तीन सूक्ष्म-स्तरीय मूलभूत घटकों का (त्रिगुणों का) मूल स्वरूप एवं संकल्पना क्या है ?

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आधुनिक शास्त्रों के अनुसार लघु कणों में इलेक्ट्रॉन्स्, प्रोटॉन्स्, मेसॉन्स्, क्वॉर्क्स, ग्लुऑन्स् एवं न्यूट्रॉन्स् का समावेश होता है । जबकि अध्यात्म शास्त्र बताता है कि हम इनसे भी अधिक सूक्ष्म कणों अथवा घटकों से बने हैं । ये घटक सूक्ष्म होते हैं और सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) जैसे साधनों से भी नहीं दिखाई देते । इनका अनुभव केवल सूक्ष्म इंद्रियों से संभव है ।

इन सर्वाधिक सूक्ष्म कणों को त्रिगुण कहते  हैं । इनकी रचना आगे दिए अनुसार है :

  • पवित्रता एवं ज्ञान – (सत्त्व)
  • कर्म एवं वासना – (रज)
  • अज्ञान एवं निष्क्रियता – (तम)
अबसे हम इस स्तंभमें इन घटकोंका उल्लेख एकत्ररूपसे सत्त्व, रज, तम गुण तथा उनके विशेषणोंको सात्त्विक, राजसिक, तामसिक संबोधित करेंगें । उदाहरणार्थ, जब हम किसी व्यक्तिको सात्त्विक कहते है, तब उसका अर्थ है उसमें सत्त्वगुण अधिक है ।

प्रत्येक व्यक्ति इन त्रिगुणों से बना है । तथापि इन त्रिगुणों का अनुपात प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न होता है । वह उस व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रगल्भता पर निर्भर करता है ।

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आज विश्‍व में सामान्य व्यक्ति में तमगुण अधिक होता है । इन त्रिगुणों के विविध क्रम-परिवर्तन मनुष्य की मूल प्रकृति को परिभाषित करते हैं  ।

जब व्यक्ति साधना करने लगता है, तब तमोगुण सत्त्वगुण में परिवर्तित होता है तथा रजोगुण की भी शुद्धि होती है ।

रजोगुण की शुद्धि-प्रक्रिया का आलेख नीचे दिया है ।

 

 

 

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अशुद्ध रज वृत्तियां जो किसी समय अनियंत्रित क्रोध अथवा वासनाआें के रूपमें व्यक्त होती थीं, वे साधनाके कारण शुद्ध रजोगुणी अभिव्यक्तियों में परिवर्तित होती हैं । वह व्यक्ति रजोगुण का उपयोग रचनात्मक कार्यों के लिए करता है, जैसे – अन्यों की सहायता एवं ईश्‍वर की सेवा करना । साधना करने से व्यक्ति में सूक्ष्मू स्तरीय आंतरिक परिवर्तन होता है । इससे व्यक्तित्व में आमूल सुधार दिखाई देता है ।

 

 

चौथी कक्षा के बालकों का उदाहरण लेते हैं । वे उधम मचाते हैं और उनकी शिक्षिका उन्हें अनुशासित करने हेतु परिश्रम करती हैं । यदि शिक्षिका का स्वर दृढ है, तो वे कक्षा को शांत करने में सफल होंगी । परिणामस्वरूप शिक्षिका की उपस्थिति में कक्षा में शांति रहेगी । परंतु शिक्षिका के कक्षा से बाहर आते ही विद्यार्थी पुनः उधम मचाने लगेंगे । कारण यह कि ये विद्यार्थी मूलतः राजसिक एवं तामसिक वृत्ति के हैं ।

इसके विपरित यदि कक्षा में एक सात्त्विक बालक है और सहपाठी उसे किसी अनुचित कार्य में सहभागी करने का प्रयास करते हैं, जैसे  धौंस जमाना, किसी का घिनौना उपहास उडाना, छल करना, तो वह बालक ऐसा व्यवहार कदापि नहीं कर पाएगा । क्योंकि उसकी वृत्ति मूलतः सात्त्विक है । सहपाठियों की बात मानने से आनंद मिलना तो दूर की बात है, वह रात को चैन की नींद भी नहीं सो पाएगा । कोई अनुचित कृत्य करने पर वह कभी अपने-आपको क्षमा नहीं कर पाएगा ।

इसीलिए नैतिक मूल्यों पर भाषण देकर विद्यार्थियों को सुधारने का ऊपरी प्रयत्न करने की अपेक्षा यदि उन्हें साधना करनेके लिए प्रोत्साहित किया जाए और आध्यात्मिक दृष्टि से पोषक वातावरण में रखा जाए, तो विद्यार्थियों में सकारात्मक परिवर्तन स्थायी रूप से हो जाएगा ।