आध्यात्मिक उपचार द्वारा निराशा पर विजय प्राप्त करना

SSRF शारीरिक एवं मानसिक रोगों में पारंपरिक चिकित्सा उपचार पद्धति के साथ आध्यात्मिक उपचार करने का सुझाव देती है ।

पाठको से निवेदन है कि वे अपने विवेक से किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक उपचार पद्धति का अनुसरण कर सकते हैं ।

SSRF द्वारा प्रकाशित प्रकरण-अध्ययनों (केस स्टडीस) का मूल उद्देश्य है, उन शारीरिक अथवा मानसिक समस्याओं के विषय में पाठकों का दिशादर्शन करना, जिनका मूल कारण आध्यात्मिक हो सकता है । यदि समस्या का मूल कारण आध्यात्मिक हो, तो यह ध्यान में आया है कि सामान्यतः आध्यात्मिक उपचारों का समावेश करने से सर्वोत्तम परिणाम मिलते हैं । SSRF शारीरिक एवं मानसिक समस्याओं के लिए इन आध्यात्मिक उपचारों के साथ ही अन्य परंपरागत उपचारों को जारी रखने का परामर्श देता है । पाठकों के लिए सुझाव है कि वे स्वविवेक से किसी भी आध्यात्मिक उपचारी पद्धति का पालन कर सकते हैं।

हम यहां डेरेक का प्रकरण-अध्ययन (केस स्टडी) उसी के शब्दों में प्रस्तुत कर रहे हैं । वह चिरकालीन गंभीर मानसिक निराशा से ग्रस्त था ।

१. यह कब प्रारंभ हुआ ?

जब मैं १७ वर्ष का था तब से निराशा की स्थिति आरंभ हुर्इ । सर्वप्रथम यह मेरे मन में मेरे परिवार तथा समाज केप्रति खिन्नता के रूप में प्रकट हुई । मैं स्वयं को अपने परिवार से अलग रखने का निरंतर प्रयास करता । वे मुझे अकेला छोड दें इस हेतु मैं उनसे प्रायः वाद-विवाद करता । कई बार मैंने घर छोड देने का प्रयास किया किंतु कुछ ही समय उपरांत मैं लौट आता । एक बार मैंने जाडे के दिन में घर छोड दिया, उस समय वर्षा हो रही थी और मैं पैरों में केवल मोजे पहने एक मील तक पैदल चलता गया ।

२. इससे मेरा विद्यालयीन जीवन कैसे प्रभावित हुआ ?

विद्यालय में मैं पढने में ठीक था । किंतु शनै: शनै: विद्यालय के प्रति भी मेरा रुझान घटता गया । मुझे विद्यालय जाने का कोई औचित्य ही नहीं लगता था । मैंने उच्च माध्यमिक स्तरतक पढाई की थी किंतु वर्ष के अंतिम चतुर्थांश (सेमेस्टर) में मैं विद्यालय ही नहीं गया जिस कारण से मैंने बिलकुल भी पढार्इ नहीं की । इस कारण सभी विषयों में मुझे ‘एफ’ ग्रेड मिला । साैभाग्य से मेरे पूर्व के ग्रेड अच्छे थे और इसलिए मुझे महाविद्यालय में प्रवेश मिल पाया । महाविद्यालय में मुझे लगने लगा कि मेरे जीवन का कोई उद्देश्य नहीं है अत: मुझे मर जाना चाहिए । महाविद्यालय के प्रथम चतुर्थांश (सेमेस्टर) में पुन: मुझे ‘एफ’ ग्रेड मिला । इसी काल में मैंने गांजा (मारीजुआना) और अन्य प्रारंभिक स्तर के नशीले पदार्थों का सेवन आरंभ कर दिया था । मैं सामान्य रूप से निराश था ।

३. इसने मेरे कार्य को कैसे प्रभावित किया ?

महाविद्यालय के उपरांत मैंने आजीविका के साधन के रूप में पूर्णकालिक काम करना प्रारंभ किया । मैं और अधिक निराश रहने लगा तथा मुझे ऐसा लगता जैसे मैं समाज से अलग-थलग पड गया हूं । मैं यह सोचने लगा कि समाज का मेरे प्रति कुछ उत्तरदायित्व है जिसे समाज पूरा नहीं कर रहा है । सभी प्रकार के सरकारी तंत्रों के प्रति मेरे मन में रोष उत्पन्न होने लगा तथा मुझे लगने लगा कि इन सबको नष्ट कर देना चाहिए जिससे अराजकता फैल जाए । मैं अधिकतर इस प्रकार के दिवास्वप्न देखता रहता था । कुछ दिवास्वप्न इस प्रकार के भी होते कि समाज नष्ट हो चुका है तथा मैं एक अलग द्वीप में रह रहा हूं । मुझे ऐसे लगता कि मेरे दु:ख का मुख्य कारण समाज ही है ।

कार्यस्थल पर मेरा प्रदर्शन अच्छा था । परंतु वहां भी कभी मुझे प्रसन्नता नहीं हुर्इ । उसी कालखंड में मैंने कोकीन लेना प्रारंभ किया । कुछ माह उपरांत मैंने कोकीन लेना छोड दिया, क्योंकि एक दिन मैंने इसकी अत्यधिक मात्रा ले ली थी । उस समय मेरी रक्षा मात्र उस ध्यान साधनाा ने की जो मैं जानता था । मैं शांत हुआ तथा मेरा हृदय उसे सह सका । अन्यथा अधिक मात्रा में लिए गए नशीले पदार्थ के कारण मेरे नाक से रक्त बह रहा था, हाथ-पैर अत्यधिक ठंडे हो गए थे (धीरे-धीरे ये ठंडक पूरे शरीर में फैलने लगी, ध्यान लगाने के उपरांत ठंडक घटती गर्इ ।) मैं २१ वर्ष की आयुतक प्रतिदिन दो से तीन पैकेट सिगरेट पीया करता था ।

मैंने अपना पहली नौकरी ७ माह करने के उपरांत छोड दी तथा मुझे दूसरी नौकरी मिल गर्इ । २-३ वर्षों तक मैं किसी भी एक नौकरी में टिक नहीं पाया । मैंने नौकरी से त्याग पत्र (resign) देकर अन्य अनेक कार्य आरंभ किए । मैंने लगभग विभिन्न नगरों के ५-६ औद्योगिक संगठनों में काम किया । मैं अपने प्रत्येक कार्य से अप्रसन्न ही रहता, यहांतक कि मेरा वेतनमान बढाया गया तब भी मैं अप्रसन्न ही रहा । अधीरता के कारण मैं और अधिक वेतनमान (promotion) हेतु प्रतीक्षा नहीं कर सकता था । मैं सोचता था कि यदि मुझे और अधिक वेतनमान मिल भी जाए तो भी अंतिमतः मैं उसे छोड ही देता, क्योंकि कोई भी मुझे सुखी नहीं कर सकता ।

इसी काल में मैं ऐसे लोगों के समूह से जुड गया जिन्हें झूठ बोलने, चोरी करने, और मादक पदार्थों के सेवन करने की लत थी ।

४. मेरी आंतरिक स्थिति कैसी थी ?

मुझे कई बार, लगभग ५० बार आत्महत्या करने का विचार आया । आत्महत्या करने से मुझे एक ही बात रोकती थी कि मेरे आत्महत्या करने से कुछ भी ठीक नहीं होगा । मरने के उपरांत नरक में जाऊंगा और पुन: जन्म लेना होगा । इसलिए मैं आत्महत्या करने का प्रयास नहीं करता था । मुख्यतः निराशा की स्थिति से बाहर आने के लिए सांसारिक सुखों में रमा रहता था । मैंने पहले ही बताया कि मैं मादक पदार्थों का सेवन करता था । मैं लंबे समयतक संगणक पर (कंप्यूटर गेम्स) खेलता रहता था । कभी-कभी २० घंटेतक निरंतर खेलता रहता था । इस कारण मैं ढंग से भोजन नहीं करता था, कई बार तो कुछ दिनोंतक भोजन नहीं करता । मैं एक दिन में २-५ घंटे ही सोता था । इस कारण मेरी शक्ति क्षीण होती गई तथा मैं और भी बुरा अनुभव करने लगा । मुझे तीव्र स्वरूप के यौन विचार आते और मैं ४-५ घंटे उन विचारों से स्वयं को प्रसन्न करता था । दिन में १-५ बार हस्तमैथुन अथवा स्त्रियों के साथ रत रहता । यद्यपि इन सभी प्रकार के कार्यों के उपरांत मन:संताप हुआ करता था । यह मन:संताप मुझे सतत खाए जाता ।

मुझमें एक बहुत बडा अहम् था कि समाज के लिए मैं अत्यधिक अच्छा हूं । मुझे लगता कि मैं बहुत कुछ कर सकता हूं तथा मैं छोटी-छोटी बातों में व्यर्थ ही समय गंवा रहा हूं । मुझे लगता कि मैं समाज को परिवर्तित कर सकता हूं । मैंने एक पुस्तक लिखना प्रारंभ किया; किंतु ४०-५० पृष्ठ लिखने के उपरांत मैंने उसे भी ये सोचकर छोड दिया कि इससे क्या होगा ? वास्तव में ‘इससे क्या होगा’ ये शब्द मेरे जीवन का सामान्य अनुभव था ।

५. अन्य लोगों के साथ मेरे कैसे संबंध थे ?

विवाह के उपरांत मुझमें तनिक स्थिरता आर्इ; किंतु मेरी निराशा के भंवर के कारण मैं अपने वैवाहिक जीवन में भी सुखी नहीं रह सका और इसके कारण मेरी पत्नी को भी भुगतना पडा । मैं अधिक समय उसके साथ नहीं बिताता था । मैं उसके साथ फिल्म देखने, उद्यानों में भ्रमण करने, छुट्टियां बिताने इत्यादि में पूर्ण रूप से आनंद नहीं ले पाता था । इससे मुझे सदैव अपराधबोध होता और मैं घर में ही रहना चाहता । इस कारण मेरी पत्नी भी दु:खी रहने लगी तथा उनका आनंद नहीं उठा सकी । ये सब बातें मुझे आत्मग्लानि से भर देती थीं । हम दोनों में कई बार भयंकर वाद-विवाद होता और कई दिनोंतक हमारे मध्य कडवाहट बनी रहती थी । कई बार हमने विवाह संबंध समाप्त करने की भी सोची । मैं संतान पैदा करने के पक्ष नहीं था क्योंकि मैं पिता नहीं बनना चाहता था । घरेलु कार्य करना टालता, कभी-कभी मैं तीन-तीन दिनोंतक स्नान नहीं करता था । ये सब बातें मेरी पत्नी को तनाव देती थीं ।

१९ वर्ष की अवस्था में ही मैंने अपने परिवार के साथ सारे संबंध समाप्त कर दिए थे । उन्हें एक पत्र भी लिखा था कि मैं उनके लिये मर गया हूं तथा वे लोग मुझे भूल जांए । इससे वे निश्चित ही अत्यधिक दुखी हुए होंगे । कर्इ बार उन्होंने मेरी सहायता करने का प्रयास भी किया, परंतु मैंने उनसे सहायता नहीं ली । उनके प्रति मेरा व्यवहार अत्यधिक रूखा था और मैं उन पर अत्यधिक क्रोध किया करता था । मेरा पूरा परिवार सोचता रहता कि वे किस प्रकार मेरी सहायता करें; किंतु न कर पाने की विवशता से वे अत्यंत दु:खी होते ।

समाज में लोग मुझे विचित्र, अलग-थलग रहनेवाला, अहंकारी और स्वार्थी व्यक्ति समझते थे ।

इन सबका कारण यह था कि मैं ये मानता कि परिवार मेरी अधोगति का कारण बनेगा । मेरे लिये ये भौतिक संबंधों का कोई औचित्य नहीं था । यही अनुभव विवाह के समय भी हो रहा था कि विवाह एक बोझ है । निराशा के कारण मैं और अधिक स्वकेंद्रित तथा स्वार्थी बन गया । दूसरों के बारे सोचना अथवा कोर्इ उत्तरदायित्व लेना मुझे अप्रसन्न कर देता था । मैं मात्र स्वयं को ही संतुष्ट करना चाहता था ।

६. इस निराशा से मुक्त होने के लिए मैंने कैसे प्रयास किया ?

कुछ वर्षों उपरांत स्वयं को इस निराशा से मुक्त करने के लिए मैं कभी-कभार प्रयत्न करने लगा ।

मैंने उपचार हेतु ध्यानसाधना करने का प्रयास किया; किंतु मन के अत्यधिक अस्थिर होने के कारण मुझे उससे अधिक लाभ नहीं मिल पा रहा था । मैं स्वयं को संभोग, मादक पदार्थ तथा वीडियो गेम्स से दूर रखने का प्रयत्न करता था । यह कार्य के स्तर पर कुछ समय के लिए अधिकतम दो दिनों के लिए प्रभावी रहता । इसके उपरांत मैं हारकर अपनी इच्छाओं के सामने आत्म-समर्पण कर देता ।

मैंने विविध प्रकार की साधना करने का प्रयास किया, जैसे ध्यान, आध्यात्मिक ग्रंथों का वाचन करना, चर्च अथवा मंदिर जाना । लेकिन मेरी रूचि अल्पकालिक होतीं तथा मुझे ऐसा कोर्इ भी नहीं मिला जो जीवनसंबंधी मेरे प्रश्नों तथा दुविधाओं का उत्तर दे सके और मेरी सहायता कर सके ।

७. अपनी निराशा से उबरने के लिए मैंने और क्या किया ?

मैं मनोचिकित्सक के पास जाता था और यथासंभव उनकी बतार्इ औषधियां लेता था । मैं मानता था कि वे औषधियां स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं थीं । मेरे मन में पाश्चात्य औषधियों के संदर्भ में अनेक शंकाएं भी थीं । मैं सोचता था कि, पाश्चात्य चिकित्सक केवल धन के लिए काम करते हैं, रोगियों की सहायता के लिए नहीं ।

मैं किसी भी धर्म के धर्मगुरु के पास उपचारार्थ अथवा मार्गदर्शन हेतु जाता था; किंतु मैं दुखी ही हुआ । अनेकों से मिलकर मैंने देखा कि वे अत्यंत अहंकारी थे अथवा अत्यधिक परिकल्पनावादी तथा अध्यात्म के संदर्भ में अल्प ही जानते थे ।

८. मैं इस अवस्था से कैसे बाहर आया ?

अपनी मां के माध्यम से मैं स्पिरिच्युअल साइन्स रिसर्च फाऊंडेशन (SSRF) के संपर्क में आया । SSRF के मार्गदर्शन में मैंने साधना प्रारंभ की और मुझे तनिक अच्छा अनुभव होने लगा । मुख्य बात यह हुर्इ कि मेरी अनेक शंकाओं का समाधान हो गया था तथा जो ज्ञान मुझे अन्यत्र कहीं नहीं मिला था, वह मुझे यहां प्राप्त हुआ । इस कारण से मेरी आशा बढ गई हुई । मुझे अनुभव हुआ कि मेरे जीवन का भी कोई उद्देश्य है । आत्महत्या करने के विचार तीव्रता से घट गए । मुझे मेरे जीवन में आशा की किरण दिखाई देने लगी ।

कुछ समय पश्चात् मुझे अनिष्ट शक्तियों (भूत, राक्षस, दानव इत्यादि) के अस्तित्व के संदर्भ में ज्ञात हुआ । आरंभ में मैंने इस पर विश्वास नहीं किया; किंतु अनिष्ट शक्तियों के विरुद्ध आध्यात्मिक उपचार करने से मुझमें सुधार की गति बढ गर्इ और अनिष्ट शक्ति का भान बढ गया । कुछ समय पश्चात् वे मुझे वास्तव में दिखने लगे । वे मुझ पर क्रोधित थे तथा मुझे डराना चाहते थे । आरंभ में मुझे उनसे भय लगा और मैं हार मानना चाहता था; किंतु कुछ समय उपरांत मेरे साहस में वृद्धि हुई और मैं उपचार करता रहा ।

९. मेरी वर्तमान की स्थिति कैसी है ?

SSRF के मार्गदर्शन में साधना के चार वर्षों के उपरांत अब मैं पूर्णतः अलग व्यक्ति बन गया हूं ।

निराशा के दौरे अब यदा-कदा ही पडते हैं और वो पूर्व की तुलना में अल्प समय के लिए यथा दो दिनों से लेकर एक सप्ताह तक रहते हैं । पूर्व में निराशा की स्थिति कई सप्ताहों तक रहती थी । साथ ही उसकी तीव्रता भी न्यून हो गई है । यह तीव्रता उस चरम सीमा तक नहीं पहुंचती जहां मुझे आत्महत्या करने के विचार आते थे । यह केवल सामान्य व्यक्ति की निराशा अवस्था के समान ही है . मैं सामान्य रूप से जीवन जी रहा हूं । साधना की इस कालावधि में मैंने एक बार भी नशीले पदार्थों को स्पर्श भी नहीं किया ।

अब मैं इन स्थितियों से निपटने के लिए आवश्यक ज्ञान से पूरी तरह सज्जित हूं । तथा मैं अनिष्ट शक्तियों के संदर्भ में सतत जागरूक हूं । वे अब मुझे पूर्व के समान प्रभावित नहीं कर सकती क्योंकि अब मुझे पता है कि मेरे मन में निराशा अथवा नकारात्मक विचार उनके द्वारा डाले जाते हैं ।
साधना के इन वर्षों में, मैंने अपने परिवार से पुनः जुडकर उनके साथ अपने प्रेमपूर्ण संबंधों को दृढ किया है । मैं अपने परिवार के प्रति मेरे उत्तरदायित्वों का निर्वाह कर रहा हूं, परिणामस्वरूप अब वे सुखी हैं ।

मेरे वैवाहिक जीवन में भी अत्यधिक सुधार आया है । छोटे-मोटे विवाद जो प्रत्येक विवाहोपरांत होते ही हैं, उनके अतिरिक्त हम दोनों सुखपूर्वक साथ हैं । हमारे प्रेम संबंध अधिक प्रगल्ब हो गए हैं । अब हम एक शिशु की प्रतिक्षा में हैं, मैं यह सोच कर अत्यन्त प्रसन्न हूं कि अब मैं पिता बनने के लिए तैयार हूं । अब मैं अधिकाधिक समय अपनी पत्नी के साथ बिताता हूं, घर के कार्यों का, अपने दायित्वों का ध्यान रखता हूं तथा अपनी पत्नी के लिए जो करना चाहिए वह करता हूं ।

लोग अब मुझसे सहजता से बातें करते हैं तथा मेरे मन में सामान्य रूप से उनके प्रति अब अधिक स्नेह है । पहले मेरे एक अथवा दो ही मित्र हुआ करते थे; किंतु अब मैं अधिकाधिक मित्र बनाने के लिये उत्सुक रहता हूं ।

मेरी नौकरी में भी स्थिरता आर्इ है यहां मैं कुछ वर्षों से काम कर रहा हूं । मेरी कर्इ बार पदोन्नति हुर्इ है और अब मैं अधिकारी पदतक पहुंच गया हूं ।

मेरे लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि अब मैं भीतर से एक स्थिर चित्त व्यक्ति हूं । मैंने कई बार आनंद की अनुभूति ली है तथा स्वयं में परिवर्तन लाने के लिए प्रयास करता हूं ।

मेरे जीवन में ईश्वर के अस्तित्व के भान में वृद्धि हो गर्इ है । मुझे प्रतीत होता है कि वे मेरा मार्गदर्शन कर रहे हैं तथा मेरे जीवन के प्रत्येक पहलू का ध्यान रखते हैं ।

१०. अध्यात्मशास्त्रीय दृष्टिकोण

निराशा का निदान

६ मई २००२ को डेरेक SSRF में आया तब वह निराशा से ग्रस्त था । उस दिन उनका ये चित्र लिया गया था ।

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उनको सूक्ष्म-विभाग में ले जाया गया । वहां (पू.) कु. अनुराधा वाडेकरजी (जिनकी छठवीं इंद्रिय जागृत है) ने इनका सूक्ष्म-परीक्षण किया । उन्होंने सूक्ष्म-अवलोकन के आधार पर एक चित्र बनाया । वह चित्र सू्क्ष्म-ज्ञान पर आधारित था जो इस प्रकार था ।

01-HIN-Derek1upउनकेद्वारा वास्तव में देखे गए सूक्ष्म-ज्ञान पर आधारित चित्र का संगणकीय आलेखित रूप नीचे दर्शाया गया है ।

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सूक्ष्म-ज्ञान पर आधारित चित्र से यह स्पष्ट हो गया कि डेरेक को किसी अनिष्ट शक्ति ने आविष्ट कर दिया था । वह उस पर नियंत्रण करना चाह रही थी । उसने डेरेक को घेर लिया था तथा उसने इसके शरीर एवं मन को प्रभावित किया । वह उसके मन में शंकाएं डाल रही थी जिसके कारण डेरेक को निराशा होती थी ।  धूसर रंग का अर्थ अल्प शारीरिक पीडा से है । उसके शरीर में संचित काली शक्ति के कारण उसे सामान्य रूप से शारीरिक पीडा होती थी ।

 वह अनिष्ट शक्ति डेरेक को क्यों और कैसे प्रभावित करती थी ?

वह अनिष्ट शक्ति डेरेक को इसलिए कष्ट दे रही थी क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि डेरेक की आध्यात्मिक उन्नति हो और वह समाज में अध्यात्म प्रसार करे । अनिष्ट शक्तियों के लिए दुर्बल मनवाले तथा अधिक अहंवाले व्यक्ति को आविष्ट करना सरल होता है ।

अत्यधिक यौन विचारों का क्या कारण था ?

जब अनिष्ट शक्तियों की काली शक्ति कमर के निचले ​भाग में एकत्रित होती है तब वह पृथ्वीतत्व तथा आपतत्व से संबंधित होती है, जिससे मनोमय कोष में रजोगुण बढ जाता है । इससे यौनसंबंधी विचार में वृद्धि होती है । अनिष्ट शक्तियों की ये काली तरंगें व्यक्ति के जननांगों को प्रभावित करती है । इससे वे अंग फैलते तथा सिकुडते हैं । इससे मनोमय कोष प्रभावित होता है और यौन इच्छाएं बलवती होती है ।

 निराशा से मुक्ति हेतु आध्यात्मिक उपचार

अध्यात्मशास्त्र  के अनुसार किसी भी रोग का आध्यात्मिक मूल कारण के दो पहलू हैं :

१. तमोगुण में वृद्धि और उसके साथ ही सत्वगुण में न्यूनता ।

२. विशेष प्रकार की अनिष्ट शक्तिद्वारा आक्रमण किया जाना ।

अत: आध्यात्मिक उपचार पद्धति भी इन्हीं दो कारकों के निराकरण पर आधारित है ।

डेरेक को अपने धर्म के अनुसार ईश्वर के नाम का जप  करने के लिए कहा गया था । उसने तत्क्षण ही पूर्ण विश्वास के साथ नामजप प्रारंभ कर दिया । परिणामस्वरूप उसे शीघ्र ही कष्ट से राहत मिली ।

आध्यात्मिक उपचार पद्धति की क्रियाविधि

डेरेक के संदर्भ में आध्यात्मिक उपचार ईश्वर का नामजप था । नामजप ने कैसे कार्य किया, यह समझने के लिए, नामजप के इस विशिष्ट प्रसंग में क्या हुआ, यह दे रहे हैं।

सूक्ष्म-ज्ञान पर आधारित चित्र देखने के लिए यहां क्लिक करें ।

डेरेक ने इस विश्वास के साथ ईश्वर का नामजप किया कि यह उसे उसके कष्ट से निश्चित ही राहत देगा । परिणामस्वरूप १५ मिनट में ही उसका प्रभाव दिखने लगा । जैसे कि सूक्ष्म-ज्ञान पर आधारित चित्र में हम देखते हैं कि जैसे ही डेरेक नामजप प्रारंभ करता है उसमें ३० प्रतिशत चैतन्य की वृद्धि हुई । उससे सत्त्वप्रधान तरंगें तीव्र गति से प्रक्षेपित होने लगी । ये तरंगें कष्ट देनेवाली अनिष्ट शक्ति पर २० प्रतिशत तक आक्रमण करती है तथा डेरेक के सर्व ओर १० प्रतिशत तक सुरक्षा-कवच निर्मित करती है । इस कारण उस अनिष्ट शक्ति को जलने की अनुभूति होती है । डेरेक से अपने दृढ नियंणत्र को छोडने के लिए वह बाध्य होती है और एक ओर हट जाती है । अनिष्ट शक्ति डेरेक से पांच इंच पीछे हट जाती है । चैतन्य की प्राप्ति होने के कारण, अनिष्ट शक्ति की काली शक्ति बाहर निकलने लगी तथा शारीरिक पीडा अन्य लक्षणों सहित ३० प्रतिशततक घट गर्इ । सत्वप्रधान तरंगों के कारण मन पर आया काला आवरण नष्ट हो गया ।

यह डेरेक की विशिष्ट रूप से ठीक होने का वर्णन है ।

सतत ईश्वर के नामजप के कारण अनिष्ट शक्ति को साधक के शरीर को स्थायी रूप से छोडने के लिये विवश होना पडा ।

ये निम्न कारणों से हुआ –

१. सतत ईश्वर के नामजप से साधक में सत्वगुण की वृद्धि होती है तथा तमोगुण एवं रजोगुण घटने लगते हैं । सत्वगुण की वृद्धि के कारण अनिष्ट शक्ति उसे सह नहीं सकी परिणामस्वरूप उसे पीडा होने लगी । तमोगुण घट जाने से डेरेक में कोर्इ भी दुर्बलता न होने के कारण अपने पैर जमाने के लिए अनिष्ट शक्ति के लिए कुछ भी शेष नहीं रह गया था ।

२. जैसा कि सूक्ष्म-ज्ञान पर आधारित चित्र में दर्शाया गया है कि डेरेक के सर्व ओर एक सुरक्षा-कवच निर्मित हुआ है, इस कारण से वही अनिष्ट शक्ति अथवा अन्य अनिष्ट शक्ति (भूत, राक्षस इत्यादि) का प्रवेश प्रतिबंधित हो गया ।

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