पाप का प्रायश्‍चित क्या होता है ?

इस लेख को अच्छे से समझने के लिए हमारा सुझाव है कि आप निम्नलिखित लेखों से परिचित हो जाएं :

. प्रस्तावना

चूक होने पर बुरा लगना और वह चूक पुन: न हो इसके लिए प्रयत्नशील रहना, यह मनुष्य का स्वभाव है । चूक होने पर एक छोटा बालक भी यह बात समझता है और क्षमा मांगना सीखता है ।

यदि कोई व्यक्ति चूक करता है अथवा अनुचित कर्म करता है तो यह पाप होता है । हम सभी से कभी न कभी पाप होता ही है । व्यक्ति पाप के परिणामों को नष्ट करने के लिए क्या कर सकता है, यह हमने इस लेख में स्पष्ट किया है ।

. पाप का प्रायश्‍चित कैसे करें ?

धर्म का शत-प्रतिशत पालन कर, श्रद्धा और धैर्य के साथ, बडे से बडा पाप भी नष्ट किया जा सकता है । धर्माचरण करना हमारे व्यक्तित्व, आयु तथा अन्य कुछ घटकों पर निर्भर करता है ।

धर्म वह है जिससे ३ उद्देश्य साध्य होते हैं :
१. समाज व्यवस्था को उत्तम बनाए रखना
२. प्रत्येक प्राणिमात्र की व्यावहारिक उन्नति साध्य करना
३. आध्यात्मिक स्तर पर भी प्रगति साध्य करना ।
- श्री आदि शंकराचार्य
  • तप करना (उदाहरणार्थ, जो लोग हठयोग का मार्ग अपनाते हैं, वे शरीर को अधिक समय तक असुविधाजनक स्थिति में रखते हैं ।)
    मन पर, ज्ञानेंद्रियों पर, कर्मेद्रियों पर नियंत्रण रखना (अर्थात जितना आवश्यक है उतना ही बोलना, यौन वासना पर नियंत्रण रखना आदि)
  • शरीर पर नियंत्रण रखना (उदाहणार्थ श्‍वास की गति आदि)
  • त्याग, आचरण में शुद्धता आदि

धर्म की रक्षा करने के लिए हमारे द्वारा किए जानेवाले कठोर प्रयत्न भी हमें सारे पापों से मुक्त करते हैं । परंतु वर्तमान कलियुग में रज-तमप्रधान जीवनपद्धति के कारण अधिकतर लोगों के लिए धर्माधारित जीवनपद्धति अपनाना एक असंभव-सी बात है ।

पापों के परिणामों को नष्ट करने का दूसरा मार्ग है पाप का प्रायश्‍चित लेना ।

पाप का प्रायश्‍चित क्या होता है ?

पाप का प्रायश्‍चित का अर्थ है, हमसे हुईं चूकों के लिए अथवा अनुचित कर्मों के लिए पश्‍चात्ताप होना और संचित पाप को नष्ट करने के लिए उचित दंड लेना । पाप का प्रायश्‍चित लेने के लिए तप और दृढ निश्‍चय की आवश्यकता होती है ।

  • पाप का प्रायश्‍चित लेने के कुछ लाभ : प्रायश्‍चित लेने से मनुष्य के मन में अनुचित कर्म करने के कारण जो अपराधी भाव उत्पन्न होता है, वह नष्ट हो जाता है ।
  • पाप का प्रायश्‍चित लेने से व्यक्ति पाप के परिणामों से मुक्त हो जाता है, जिससे पाप अगले जन्म में नहीं भुगतने पडते । इससे मनुष्य की सांसारिक और आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग में आनेवाली बाधाएं नष्ट होती हैं ।
  • पाप का प्रायश्‍चित लेने से व्यक्ति में ही नहीं, अपितु उसके साथ रहनेवाले लोगों में भी संतुष्टि की भावना उत्पन्न होती है ।
  • किसी के साथ अन्याय करने की चूक पर, जब व्यक्ति द्वारा पाप का प्रायश्‍चित लिया जाता है, तब यह देखकर उस पीडित व्यक्ति (जिसके साथ अन्याय हुआ था) के मन में उस अपराधी व्यक्ति के प्रति जो घृणा है, वह घट जाती है अथवा नष्ट हो जाती है ।

. पाप का प्रायश्‍चित लेने के प्रकार

पाप की तीव्रता के अनुसार पाप का  प्रायश्‍चित मंद से तीव्र स्वरूप का हो सकता है । अनजाने में हुए पाप साधारणतः पश्‍चाताप होने से अथवा सबके समक्ष बताने से नष्ट हो जाते हैं । परंतु जानबूझकर किए गए पापों के लिए तीव्र स्वरूप का प्रायश्‍चित लेना चाहिए ।

  • पाप का प्रायश्‍चित लेने के कुछ उदाहरण : तीर्थयात्रा पर जाना
  • दान करना
  • उपवास करना

किस प्रकार के पाप के लिए कौन सा प्रायश्‍चित लेना चाहिए, इसकी विस्तृत जानकारी अनेक धर्म ग्रंथों में दी गई है ।

. दंड और पाप का प्रायश्‍चित में भेद – पश्‍चाताप का महत्त्व

दंड और प्रायश्‍चित में यह भेद है कि अपने पाप का प्रायश्‍चित करनेवाले व्यक्ति को पश्‍चाताप होता है । पाप का प्रायश्‍चित लेनेवाला व्यक्ति, अपनी प्रतिज्ञा से बंधा होता है । वह अपनी प्रतिज्ञा का पूरी लगन से पालन करता है, तदुपरांत सदाचारी बन जाता है ।

इसके विपरीत, केवल अपने अपराध सबके सामने बताने से अथवा दंड भुगतने से कोई व्यक्ति अपनेआप को वैसी चूकें दोहराने से रोक नहीं सकता । अपराधी व्यक्ति, जो अपने अपराध के लिए दंडित होते हैं, उनमें अधिकांशतः अंत में कोई सुधार नहीं दिखता, क्योंकि ना तो उन्हें पश्‍चाताप होता है और ना ही वे अपने अपराधी कृत्यों के भयानक परिणामों के प्रति सर्तक हो पाते हैं ।

धर्म हमें पुण्य, पाप और प्रतिदिन धर्म पालन करना सिखाता है । धर्म पालन करने से मनुष्य की मूल वृत्ति सात्त्विक बन जाती है । ऐसे सात्त्विक व्यक्ति के मन में अनुचित कर्म करने का विचार कदापि नहीं आता तथा वह ऐसा कर्म टालता है कि जिससे पाप हो जाए । इसीलिए जहां धर्म का पालन होता है, वहां नियमों की कोई आवश्यकता नहीं होती ! सत्ययुग में ऐसा होता था ! तब कोई राज्यकर्ता नहीं था और कोई नियम नहीं थे, क्योंकि सभी लोग सात्त्विक होने के कारण राज्यकर्ताओं की और नियमों की कोई आवश्यकता नहीं थी । – (प.पू.) डॉ. जयंत आठवले

यहां एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि पश्‍चाताप होने की अथवा अपनी चूकें स्वीकारने की भी सीमा है; क्योंकि व्यक्ति प्रतिदिन पाप करने और प्रतिदिन उन्हें स्वीकारने का आदी हो जाता है ।

एक बार एक संत को प्रश्‍न पूछा गया, ‘कौनसा व्यक्ति अच्छा है — वह जो अपनी चूकें स्वीकारता है, अथवा वह जो अपनी चूकें छुपाता है ?’ उनका उत्तर था : ‘दोनों लगभग समान ही है । जो अपने में परिवर्तन लाता है और चूकें नहीं दोहराता, वह अधिक अच्छा है ।’

. पाप का प्रायश्‍चित –

नामजप का महत्त्व और भक्ति

हमारे नामजप संबंधी लेखों में हमने यह स्पष्ट किया है कि नामजप करने से किस प्रकार हमारे अंतर्मन में भक्ति का केंद्र बनता है और मन में उभरनेवाले विचारों को वह कैसे रोकता है ।

पिछले जन्मों के पाप और पुण्य भी हमारे अंतर्मन में संग्रहित रहते हैं । जिस प्रकार सूर्य कोहरे को हटा देता है और बर्फ को पिघला देता है, उसी प्रकार नामजप हमारे अंतर्मन से न केवल अनावश्यक विचारों को नष्ट करता है, अपितु पापों को भी नष्ट करता है ।

वास्तव में जब हम भक्तिपूर्वक नामजप करते है, तब पाप करने की इच्छा ही नष्ट हो जाती है ।

पाप का प्रायश्‍चित लेने से पाप नष्ट हो जाते है; परंतु पाप करने की इच्छा नष्ट नहीं होती किन्तु जब व्यक्ति के मन में मोक्षप्राप्ति की इच्छा जागृत हो जाती है; तब नामजप, पाप और पाप करने की इच्छा, दोनों को नष्ट करता है । – प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, महाराष्ट्र, भारत.

. स्वभावदोष निर्मूलन के संदर्भ में पाप का प्रायश्‍चित

स्वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया करना यह गुरुकृपायोग के अनुसार साधना का अविभाज्य अंग है । इस प्रक्रिया में प्रायश्‍चित लेना एक ऐसा साधन है जिससे साधक को व्यक्तिगत स्वरूप की अर्थात व्यष्टि तथा सामूहिक स्वरूप की अर्थात समष्टि चूकों के दुष्परिणाम घटाने में सहायता होती है ।

. सारांश –

पाप का (पापक्षालन के लिए )प्रायश्‍चित और साधना

इच्छा, घृणा, आसक्ति, अपेक्षा, क्रोध, लालच, अहंकार, ईर्ष्या आदि मूलभूत कारणों से पाप होते हैं । किसी व्यक्ति को पाप करने से रोकना तभी परिणामकारक होगा, जब उसे पाप और पाप के परिणामों संबंधी सभी नियम भलीभांति पता होंगे । यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि दंड से अथवा पाप का fप्रायश्‍चित से पाप करने की मूलभूत इच्छा नष्ट नहीं होती; नियमित साधना से स्वभावदोष एवं वासना का निर्मूलन संभव है जिनके कारण पाप होते हैं ।