HIN-listening

हमारे दैनिक जीवन में जब किसी समस्या को अथवाकष्ट को सुलझाने में हम असमर्थ होते हैं, तब उस स्थिति में हमें किसी के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है।

उदाहरणार्थ,

  • जब हम अस्वस्थ होते हैं तब हम अच्छे डॉक्टर अथवा चिकित्सकीय क्षेत्र में अनुभवी व्यक्ति से सलाह लेते हैं और उसके अनुसार ही सब करते हैं ।

  • जब हमारी कार (वाहन)खराब हो जाती है, तब हम किसी मैकेनिक की सलाह के अनुसार उस वाहन का ध्यान रखते हैं ।

  • जब कोई न्याय का विषय हमारे सामने होता है, तब हम किसी वकील का परामर्श लेते हैं और उसके परामर्श का सतर्कता से पालन करते हैं ।

ये कुछ उदाहरण हैं जहां हम दूसरोंका परामर्श लेते हैं । तब हम यह स्वीकार करते हैं कि हम उस क्षेत्र में निपुण नहीं हैं और उनकी सहायता के लिए हम उन्हें बडी राशि देने के लिए भी सिद्ध होते हैं ।

परंतु जब हमारे जीवन के मूल उद्देश्य- अध्यात्म और आध्यात्मिक प्रगति (प्रारब्ध भोग भोगने से परे),का विषय आता है, तब हम यही सोचते हैं किहम यह भली भांति जानते हैं कि स्वयं के लिए क्या उचित है । हमारी साधना में प्रमुख अडचन यह है कि हम इस विषय में खुले मन से सुनते नहीं और इस विषय में किसी का परामर्श भी नहीं लेते । इस कारण हमारी आध्यात्मिक प्रगति की हानि होती है ।

साधना के विषय में मार्गदर्शन लेने में मन का संघर्ष किस कारण से होता है ?

इसके कुछ कारण इस प्रकार हैं:

  • हम यह सोचते हैं कि अध्यात्म बहुत ही व्यक्तिगत विषय है और दूसरे हमें इस विषय में मार्गदर्शन नहीं कर पाएंगे ।

  • किसका सुनना है, यह हम निश्चित रूप से समझ नहीं पाते ।

  • हम समझते हैं कि हम स्वयं ही भली-भांति जानते हैं कि हमारे लिए क्या उचित है ?

इन अडचनों पर विजय पाने के लिए और सुनने की कला विकसित करने के लिए इन सूत्रों को ध्यान में रख सकते हैं ।

  • जैसे किसी अन्य क्षेत्र में हमें जानकार व्यक्ति की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार से आध्यात्मिक यात्रा में भी हमें मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है, अन्यथा किसी अनुचित आध्यात्मिक मार्ग पर चलकर हम अपना पूरा जीवन व्यर्थ गंवा सकते हैं । इसके कारण साधना में पठारावस्था पर अटक सकते हैंअथवा हमारी साधना की हानि हो सकती है ।

  • यदि किसकी सुनें ? इस विषय में हमें संभ्रम हो तो अध्यात्मके छ:मूलभूत सिद्धांत इनका पालन करने से हमारी साधना योग्य दिशा में तब तक बढती रहती है जब तक कि हमारे जीवन में मार्गदर्शक न आ जाए ।

  • अध्यात्म बहुत ही व्यक्तिगत स्वरूप का होता है और मोक्षप्राप्ति के लिए स्वयं को ही व्यक्तिगत मार्ग ढूंढना पडता है । लेकिन हमें अध्यात्म के सिद्धांतों को व्यक्तिगत समझकर और उन तत्त्वों की मर्यादा में रहकर ही साधना के विषय में निर्णय लेने पडते हैं ।इसलिए हमें उन लोगों का सुनना चाहिए जिन्होंने जाने-अनजाने में अध्यात्म के छ:मूलभूत सिद्धांतों का पालन कर साधना में मार्गक्रमण किया हो ।

  • यदि हमारी आध्यात्मिक प्रगति करने की लगन तीव्र हो, प्रामाणिक और निष्पक्ष हो, तो स्वयं से ही हमारे जीवन में योग्य व्यक्ति आते हैं जो हमें आध्यात्मिक प्रगति में सहायता कर सकें, चाहे हम विश्व के किसी भी कोने में क्यों न हों । एक पुरानी कहावत के अनुसार, गुरु को ढूंढना नहीं चाहिए, शिष्य सिद्ध हो जाने पर गुरु स्वयं से ही प्रकट हो जाते हैं ।