धांत समझने के लिए किसी भी कर्म का उद्देश्य जानना महत्त्वपूर्ण है । निम्नलिखित सारणी से यह स्पष्ट होगा, जहां हमने धनार्जन के कर्म की मनोवृत्ति तथा उसे खर्च करने का उद्देश्य विभिन्न उदाहरणों से समझाया है । इससे उत्पन्न पुण्य एवं पाप की मात्रा प्रत्येक उदाहरण के सामने दी है ।हम कैसे धर्नाजन करते है एवं हम कैसे व्यय करते है , इससे निर्मित पाप एवं पुण्य की मात्रा क्या है ?

६. पुण्य की सीमाएं

आध्यात्मिक प्रगतिके परिप्रेक्ष्य में, पुण्य की अपनी सीमा है ।

६.१ पुण्य का फल भोगना पडता है

पुण्य एवं पाप क्या है, पुण्यवान जीवन, मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति को स्वर्गलोक ले जाता है, परन्तु एकबार पुण्य समाप्त हो जाए, तो व्यक्ति को पृथ्वी पर पुनः अगला जन्म लेना पडता है । इस कारण पुण्य भी एक प्रकार का बन्धन है । केवल साधना ही हमें मोक्षतक ले जाती है ।

६.२ सुख भोगने से अंततः पुण्य समाप्त हो जाते हैं

पुण्य एवं पाप क्या है, प्रत्येक क्षण सुख भोगने पर, हमारा पुण्य समाप्त हो जाता है, इसलिए व्यक्ति को पुण्य बढाने के लिए परिश्रम करना पडता है । इसके लिए पुण्यप्रद कर्म अथवा साधना करनी पडती है । अन्तर केवल इतना है कि पुण्यप्रद कर्मों से सुख मिलता है, जबकि साधना से आध्यात्मिक प्रगति होती है अर्थात इससे नंद मिलता है, जो पुण्य-पाप तथा सुख-दुख से परे होता है, इसका उपफल सुख है ।

७. संक्षेप में – पुण्य एवं पाप क्या है!

पुण्य एवं पाप में अन्तर के साथ ही उनकी गहराई और उनके प्रभाव की महत्ता समझने से हम अपने आचरण और कर्मों को नियन्त्रित कर सकते हैं । तथापि दोनों से मुक्त होने हेतु नियमित साधना करना आवश्यक है ।

न पुण्य तारक है, न पाप मारक है, केवल भाव ही तारक है । – प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, पुणे, महाराष्ट्र, भारत.