सूर्य ग्रहण एवं चन्द्र ग्रहण का आध्यात्मिक महत्व तथा उनके प्रभाव

सूर्य ग्रहण के आध्यात्मिक महत्त्व दर्शानेवाला प्रात्यक्षिक

क्या आप जानते हैं कि सूर्य और चंद्र ग्रहण के हानिकारक आध्यात्मिक दुष्प्रभाव होते हैं ? ग्रहण के आप पर एवं आपके प्रियजनों पर क्या नकारात्मक प्रभाव पड सकते हैं तथा आप अपनी सुरक्षा के लिए क्या कर सकते हैं, इस विषय पर यह लेख प्रकाश डालता है ।

२०२४ में ग्रहण होने की दिनांक ग्रहण के प्रकार
२४-२५ मार्च २०२४ उपछाया चंद्र ग्रहण
८ अप्रैल २०२४ पूर्ण सूर्य ग्रहण
१७-१८ सितम्बर २०२४ अर्ध चन्द्र ग्रहण
२ अक्टूबर २०२४ वलयाकार सूर्य ग्रहण
१७ अक्टूबर २०२४ लगभग चंद्र ग्रहण

ग्रहण की परिभाषा : ग्रहण एक खगोलीय घटना है, जब एक खगोलीय पिंड पर दूसरे खगोलीय पिंड की छाया पडती है, तब ग्रहण होता है । ग्रहण शब्द का उपयोग प्रायः किसी सूर्य अथवा चंद्र ग्रहण का विवरण करने में होता है । जब पृथ्वी पर चंद्रमा की छाया पडती है तब सूर्य ग्रहण होता है और जब पृथ्वी सूर्य तथा चंद्रमा के बीच आती है, तब चंद्र ग्रहण होता है ।

सारांश : आध्यात्मिक स्तर पर ग्रहण एक विशेष घटना है । उस समय वातावरण में रज-तम बढ जाता है जिसका मानव पर हानिकारक प्रभाव होता है । बढे हुए रज-तम का लाभ उठाकर अनिष्ट शक्तियां अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न करती हैं, जिनका वैश्‍विक स्तर पर नकारात्मक परिणाम होता है । नियमित साधना से हम इसके सूक्ष्म (अमूर्त) हानिकारक प्रभाव से बच सकते हैं ।

कृपया ध्यान दें : इस लेख का आकलन होने के लिए कृपया लेख : सत्त्व, रज एवं तम – ब्रह्मांड के तीन सूक्ष्म मूलभूत घटक देखें ।

विषय सूची

१. सूर्य ग्रहण एवं चन्द्र ग्रहण के आध्यात्मिक महत्व की प्रस्तावना

प्रत्येक वर्ष हमें कई सूर्य अथवा चंद्र ग्रहण दिखाई देते हैं जो पूर्ण (खग्रास) अथवा आंशिक (खंडग्रास) होते हैं । प्रत्येक ग्रहण पृथ्वी पर किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में ही दिखाई देता है । बहुत बडे जन समुदाय की ग्रहण देखने में रुचि होती है और इसी तथ्य ने हमें ग्रहण के आध्यात्मिक अथवा अप्रत्यक्ष महत्त्व को समझने की प्रेरणा दी । हमने ग्रहण का महत्त्व एवं मानव पर इसका आध्यात्मिक प्रभाव समझने के लिए शोध किया ।

२. ग्रहण के प्रकार

आध्यात्मिक शोध के माध्यम से जो पहला तथ्य प्रकाश में आया वह यह है कि, स्थूल से (हमारे नेत्रों को दिखाई देनेवाले) दिखाई देनेवाले ग्रहण ही एकमात्र ग्रहण नहीं हैं वरन सूक्ष्म (अदृश्य) ग्रहण भी होते हैं । ये सूक्ष्म ग्रहण अति शक्तिशाली अनिष्ट शक्तियों (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) जिन्हें मांत्रिक कहा जाता है, उनके द्वारा निर्माण किए जाते हैं । ये मांत्रिक पांचवें से सातवें पाताल के होते हैं । वे अपनी अलौकिक शक्तियों के बल पर ग्रहण निर्माण करते हैं जो केवल विकसित और सक्रिय छठवीं ज्ञानेंद्रिय रखनेवालों को ही दिखाई देते हैं ।

अति शक्तिशाली अनिष्ट शक्तियां सूक्ष्म काली शक्ति का पर्दा बनाकर सूक्ष्म ग्रहण निर्माण करती हैं । ये पर्दा स्थूल भौतिक सूर्य तथा पृथ्वी के बीच अथवा सूक्ष्म सूर्य और पृथ्वी के बीच निर्माण किया जाता है ।

हमें दिखाई देनेवाले प्रत्येक आकाशीय पिंड, जैसे पृथ्वी अथवा सूर्य का एक सूक्ष्म पिंड भी होता है । यह ठीक मानव की सूक्ष्म-देह के जैसा ही होता है, जो मानव की स्थूल देह को सर्व ओर से ढंके हुए है । कृपया सूक्ष्म-देह से संबंधित संदर्भ लेख : हमारी निर्मिति किन घटकों से हुई है, देखें ।

ब्रह्मांडीय मूल तेज तत्त्व के माध्यम से सूर्य देवता का स्थूल/भौतिक प्रकटीकरण

भौतिक एवं सूक्ष्म सूर्य का नियंत्रण सूर्य देवता करते हैं । सूर्य देवता ईश्वर के वे प्रतिरूप हैं जो ब्रह्मांड के सभी सूर्य एवं तारागणों के कार्यकलापों को नियंत्रित करते हैं । सूर्य देवता मूलतः अप्रकट अवस्था में हैं । सूर्य देवता का प्रकटीकरण ब्रह्मांड में तेज तत्त्व के रूप में होता है तथा उसका स्थूल स्वरूप आकाश में सूर्य तथा पृथ्वी पर विद्युत अथवा अग्नि रूप में दिखाई देता है । सभी प्राणी सूर्य पर आश्रित हैं, सूर्य देव का मुख्य कर्तव्य ब्रह्मांड को प्रकाश एवं तेज की आपूर्ति करना है ।

चंद्रमा पर भी सूक्ष्म ग्रहण होते हैं, किंतु ब्रह्मांड पर उनका प्रभाव सूर्य ग्रहण की तुलना में अति न्यून होता है ।

अति शक्तिशाली मांत्रिक सूक्ष्म ग्रहण के समय सूर्य और पृथ्वी के मध्य अवरोध उत्पन्न कर (पर्दा डालकर) सूर्य के कार्य में बाधा डालते हैं; जिसके फलस्वरूप पृथ्वी पर रज-तम तत्त्व में वृद्धि होती है ।

ग्रहण के प्रकार – स्थूल एवं सूक्ष्म ग्रहणजितने भी ग्रहण होते हैं, उनमें से ७० % सूक्ष्म ग्रहण तथा ३० % स्थूल ग्रहण होते हैं । मानव (उच्च खगोल-विद्या विशारदों सहित सभी) केवल ३० % भौतिक ग्रहणों को ही समझ पाता है । इस प्रकार मानव सूक्ष्म ग्रहणों से पूर्णतया अनभिज्ञ रहता है ।

केवल ऐसे साधक जिनका आध्यात्मिक स्तर ५० % से अधिक है तथा जिनकी छठवीं ज्ञानेंद्रिय विकसित तथा कार्यरत है, वही सूक्ष्म ग्रहण एवं उसके सूक्ष्म प्रभाव समझ सकते हैं । साधारण मानव सूक्ष्म ग्रहण के अदृश्य प्रभाव नहीं समझ सकता ।

सूक्ष्म ग्रहण का मानव पर अनिष्ट प्रभाव साधारण भौतिक (स्थूल) चंद्र अथवा सूर्य ग्रहण की तुलना में ९ गुना अधिक होता है ।

३. सूर्य ग्रहण एवं चन्द्र ग्रहण के आध्यात्मिक महत्व

आध्यात्मिक शोध से यह ज्ञात हुआ है कि सभी प्रकार के ग्रहण रज-तम में वृद्धि करते हैं और सत्त्वगुण में न्यूनता लाते हैं । आरंभ में इस बढे हुए रज-तम के विविध सूक्ष्म स्तरीय दुष्प्रभाव भौतिक धरातल पर अनाकलनीय हो सकते हैं; तथापि इस रज-तम ग्रस्त परिस्थिति का उपयोग अनिष्ट शक्तियां समाज को हानि पहुंचाने के लिए करती हैं ।

ग्रहण के समय भौतिक अथवा सूक्ष्म सूर्य के समक्ष रखे सूक्ष्म अवरोध के फलस्वरूप आध्यात्मिक स्तर पर इसके दो महत्वपूर्ण प्रभाव होते हैं;

  • वातावरण अनिष्ट शक्तियों द्वारा प्रक्षेपित काली शक्ति को संग्रहित करने में पोषक बन जाता है । काली शक्ति एक प्रकार की आध्यात्मिक शक्ति होती है, जो अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण का मूल अस्त्र होती है ।
  • ग्रहण काल में वातावरण अनिष्ट शक्तियों के लिए सहायक हो जाता है । इस काल में वे अपनी काली शक्ति का उपयोग मानवजाति को हानि पहुंचाने तथा मानवजाति के विनाश के बीज बोने के लिए करती हैं । विभाग ४.४ का संदर्भ लें

३.१ सूर्य ग्रहण एवं चंद्र ग्रहण के समय नकारात्मक स्पंदनों में वृद्धि क्यों होती है?

रज-तम में वृद्धि निम्नलिखित दो कारणों से होती है :

  • स्थूल ग्रहण के समय रज-तम में वृद्धि होने का कारण है ग्रहण के समय सूर्य अथवा चंद्र का प्रकाश पृथ्वी पर पहुंचने से पहले से ही अवरद्ध हो जाना । ग्रहण काल का अंधकार रात-दिन के सामान्य चक्र में अनियमितता लाता है जिसके फलस्वरूप जिस समय प्रकाश होना चाहिए उस समय अंधकार हो जाता है । वास्तव में आध्यात्मिक दृष्टि से इस अद्भुत रात्रि समान वातावरण का विनाशकारी प्रभाव ग्रहण की तुलना में केवल २ % होता है । ऐसा इसलिए क्योंकि अनिष्ट शक्तियों द्वारा अंधकार का उपयोग कर रज-तम में वृद्धि करने की क्षमता और इसके फलस्वरूप समाज को पहुंचनेवाली हानि बहुत अधिक होती है ।
  • सूक्ष्म ग्रहण के संदर्भ में उच्च श्रेणी की अनिष्ट शक्तियां सूर्य और पृथ्वी के मध्य नकारात्मक काली शक्ति का पर्दा निर्माण करने के साथ ही सीधे सूक्ष्म सूर्य पर भी आक्रमण करती हैं । इस अवरोध के फलस्वरूप रज-तम में पुनः वृद्धि होती है ।

३.२ सूर्य ग्रहण से अधिक नकारात्मक स्पंदन क्यों उत्पन्न होते हैं?

चंद्र की अपेक्षा सूर्य पृथ्वी पर जीवन के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है । सूर्य को सूक्ष्म अथवा स्थूल स्तर पर अवरुद्ध करने से पृथ्वी सूक्ष्म एवं अमूर्त रूप से अधिक संवेदनशील हो जाती है जिसके कारण वातावरण अनिष्ट शक्तियों के (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) लिए अधिक पोषक बन जाता है ।

३.३ ग्रहण से नकारात्मक स्पंदनों में होने वाली सापेक्ष वृद्धि क्या है?

ब्रह्मांड के सांप्रत काल एवं ग्रहण काल में (कलियुग) त्रिगुणों के तुलनात्मक अंतर के अनुपात को निम्नलिखित सारणी में दर्शाया गया है । यह आंकडे स्थूल स्तर पर हुए ३० % तीव्रता के आंशिक ग्रहण द्वारा निर्मित रज-तम दर्शाते हैं ।

सूर्य ग्रहण के प्रभाव से हमारे सर्व ओर के नकारात्मक स्पंदनों में भी वृद्धि होना

ग्रहण के प्रकार पर रज-तम में वृद्धि की मात्रा निर्भर करती है अर्थात ग्रहण आंशिक है अथवा पूर्ण, सूर्य ग्रहण है अथवा चंद्रग्रहण, स्थूल ग्रहण है अथवा सूक्ष्म ग्रहण । नीचे दी गई सारणी में जैसे-जैसे स्थूल ग्रहण पूर्ण ग्रहण की ओर अग्रसर होता है, तब उस समय रज-तम में होनेवाली वृद्धि की मात्रा प्रस्तुत की गई है ।

रज-तम गुणों में वृद्धि

ग्रहण % सूर्यग्रहण चंद्रग्रहण
३० % (आंशिक) ५ % ४ %
५० % (आंशिक) ८ % ७ %
१०० % (पूर्ण) १० % ९ %

सूक्ष्म ग्रहण में रज-तम की मात्रा लगभग ५ % अधिक होती है ।

३.४ सूर्य ग्रहण अथवा चंद्र ग्रहण का आध्यात्मिक प्रभाव कितने समय तक रहता है?

ग्रहण काल में बढनेवाले रज-तम का गहरा प्रभाव होता है जिसे घटने में कई मास की कालावधि लगती है । नीचे प्रस्तुत लेखाचित्र (Chart) में हमने दर्शाया है कि ३० % आंशिक ग्रहण द्वारा निर्मित रज-तम की अधिकता को न्यून होने में कितना समय लगता है ।

आंशिक ग्रहण से उत्पन्न नकारात्मक स्पंदनों की अवधि

४. सूर्य ग्रहण एवं चन्द्र ग्रहण के आध्यात्मिक प्रभाव

४.१ ग्रहण का सूक्ष्म स्तरीय प्रभाव अधिकतम कहां होता है ?

ग्रहण का मानव पर होनेवाला अधिकतम सूक्ष्म स्तरीय प्रतिघात इस बात पर निर्भर है कि वह किस क्षेत्र में सर्वाधिक दिखार्इ दे रहा है । जितनी दृश्यता अधिक उतना ही उस क्षेत्र के लोगों पर अधिक प्रभाव पडता है ।

इसलिए यदि ग्रहण की दृश्यता प्रशांत महासागर के मध्य भाग में सर्वाधिक है, तब मानव पर इसका सूक्ष्म स्तरीय प्रभाव न्यूनतम होगा क्योंकि वह अल्प जनसंख्यावाला क्षेत्र है ।

४.२ अनिष्ट शक्तियां ग्रहण से उत्पन्न नकारात्मक स्पंदनों का उपयोग कैसे करती हैं?

अन्य काल की अपेक्षा ग्रहणकाल में अनिष्ट शक्तियों का बल १००० गुना बढ जाता है । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अनिष्ट शक्तियां ग्रहण द्वारा निर्मित रज-तम का उपयोग अपनी काली शक्ति का संचय बढाने में करती हैं । इसके लिए वे इस परिस्थिति का उपयोग साधना कर अपनी काली शक्ति बढाने में करती हैं अथवा साधकों से उनकी ईश्वर भक्ति द्वारा प्राप्त आध्यात्मिक शक्ति चुरा लेती हैं । काली शक्ति एक प्रकार की आध्यात्मिक शक्ति है, जिसका उपयोग समाज की हानि करने हेतु किया जाता है । निम्न चित्रांकन सूक्ष्म-ज्ञान पर आधारित है और यह दर्शाता है कि, काली शक्ति कैसे संग्रहित की जाती है ।

ग्रहण के समय आध्यात्मिक आयाम में क्या होता है?

कृपया लेख ‘हम रक्षात्मक किनारे (मंडल) क्यों बनाते हैं’ का संदर्भ लें ।

उपरोक्त सूक्ष्म चित्र यह दर्शाता है कि, अमूर्त सूक्ष्म स्तर पर ग्रहण काल में क्या होता है । पाताल के सूक्ष्म नकारात्मक क्षेत्रों में उच्चस्तर की अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) को सूक्ष्म मांत्रिक कहते हैं (अर्थात दूसरे पाताल से नीचे) । वे ग्रहण काल में बढे हुए रज-तम का उपयोग साधना जैसे, यज्ञ अथवा ध्यान कर अपनी काली शक्ति बढाने में करते हैं । विभिन्न मांत्रिकों द्वारा निर्मित काली शक्ति का प्रवाह सातवें पाताल की ओर होता है जहां उसे संग्रहित किया जाता है । काली शक्ति के ये सभी प्रवाह परस्पर जुडे होते हैं ।

सूक्ष्म धनात्मक (सात्त्विक) क्षेत्रों में ऋषि-मुनियों के सूक्ष्मदेह साधानारत (ध्यानसाधना) होते हैं । इन उच्चस्तरीय सात्त्विक क्षेत्रों से ईश्‍वरीय चैतन्य पृथ्वी पर रज-तम की अधिकतावाले क्षेत्र में युद्ध करने के लिए प्रवाहित होता है । इस प्रकार पृथ्वी पर ईश्‍वरीय और आसुरी शक्तियों में सूक्ष्म-युद्ध प्रारंभ होता है ।

४.३ सूर्य ग्रहण एवं चंद्र ग्रहण के व्यक्ति के शरीर और मन पर होने वाले प्रभाव

ग्रहण काल में लोगों के अपने मृत पूर्वजों द्वारा प्रभावित होने की संभावना अधिक होती है । अनेक प्रसंगों में मृत पूर्वज अपने वंशजों के जीवन में समस्याएं उत्पन्न करते हैं । ऐसा करने के लिए वे बढे रज-तम एवं अनिष्ट शक्तियों द्वारा ग्रहण काल में निर्मित बढी हुई काली शक्ति का आश्रय लेते हैं ।

कृपया लेख मेरे दिवंगत पूर्वज मुझे कष्ट क्यों देना चाहेंगे ’का संदर्भ लें ?

इस कारण लोग शारीरिक स्तर पर आलस्य, थकान, अस्वस्थता आदि का अनुभव कर सकते हैं । मानसिक स्तर पर भावना प्रधानता एवं नकारात्मक विचार, विशेषत: साधना के संबंध में आते हैं। ऐसा माना जाता है कि चंद्रमा मन को प्रभावित करता है । पूर्णिमा की रात को इसका प्रभाव और भी अधिक होता है । यह प्रभाव चंद्रग्रहण के काल में और बढ जाता है । इस प्रकार पूर्णिमा और चंद्रग्रहण एक साथ होनेसे यह अत्यधिक होता है । परंतु यह अमूर्त सूक्ष्म स्तर पर होता है अथार्त लोगों को कष्ट अनिष्ट शक्तियों के कारण होता है ।

ऐसे समय लोगों की निर्णय क्षमता न्यून हो जाती है फलस्वरूप त्रुटिपूर्ण निर्णय लेने की आशंका बढ जाती है; क्योंकि उनकी बुद्धि भी प्रभावित होती है ।

४.४ सूर्य ग्रहण एवं चंद्र ग्रहण के मनुष्य पर होनेवाले प्रभाव

जैसा कि पहले उल्लेख किया है, अनिष्ट शक्तियां ग्रहण काल में बढे हुए रज-तम का उपयोग काली शक्ति का संचय करने में करतीं हैं और वे इस काली शक्ति का उपयोग मानव जाति को विभिन्न प्रकार से हानि पहुंचाने में करती हैं । वे सूक्ष्म अप्रकट स्तर पर विनाश के बीज बोतीं हैं जो परिपक्व होकर भौतिक स्तर पर आगे प्रकट होता है । यह परिपक्वता काल कुछ दिनों से लेकर कई वर्षोंतक का हो सकता है । उदाहरणार्थ यह किसी संक्रामक महामारी जैसे बर्ड फ्लू अथवा इबोला जीवाणु के बीज बोकर किया जा सकता है अथवा तीसरे महायुद्ध के बीज बोकर ।

ग्रहण, अनिष्ट शक्तियों के लिए काली शक्ति का अधिक संचय करने हेतु आवश्यक परिस्थिति निर्मित कर उनकी बहुत सहायता करती है । तृतीय विश्वयुद्ध की भविष्यवाणियों पर आधारितहमारे लेख में यहउल्लेखकिया गया है कि विश्व को २०१९ तथा २०२५ के बीच संभवतः विश्वयुद्ध और भयानक प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पडेगा । जिनसे मानव जीवनकी अकल्पनीय हानि होगी । उच्च स्तर के मांत्रिक सूक्ष्म अप्रकट स्तर पर तीसरे महायुद्ध के उत्प्रेरक होंगे । वे अपनी काली शक्ति के माध्यम से ऐसी घटनाओं को क्रियान्वित करेंगे जो मानव को अपने ही सहयोगियों से तीसरा महायुद्ध करने के लिए उद्यत करेंगी । ग्रहण काल में ३० % तक उनकी काली शक्ति संचित की जाएगी । नीचे दी गई सारणी वातावरण में काली शक्ति निर्मित करने हेतु पोषक घटकों का वर्गीकरण करती है

२०१५ से २०२३ की कालावधि में महायुद्ध करवाने हेतु अनिष्ट शक्तियों को काली शक्ति कहां से प्राप्त होगी ?

घटक योगदान (प्रतिशत में)
ग्रहण ३० %
सांप्रतकाल ३० %
मानव का क्रियमाण ३० %
अन्य १० %

टिप्पणियां:

१. सांप्रतकाल का अर्थ है, कलियुग का वर्तमान काल । बढे हुए रज-तम के कारण ब्रह्मांड विनाश के चक्रीय क्रमों में गतिमान रहता है । वर्ष २००२ से २०१२ के बीच पृथ्वी पर रज-तम अपने चरम पर पहुंच गया है, जिसके फलस्वरूप आध्यात्मिक शुद्धिकरण काल के लिए पृथ्वी तैयार पर हो गई है ।

२. मानवीय कृत्य का अर्थ है, रज-तम प्रधान मानव द्वारा किए जानेवाले आसुरी कार्य । कृपया इस लेख का संदर्भ लें; ‘‘तीन सूक्ष्म-स्तरीय मूल घटक (त्रिगुण) और हमारी जीवनशैली’’

५. सूर्य ग्रहण एवं चंद्र ग्रहण के समय क्या करना चाहिए – क्या करें ? और क्या न करें ?

ग्रहण काल में वातावरण में काली शक्ति अधिक मात्रा में कार्यरत होती है, जिसके फलस्वरूप रज-तम बढा हुआ होता है । भले ही हमारे पास अतिंद्रिय संवेदीक्षमता न हो, तब भी ग्रहण काल के अप्रकट सूक्ष्म प्रभावों का प्रतिरोध करने के लिए अपने कार्यकलापों में परिवर्तन करना श्रेयस्कर है ।

प्राकृतिक आपदाएं तथा ग्रहण: जब समष्टि पाप बढ जाता है, तब पाप में वृद्धि करने के लिए उत्तरदाई उन लोगों को तथा जो परिस्थिति को नियंत्रित करने हेतु किसी भी प्रकार का कोई उपाय नहीं करते, उन्हें, दण्डित करने के लिए भूकंप, बाढ, महामारी, अकाल इत्यादि घटित होते हैं । ये आपदाएं अचानक आती हैं । परिणामस्वरूप, ऐसी आपदाओं से स्वयं के रक्षण के बारे में सोचने का समय ही नहीं मिल पाता । इसके विपरीत, ग्रहण जैसी ज्ञात घटनाओं के लिए, हम साधना द्वारा इसके दुष्प्रभावों से स्वयं का रक्षण कर सकते हैं । इसके लिए, आवश्यक है कि ग्रहण काल के समय (अर्थात् ग्रहण के आरंभ से समाप्ति तक), हमें साधना करनी चाहिए ।

– सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी (एसएसआरएफ के प्रेरणास्रोत)

क्या करें

  • ग्रहण काल में साधना करने से वातावरण के बढे हुए रज-तम एवं काली शक्ति के प्रभाव को निष्प्रभ किया जा सकता है । इसलिए यदि कोई व्यक्ति ग्रहण काल में तीव्र साधना करता है (साधना के छ: मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार)
    • तब भी उसपर ग्रहण काल का २० % तक आध्यात्मिक दुष्प्रभाव होगा।

    • तथापि बढे हुए रज-तम एवं काली शक्ति का प्रतिरोध करने के लिए वह ५० % अथवा उससे अधिक मात्रा में ईश्‍वर से प्राप्त चैतन्य ग्रहण कर सकता है ।
    • इस प्रकार कुल सात्त्विकता की मात्रा ३० % होगी ।

    इस प्रकार जो व्यक्ति ग्रहण काल में तीव्र साधना करेंगे उन्हें ३० % अथवा उससे अधिक शुद्ध आध्यात्मिक लाभ होगा ।

क्या न करें

  • महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों का आयोजन न करें : सभी कृत्य एवं विचार मूल सूक्ष्म घटकों (त्रिगुणों) के अंतर्गत आते हैं अर्थात वे सात्त्विक, राजसिक, तामसिक अथवा इनका योग जैसे राजसिक -तामसिक होते हैं । सभी शुभ एवं पवित्र कार्य प्रधानरूप से सात्त्विक अथवा राजसिक-सात्त्विक होते हैं । हमे यह विदित है कि ग्रहण काल में रज-तम के स्पंदन अत्यधिक मात्रा में संचारित होते हैं, अत: इस काल में किए शुभ कार्य वांछित फल नहीं देते । इसलिए परामर्श दिया जाता है कि इस काल में महत्त्वपूर्ण कार्य जैसे, उद्घाटन, महत्त्वपूर्ण व्यवसायिक समझौते आदि नहीं करने चाहिए ।
  • रज-तम गतिविधियां न्यून करें : सोना, शौच के लिए जाना, भोजन करना, संभोग करने, जैसे रज-तम प्रधान कृत्य हमें दिवंगत पूर्वजों एवं अनिष्ट शक्तियों से प्रभावित होने योग्य बना देते हैं ।
  • भोजन करना टालें : ग्रहण काल में वातावरण में रज-तम की अधिकता होने के कारण खाद्य पदार्थ एवं पाचनक्रिया दोनों ही प्रभावित होते हैं । अत: यह परामर्श दिया जाता है कि इस काल में भोजन न करें । कब एवं कितने समय के लिए भोजन नहीं करना चाहिए यह ग्रहण के प्रकार पर निर्भर करता है । ऐसा इसलिए क्योंकि सूर्य एवं चंद्र की किरणे कितनी मात्रा में पृथ्वी पर आ रहीं हैं यह इस बात पर निर्भर है कि ग्रहण काल में सूर्य अथवा चंद्र का कितना प्रतिशत भाग ढंका हुआ है ।

    ग्रहण के समय भोजन हेतु निषिद्ध काल

    खग्रास (पूर्ण ग्रहण) ग्रहण लगने के १२ घंटे पहले से
    यदि ३/४ भाग ढंका है ९ घंटे
    यदि १/२ भाग ढंका है ६ घंटे
    यदि १/४ भाग ढंका है ३ घंटे

यदि चंद्रोदय के समय ही चंद्र ग्रहण पड रहा है (उदयकालीन ग्रहण) तो चंद्रोदय के १२ घंटे पहले से ही भोजन नहीं करना चाहिए । उसी प्रकार यदि सूर्योदय के समय पर ही ग्रहण है तो (किस प्रकार का ग्रहण है इसका विचार किए बिना) पहले १२ घंटों से उपवास करना चाहिए । ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि विभिन्न सूक्ष्म क्रियाएं ग्रहण काल के १२ घंटे पहले ही कार्यान्वित होने लगती है । यदि सूर्यास्त अथवा चंद्र का अस्त ग्रहण काल में हो रहा हो तो ग्रहण समाप्त होने के अगले दिन स्नान करने के उपरांत भोजन करना चाहिए । बालक, वृद्ध तथा अस्वस्थ लोग इस बंधन का पालन मात्र साढे चार घंटेतक कर सकते हैं ।

६. महत्वपूर्ण बिंदु/निष्कर्ष- सूर्य ग्रहण एवं चंद्र ग्रहण का आध्यात्मिक महत्व

  • ग्रहण एक महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक घटना है जिसके दूरगामी दुष्प्रभाव होते हैं और अनिष्ट शक्तियां इनका लाभ उठातीं हैं ।
  • हम जहां रह रहे हैं यदि उस क्षेत्र में ग्रहण दिखार्इ दे रहा हो, तो सभी आध्यात्मिक सावधानियां रखना आवश्यक है ।
  • पूरे वर्ष नियमित साधना करने से ग्रहण के दुष्प्रभाव कम करने में सहायता प्राप्त होती है । साथ ही यदि कोई ग्रहण काल में तीव्र साधना करता है तो उसे इसका व्यक्तिगत सकारात्मक लाभ भी आध्यात्मिक दृष्टि से प्रगति के रूप में होता है ।