डॉ (श्रीमती) लिंदा बोरकर की अनुभूतियां

१. किस प्रकार परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने वाहन चलाने के मेरे भय पर विजय प्राप्त करने में मेरी सहायता की

वर्ष १९९५ में जब मैं गोवा में रहती थी, तब मैंने परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन में साधना आरंभ की । जनवरी १९९७ में, परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी कुछ स्थानों पर सत्संग लेने के लिए गोवा आए थे । लगभग उसी समय, मैंने वाहन चलाना सीखा ही था किंतु उससे एक छोटी दुर्घटना हो जाने के कारण मैं पुनः वाहन चलाने में घबरा रही थी । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को इस विषय में जानकारी नहीं थी । सत्संग के दौरान, उन्होंने मुझसे एक अन्य साधिका के साथ निकट के एक शहर मडगांव चलने के लिए कहा । मैंने अपने वाहन चलाने के भय का तनिक भी विचार न करते हुए तत्क्षण ही उनकी आज्ञा का पालन किया । मडगांव जाते समय, मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वाहन चलाने में इतना भय होते हुए भी मैंने इतने भीडवाले शहर में वाहन कैसे चला लिया ।

उसी सप्ताह निकट के एक शहर पेडणे में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का एक सार्वजानिक कार्यक्रम था । इस बार उन्होंने कहा कि वे मेरी कार में चलेंगे । चालक की सीट पर एक दूसरे साधक बैठे थे, तब परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने मुझे वाहन चलाने के लिए कहा । जब मैं पुनः वाहन चलाने हेतु बैठी तब परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी स्वयं मेरे निकट के आगे की यात्री सीट पर बैठे । उस यात्रा के समय, मुझे यह अनुभव हुआ कि मैंने वाहन चलाने के अपने भय पर विजय प्राप्त कर ली है । तब से मेरे कदम आगे बढते गए और मुझे विश्वास हो गया कि मैं कहीं भी वाहन चला सकती हूं ।

इस अनुभव से, मुझे यह स्पष्ट हुआ कि गुरुतत्व को हमारे प्रत्येक भय एवं दुर्बलताओं का पता है । इस प्रकार के भय पर विजय प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक नहीं कि गुरुतत्व द्वारा प्रयुक्त प्रक्रिया स्पष्ट रूप से जैसे किसी विशेष भय से संबंधित कुछ सलाह देना अथवा मार्गदर्शन करने जैसा ही हो । यद्यपि केवल सगुण गुरु (परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी)  के आज्ञापालन से ही, मैं वाहन चलाने के भय का सामना कर सकी तथा केवल दो छोटी यात्राओं में ही, इस पर स्थायी रूप से विजय प्राप्त कर सकी ।

२. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की अपार प्रीति

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को यह जानकारी नहीं थी कि मैं बचपन से ही गाती थी । एक दिन जब मैं उनके साथ थी तब उन्होंने मुझे कुछ गीत दिखाए जो उन्होंने लिखे थे और मुझे उन्हें गाने के लिए कहा । उनके इस प्रस्ताव से मुझे थोडा आश्चर्य हुआ क्योंकि उन्हें मेरे गायन पृष्ठभूमि की जानकारी नहीं थी । वे गीत मराठी भाषा में लिखे हुए थे जो कि भारत की एक स्थानीय भाषा है । मैं थोडी-बहुत मराठी जानती थी, किंतु मेरी इसमें कोर्इ विशेष पकड नहीं थी । तब भी उन्होंने मुझे सिखाया कि प्रेरणादायक तथा भक्ति गीतों को कैसे गाया जाता है और मैंने उनका अभ्यास किया ।

पश्चात पेडणे में सार्वजनिक कार्यक्रम के लिए, उन्होंने मुझे उनमें से एक गीत गाने को कहा । इस गीत की रचना उनके द्वारा की गई थी, जिसे शक्तिस्तवन (देवी मां की स्तुति में गाया जानेवाला गीत) कहते हैं । गीत गाने के पश्चात अनेक साधकों ने मुझसे आकर कहा कि जब मैं गीत गा रही थी तब वातावरण चैतन्यमय हो गया था ।

अपने हृदय में, मैं यह जानती थी कि चैतन्य इसीलिए उत्पन्न हो सका क्योंकि यह गीत परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा रचित था तथा उसमें उनका संकल्प था । अतः, मुझे यह सत्सेवा प्रदान करने के लिए तथा इस आध्यात्मिक अनुभूति के लिए मैंने त्वरित कृतज्ञता व्यक्ति की ।

उसी वर्ष, हम एक टेप के लिए गाने रिकॉर्ड करने की योजना बना रहे थे । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी संगीत में औपचारिक रूप से प्रशिक्षित नहीं थे, तब भी जब मैं उनकी उपस्थिति में गीतों का अभ्यास करती तब वे धैर्यपूर्वक मेरा मार्गदर्शन करते । वे बताते थे कि प्रत्येक धुन को कैसे गाया जाए,  जिससे कि उनसे सकारात्मक आध्यात्मिक स्पंदन प्रक्षेपित हो सके ।  किसी धुन को यथोचित प्रकार से गाने में जब मुझे समय लगता तो वे एक बार भी अधीर नहीं हुए ।

एक दूसरा प्रसंग का भी स्मरण हो रहा है, जब एक गीत की धुन नहीं बैठ पा रही थी तब उन्होंने मुझे धुन बनाने को कहा । मैंने कहा कि मैं अच्छी धुन नहीं बना सकती, तब उन्होंने मुझसे कहा कि, “बस प्रार्थना करो और वह तुम्हें आ जाएगी ।” तब मैंने गीत लिखा कागज हाथ में लिया और प्रार्थना की । उसके पश्चात एकाएक मुझे धुन मिल गई ।

संपादक की टिप्पणी : एक उच्च स्तरीय संत (जैसे परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी) का संकल्प ब्रह्मांड की सबसे प्रबल शक्तियों में से एक है तथा किसी भी भौतिक शक्ति से कई गुना अधिक शक्तिशाली है ।

३. सर्वज्ञ गुरु एवं उनकी अपार प्रीति

जब मैं जुलाई २००८ में आध्यात्मिक शोध केंद्र एवं आश्रम आई, तब मैं सदैव की भांति परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से भेंट करना चाहती थी । किंतु किसी कारण से मेरे रुकने के अंत तक मुझे यह नहीं बताया गया कि उनसे मेरी भेंट कब होगी । अंतिमतः मेरे वहां से वापस आने का समय आ गया और मैं उनसे न मिलने के कारण व्याकुल हो गर्इ थी ।

उस दिन जब मैं अपने शहर के दूसरे साधकों के लिए प्रसाद ग्रहण करने के लिए गई तब उसी क्षण वे निकट के कक्ष से बाहर आ गए । मेरी आंखों से आंसू बहने लगे और मैंने कहा,” मुझे लगा कि इस बार मैं आपसे भेंट नहीं कर पाऊंगी ।” उन्होंने अपनी स्वाभाविक मुस्कुराहट (जो साधकों की सभी चिंताओं को मिटा देती है) के साथ उत्तर दिया, “मुझे भी लगा कि मुझे अभी ही द्वार खोलना चाहिए । ”