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जो विश्व पंचज्ञानेंद्रिय, मन और बुद्धि के परे है, उस विश्व को SSRF 'सूक्ष्म विश्व' अथवा 'आध्यात्मिक आयाम' कहता है । सूक्ष्म विश्व देवदूत, अनिष्ट शक्तियां, स्वर्ग आदि अदृश्य विश्व से संबंधित है जिसे केवल छ्ठवीं इंद्रिय के माध्यम से समझा जा सकता हैं | ।

अच्छाई और बुराई में सूक्ष्म-युद्ध प्राचीन काल से समय-समय पर होता रहा है । सूक्ष्म-विश्व के अंतर्गत यह पुनः एक बार वर्ष १९९९ से २०१२ के कालखंड में लडा जा रहा है । इसके पश्चात इस सूक्ष्म-युद्ध की तीव्रता स्थिर होगी और तदुपरांत इ.स. २०१२-२०१३ के पश्चात धीर-धीरे अल्प होती जाएगी । पृथ्वी पर होनेवाला (स्थूल) युद्ध २०१३ से २०१८ तक चलेगा । तदुपरांत विश्व युद्धजन्य स्थिति से बाहर आने के लिए परिवर्तन की स्थिति में चला जाएगा और नए युग की सिद्धता करने लगेगा । इस नए युग का नाम होगा, ईश्वरीय राज्य और इसके आने से संपूर्ण मानव जाति एक सहस्र वर्ष तक शांति और धार्मिकता अनुभव करेगी । हम जिस काल में रह रहे हैं, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि इस युद्ध के परिणाम-उपपरिणामों का अनुभव संपूर्ण विश्व में (ब्रह्मांड में) करने को मिलेगा । तथापि वर्तमान समय ईश्वर प्राप्ति के (सर्वोच्च आध्यात्मिक उपलब्धि) लिए साधना करने के लिए अत्यधिक सहायक है ।

टिप्पणी : इस लेख को समझने के लिए तीन सूक्ष्म मूलभूत घटक : सत, रज और तम  यह लेख पढना आवश्यक है । संपूर्ण सृष्टि इन तीन सूक्ष्म घटकों पर आधारित है । यहां से आगे इस लेख में हम इन तीन घटकों का और उनके विशेषणों का – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक, निरंतर उल्लेख करेंगे । उदा. जब हम व्यक्ति का उल्लेख ‘सात्त्विक व्यक्ति’ ऐसा करेंगे, तो उसका अर्थ होगा कि इस व्यक्ति में सत्त्व की मात्रा अत्यधिक है और वह आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यधिक शुद्ध है ।

१. अच्छाई और बुराई की व्याख्या

आध्यात्मिक दृष्टि से जिन लोगों को अच्छा कहा जाता है, वे :

धर्म वह है जिससे ३ उद्देश्य साध्य होते हैं :
१. समाज व्यवस्था को उत्तम बनाए रखना
२. प्रत्येक प्राणिमात्र की व्यावहारिक उन्नति साध्य करना
३. आध्यात्मिक स्तर पर भी प्रगति साध्य करना ।
- श्री आदि शंकराचार्य
  • जीवित अथवा मृत भी होते हैं (इन्हें सूक्ष्म-देह भी कहते है)
  • इन्हें साधना करने की तीव्र इच्छा होती है
  • ईश्वर को अहं सहित सर्वस्व अर्पित करने का ध्येय पूरा करने का प्रयत्न करते हैं
  • जो अपना जीवन ईश्वर प्राप्ति के लिए समर्पित करते हैं ।

ये ऐसे वैशिष्ट्यपूर्ण लोग होते हैं, जिनका आध्यात्मिक स्तर ३० प्रतिशत से अधिक होता है और जिनमें रज-सत्त्व अथवा सत्त्व अधिक मात्रा में होता है और ये धार्मिक भी होते हैं । जिन लोगों में इन लक्षणोंका अभाव होता है, किंतु अनाथ बच्चों को दान देने समान अच्छा कार्य करते हैं, विशेष रूप से यदि यह कार्य गर्व के साथ किया जाता होगा, तो उनका यह कार्य प्रशंसनीय होते हुए भी, अध्यात्मशास्त्र के अनुसार वे अच्छे कहलाने के पात्र नहीं होते । अच्छे लोग और अच्छे सूक्ष्म-देह  अच्छी शक्तियों के अंतर्गत आते हैं ।

दूसरी ओर, बुरे लोगों में (जीवित अथवा सूक्ष्म-देह) रज-तम अथवा तम की मात्रा अधिक होती है और अधार्मिक होने के साथ-साथ उनमें तीव्र अहं होता है । ये लोग भी कदाचित साधना करते होंगे, परंतु अपनी व्यक्तिगत इच्छा-पूर्ति हेतु आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होने के उद्देश्य से करते हैं । अहं शब्द का प्रयोग यहां पर आध्यात्मिक संदर्भ में किया है । ‘अपना ही मत दूसरों पर थोपनेवाला (दुराग्रही)’ और ‘अपनी संपत्ति के प्रति अतिगर्व से युक्त (गर्वीला)’, इन साधारण अर्थों के अतिरिक्त यहां अहं शब्द का प्रयोग आध्यात्मिक दृष्टि से अपनेआपको ईश्वर से भिन्न समझना भी है । बुरे लोग और बुरे सूक्ष्म-देह दोनों मिलकर अनिष्ट शक्तियां कहलाती हैं ।

केवल अध्यात्मशास्त्र के अनुसार जो ईश्वर प्राप्ति के उद्देश्य से साधना करते हैं और अपने देह, मन, संपत्ति और अहं का त्याग करते हैं तथा उसकी मात्रा बढाते जाते हैं, वे अच्छे वर्ग में आते हैं । अतः अच्छे की इस व्याख्यानुसार, वर्तमान समय में पृथ्वी पर अच्छे लोग अत्यल्प हैं । अधिकतर लोग बुरे वर्ग में आते हैं । इनमें से जो समाज विघातक होने से विश्व की सात्त्विकता अथवा आध्यात्मिक पवित्रता न्यून करने में सहायक होते हैं, वे जनसंख्या के ३० प्रतिशत हैं । साधना का अभाव और माया में रूचि होने के कारण अधिकांश लोगों का उपयोग अनिष्ट शक्तियों द्वारा अनिष्ट कार्यों के लिए किया जाता है ।

२. अच्छी और बुरी शक्तियां कहां से आती है ?

२.१ बुराई कब से अस्तित्व में आई  ?

ब्रह्मांड की प्रत्येक वस्तु एक ही ईश्वर से निर्मित हुई है । सभी में व्याप्त होकर भी सभी के परे भी ईश्वरीय तत्त्व का अस्तित्व होता है । इस दृष्टिकोण से अच्छी शक्तियां और बुरी शक्तियां, दोनों की निर्मिति ईश्वरीय तत्त्व से हुई है । ब्रह्मांड की उत्पत्ति से वे अस्तित्व में हैं । तथापि यह बुरी शक्तियां उस समय बीजरूप में अथवा अप्रकट अवस्था में थी ।

सृष्टि की उत्पत्ति संबंधी आध्यात्मिक नियमानुसार सब कुछ ईश्वरीय तत्त्व से ही निर्मित होता है, कुछ समयतक उसका अस्तित्व रहता है और अंत में ईश्वरीय तत्त्व में ही विलीन हो जाता है । ब्रह्मांड इसी प्रकार से अस्तित्व में आया है, पूर्व नियोजित समयतक बना रहेगा और अंत में उसका लय हो जाएगा । ईश्वरीय नियोजनानुसार ब्रह्मांड के आरंभ में बीजरूप में विद्यमान बुराई धीरे-धीरे बढने लगती है । वह सूक्ष्म-स्तरीय अनिष्ट शक्तियों तथा व्यक्तियों के माध्यम से प्रकट होती है । समय बीतने के साथ-साथ बुराई में १००प्रतिशत तक वृद्धि होने लगती है । इस स्थिति में ब्रह्मांड का लय हो जाता है ।

२.२ अच्छी और बुरी शक्तियों को शक्ति (ऊर्जा) कहां से मिलती है ?

अच्छी और बुरी शक्तियां दोनों ईश्वरीय तत्त्व से निर्मित होने से, उन्हें भी आध्यात्मिक ऊर्जा (शक्ति) ईश्वर से ही मिलती है । यह कुछ विपरीत लगता है; परंतु इस उदाहरण से यह अच्छे से समझ में आएगा । किसी प्रतिष्ठान के दो कर्मचारी एक समान काम कर आय अर्जित करते हैं । हाथ में पैसा आने पर उसका विनियोग किस प्रकार से किया जाए, यह उन दोनों पर निर्भर होता है । एक व्यक्ति अपने लिए व्यय कर बचे हुए धन से समाज की सहायता कर सकता है । दूसरा व्यक्ति समाज को कष्ट देने हेतु इस धन का उपयोग कर सकता है । धन अर्जित करना, साधना कर आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करने समान है । अच्छे और बुरे लोगों के साधना करने के उद्देश्य में बहुत अंतर होता है । पहले व्यक्ति के लिए उद्देश्य होता है, ईश्वर से एकरूप होना तथा दूसरे व्यक्ति का उद्देश्य प्रमुख रूप से होता है, अपनी संतुष्टि के लिए (वासना पूर्ति के लिए) आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करना । एक बार आध्यात्मिक शक्ति पूर्णतः संग्रहित की जाने पर ईश्वर हमें उसके विनियोग की संपूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करते हैं । जब यह शक्ति लोगों द्वारा धर्म के लिए प्रयुक्त की जाती है, उसे अच्छी शक्ति कहा जाता है और अधर्म के लिए प्रयुक्त किए जाने पर उसे बुरी अथवा काली शक्ति कहा जाता है ।

महत्वपूर्ण बात यह है कि जब आध्यात्मिक शक्ति धर्म के लिए प्रयुक्त की जाती है, व्यक्ति को ईश्वर के इस रूप से एकरूप होने की अनुभूति होती है । अतः जैसे जैसे ईश्वर से एकरूप होते हैं, वैसे वैसे व्यक्ति को आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है । परिणामस्वरूप शक्ति का व्यय नहीं होता । तथापि जब व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक शक्ति अधर्म के लिए प्रयुक्त करता है, जो कि ईश्वर के गुणधर्म के विरुद्ध है; तब व्यक्ति अथवा सूक्ष्म-देह की शक्ति उतनी ही मात्रा में न्यून हो जाती है ।

३. अच्छी और बुरी शक्तियों का कार्य क्या होता है ?

ब्रह्मांड (विश्व) के सभी क्षेत्रों में सत्त्व गुण पर आधारित सुव्यवस्था स्थापित करना, अच्छी शक्तियों का जीवित कार्य होता है । संक्षेप में यह कार्य आध्यात्मिक दृष्टि से विश्व की शुद्धि करने का है । दूसरी ओर बुरी शक्तियां रज और तम पर आधारित आसुरी राज्य प्रस्थापित करने का प्रयास करती हैं । यह आसुरी राज्य, वह राज्य होता है, जो आसुरी शक्तियों के लिए उनकी वासनाएं पूर्ण करने के लिए अनुकूल होता है । ये वासनाएं विभिन्न प्रकार की होती हैं, उदा. अति मात्रा में सांसारिक सुखों में आसक्त होना, शक्ति का अनुचित उपयोग करना, ईश्वर प्राप्ति करनेवाले साधकों को कष्ट पहुंचाना और उनकी मोक्ष प्राप्ति की साधना में बाधाएं लाना इत्यादि ।

४. अच्छाई और बुराई में संतुलन

संपूर्ण ब्रह्मांड (विश्व) का अस्तित्व चौदह विभागों में अथवा लोकों में बंटा हुआ है । इसमें सात अच्छे लोक और सात बुरे लोक होते हैं । पृथ्वी ही एक स्थूल लोक है, जब कि अन्य लोक सूक्ष्म-स्तर के होते हैं । अच्छे लोकों में से स्वर्ग एक अच्छा लोक है, जहां हम मृत्योपरांत जा सकते हैं ।

अच्छी और बुरी शक्तियों का जीवित कार्य ठीक एक दूसरे के विपरीत होने से इन दोनों में सदैव संघर्ष रहता है । अच्छाई और बुराई का यह संतुलन कभी भी स्थिर नहीं होता, अपितु समय के अनुसार परिवर्तित होता रहता है । इसके परिणाम ब्रह्मांड के सभी भागों में (लोकों में) अनुभव किए जाते हैं । उदा. जब अनिष्ट शक्तियों की (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) शक्ति बढ जाती है, सभी पृथ्वी (भूलोक) स्वर्ग जैसे सकारात्मक (अच्छे) लोकों में स्थिति बिगडने लगती है । भूलोक में इसके शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्तर पर अनिष्ट परिणाम दिखाई देते हैं । तथापि सभी बुरे (नकारात्मक) लोकों में, अर्थात पाताल के सभी स्तरों पर इसके अच्छे परिणाम अनुभव होते हैं; परंतु जब इसका संतुलन इष्ट (अच्छा) की ओर झुकने लगता है, तब सत्व के सूक्ष्म मूलभूत घटक की मात्रा में वृद्धि होकर संपूर्ण ब्रह्मांड में (विश्व में) आनंद अनुभव होने लगता है । पृथ्वी पर शांति और समृद्धि का राज होता है । इन अच्छे परिणामों के कारण अनिष्ट शक्तियों को कष्ट होने लगते हैं । किसी अपराधी को कानून के अनुसार आचरण करने को विवश किए जाने पर जैसे कष्ट होंगे, ठीक उसी भांति अनिष्ट शक्तियों को होनेवाले इस कष्ट की तीव्रता होती है ।

.१ अनिष्ट शक्तियों की ओर संतुलन झुकने का कारण क्या है ?

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अवसर मिलने पर ब्रह्मांड की (विश्व की) अनिष्ट शक्तियां, शक्ति का संतुलन बिगाडने के प्रयास में रहती हैं । अनिष्ट शक्तियों द्वारा निरंतर सूक्ष्म सत्व घटक न्यून करने और ईश्वर के साधकों को साधना और साधना का प्रसार करने से रोकने के प्रयास होते रहने पर भी जबतक साधना करनेवाले संत और साधक हैं, इष्ट शक्तियों का ही राज्य होता है । यह इसलिए कि भक्त होने के कारण अनिष्ट शक्तियों पर मात करने के लिए ईश्वर संत और साधकों की सहायता करते हैं ।

अच्छी और अनिष्ट (बुरी) शक्तियों का मुख्य भंडार सूक्ष्म-लोकों में होता है । पृथ्वी के (भूलोक के) अच्छे और बुरे लोग कठपुतली समान होते हैं, क्योंकि वे दोनों क्रमशः सूक्ष्म विश्व की अच्छी और बुरी शक्तियों से शक्ति प्राप्त करते हैं ।

.२ आध्यात्मिक स्तर और अनिष्ट शक्तियों के (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) आक्रमण

सामान्यत: अनिष्ट शक्तियां उन्हीं अच्छी शक्तियों पर आक्रमण करती हैं, जो उनके स्तर की सीमा के १० प्रतिशत भीतर अथवा बाहर होती हैं । स्तर में १० प्रतिशत अंतर होना, व्यक्ति के पक्ष में होने के कारण अनिष्ट शक्ति ऐसे व्यक्ति पर आक्रमण नहीं कर सकती । अनिष्ट शक्ति द्वारा दिए गए कष्ट की तुलना में १०-२० प्रतिशत अधिक ईश्वरीय सुरक्षा मिलने के कारण अल्प शक्तिवाली अनिष्ट शक्ति के आक्रमण से उसकी रक्षा होती है ।

व्यक्ति के आध्यात्मिक स्तर से १० प्रतिशत अधिक स्तर की अनिष्ट शक्तियों को ऐसे व्यक्ति पर आक्रमण करने में कोई रूचि नहीं होती, क्योंकि ऐसा व्यक्ति अनिष्ट शक्ति के दृष्टिकोण में क्षुद्र होने से लडने योग्य नहीं होता । उदा. ३० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के व्यक्ति पर २०-४० प्रतिशत स्तर की अनिष्ट शक्ति (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) आक्रमण करती है ।

जब मनुष्य माया में आसक्त होता है और उसे साधना करने में कोई रूचि नहीं रहती, तब अनिष्ट शक्तियों को उस पर वर्चस्व स्थापित करना सुलभ होता है । जब मनुष्य के तम में वृद्धि होती है, अनिष्ट शक्तियां स्वयं तामसिक होने से परिस्थिति का लाभ सहजता से उठाकर मनुष्य जाति पर वर्चस्व प्रस्थापित करने का प्रयत्न करती हैं ।

इस लेख का संदर्भ लें – आध्यात्मिक स्तर अनिष्ट शक्तियों से कहांतक सुरक्षा प्रदान करता है ?

५. अच्छी और बुरी शक्तियों के मध्य युद्ध पहली बार कब लडा गया ?

ब्रह्मांड (विश्व की) आयु सीमा ४ युगों में, अर्थात सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग में विभाजित की गई है । सत्ययुग आध्यात्मिक दृष्टि से विशुद्ध युग था । तथापि इस युग के उपरांत प्रत्येक युग में मनुष्य का औसतन आध्यात्मिक स्तर न्यून होता गया और कलियुग अथवा वर्तमान संघर्षमय युग में न्यूनतम हुआ । यह युग ४३२,००० वर्षोंतक रहेगा । वर्तमान में हमने इस युग के ५१०० वर्ष पार किए हैं ।

प्रत्येक युग में सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग के छोटे चक्र होते हैं और लोगों का आध्यात्मिक भान इन छोटे चक्रों में भिन्न होता है । प्रत्येक छोटे युग का और भी चार छोटे युगों में उपविभाजन होता है । छोटे चक्रों का विभाजन और भी छोटे चक्रों में पुनः पुनः छठे स्तरतक होता है । सबसे छोटा चक्र १००० वर्षोंतक रहता है । १००० की संख्या वर्तमान समय की मापन पद्धतिनुसार है । उदा. सत्युग में यही छोटा चक्र और लंबा हो सकता है । सत्ययुग में सूक्ष्म सत्व घटक की मात्रा अधिक होने से ऐसा था । सत्त्व का विशेष लक्षण है, विस्तृत होना, तो तम का है, विनाश होना । अतः सत्ययुग अनेक वर्ष कलियुग के एक वर्ष समान होते हैं ।

सृष्टि उत्पत्ति के समय यह संतुलन १०० प्रतिशत अच्छी शक्तियों के पक्ष में था, क्योंकि उस समय अनिष्ट शक्तियां बीजरूप अथवा अप्रकट अवस्था में थी । पहले युग में, अर्थात सत्ययुग में संपूर्ण मानव जाति के साधना में रत होने से और लोगों का औसतन आध्यात्मिक स्तर ७० प्रतिशत होने से, ऐसा था । उनका दृष्टिकोण ऐसा था कि जीवन के सभी अंग साधना ही हैं और ईश्वर की सेवा के अवसर हैं । जब सत्ययुग के अंतिम छोटे चक्र के अंतर्गत छोटा कलियुग आरंभ हुआ, तब पृथ्वी के कुल दुर्जनों की पूरी जनसंख्या २ प्रतिशत से अधिक हुई । अनिष्ट शक्तियों को वर्चस्व प्रस्थापित करने के लिए उस समय सूक्ष्म तम घटक पर्याप्त मात्रा में था । सत्युग के अंत के छोटे चक्र के अंतर्गत कलियुग छोटे चक्र के अंत में यह पहला अच्छी और बुरी शक्तियों का युद्ध हुआ ।

शेष अगले भाग में अच्छाई विरुद्ध बुराई का वर्त्तमान युद्ध