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१. समाज सेवा तथा साधना पर सर्वसामान्य दृष्टिकोण

स्पिरिचुअल साइंस रिसर्च फाउंडेशन तथा महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित आध्यात्मिक कार्यशालाओं के लिए जब नए साधक यहां आते हैं तो उनमें से कुछ साधक अपनी साधना बढाने के लिए लोगों की सहायता करना अथवा इसे अपने जीवन का उद्देश्य मानने के साथ, किसी प्रकार की समाज सेवा में भाग लेने की इच्छा प्रकट करते हैं ।

अनेक लोग यह समझते हैं कि जब वे मानवता के लिए समाज सेवा के कार्य जैसे; दीन-दुखियों की सहायता करना, चिकित्सीय सहायता उपलब्ध करवाना, सुविधाओं से वंचित बच्चों को पढाना, धर्मादाय संगठनों को दान देना, आपदाओं के समय लोगों की सहायता करना, वृद्ध जनों की देखभाल करना इत्यादि में संलग्न होते हैं तो इससे वे ईश्वर की ही सेवा करते हैं ।

वे समझते हैं कि ऐसे कार्यों द्वारा तथा अन्य लोगों के प्रति व्यक्तिगत त्याग से उनकी आध्यात्मिक उन्नति निश्चित होगी । ऐसे अनेक गैर सरकारी संगठन हैं जिनमें ऐसी इच्छा रखने वाले सहस्त्रों स्वयंसेवी काम कर रहे हैं । सभी के मन में इस विश्व को रहने के लिए एक उत्तम स्थान बनाने के महान उद्देश्य है। कभी-कभी किसी व्यक्ति में साधक के गुण होते हैं किंतु वह यह नहीं जानता कि वह एक साधक है ।

ऐसे व्यक्ति त्याग तथा अन्य लोगों का विचार करनेवाले अपने स्वाभाविक साधकत्व का प्रयोग समाज सेवा के कार्यों में करते हैं, क्योंकि वे लोगों की सहायता करने के अतिरिक्त आध्यात्मिक उन्नति करने का कोई अन्य मार्ग नहीं जानते ।

पूरे विश्व में यह एक आम धारणा है कि दरिद्र तथा दलितों की सहायता करना अति श्रेष्ठ कर्म है तथा ऐसा कार्य है जिससे समाज में सम्मान प्राप्त होता है । इसलिए यह समझा जा सकता है कि (क्यों) कुछ साधक चकित रह जाते हैं जब हम उन्हें यह बताते हैं कि सामाजिक सेवा साधना के तुल्य(बराबर) नहीं है । यह साधकों के लिए विशेष रूप से भ्रमित करने वाला है क्योंकि विश्व में अनेक तथाकथित आध्यात्मिक गुरु सक्रिय रूप से मानवतासंबंधी कृत्यों का प्रचार करते हैं ।

अतः लोगों की सहायता करने हेतु समाज सेवा के रूप में निष्ठा से किए जाने वाले प्रयास साधना के समांतर क्यों नहीं होते हैं तथा समाज सेवा के फलस्वरूप साधक की अपेक्षित आध्यात्मिक उन्नति क्यों नहीं होती ? वर्तमानकाल में इस सिद्धांत को समझना सरल नहीं भी हो सकता है । इस लेख में हमने इस सिद्धांत के पीछे छुपे औचित्य को समझाया है ताकि कि जो साधक सही अर्थ में आध्यात्मिक उन्नति हेतु प्रयास कर रहे हैं वे अपना समय तथा प्रयास सही दिशा में लगा सकें ।

२. मूलभूत आध्यात्मिक सिद्धांतों को समझना

आगे बढने से पूर्व पाठकों की जानकारी के लिए हमने कुछ मूलभूत आध्यात्मिक सिद्धांतों को संक्षेप में प्रस्तुत किया हैं जिससे जब हम इस विषय पर आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करें तब हम सभी इससे परिचित हों । मनुष्य किन घटकों से बना है ?  इससे आरंभ करते हैं । प्रत्येक मनुष्य स्थूल देह, प्राण शक्ति (आध्यात्मिक शक्ति का एक प्रकार अथवा हमारी जीवनीशक्ति), मन (हमारे पूर्व जन्मों में निर्मित संस्कारों के आधार पर हमारी भावनाओं तथा अनुभव का केंद्र), बुद्धि (हमारे निर्णय लेने की तथा विश्लेषणात्मक क्षमता), सूक्ष्म अहं, तथा आत्मा (हम सभी में विद्यमान ईश्वरीय तत्त्व) से निर्मित है । जब हमारी मृत्यु होती है तब हम अपनी स्थूल देह को भूलोक में त्याग देते हैं तथा हमारी सूक्ष्म देह अपनी मृत्यु उपरांत की यात्रा के लिए आगे निकल जाती है । सूक्ष्म देह में मन, बुद्धि, सूक्ष्म अहं तथा आत्मा होती है । सभी मनुष्य सुख की खोज में रहते हैं  तथा वे सुख की खोज अपनी पांच इंद्रियों, मन एवं बुद्धि द्वारा करते हैं । यद्यपि, हम सभी यह जानते हैं कि सभी सुख अस्थायी होते हैं क्योंकि हम जिन वस्तुओं में अपनी खुशी को खोजते हैं वे सभी परिवर्तन के अधीन अर्थात परिवर्तनीय होती हैं ।

इसके विपरीत आत्मा ईश्वर का अंश है तथा यही हमारा अनंत तथा वास्तविक स्वभाव है । आत्मा की प्रवृति का वर्णन परम सत्य, शाश्वत चैतन्य तथा आनंद के रूप में किया गया है । आत्मा सुख का सर्वोत्तम रूप है अर्थात उच्चतम स्तर है यह अपरिवर्तनीय ईश्वरीय तत्त्व की विशेषता है । हम सभी में कहीं न कहीं आत्मा का आनंद खोजे जाने की आकांक्षा होती है; किंतु हम इसे प्राप्त करने में सक्षम नहीं हैं क्योंकि हमारा ध्यान पांच इंद्रियों, मन एवं बुद्धि द्वारा अपनी गतिविधियों तथा बाह्य जगत से सुख अथवा सांसारिक स्तर का संतोष अनुभव करने पर केंद्रित है ।

साधना एक ऐसी प्रक्रिया है जो हमें यह समझने तथा अनुभव करने में सहायता करती है कि हमारा वास्तविक स्वरूप दिव्य है । इससे हमें यह समझने तथा अनुभव करने में सहायता प्राप्त होती है कि हम पंच ज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि नहीं है अपितु हम अपने भीतर आंतरिक रूप में विद्यमान आत्मा हैं । पंच ज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि तथा हमारे चारों ओर व्याप्त स्थूल जगत के साथ साथ सूक्ष्म जगत (आध्यात्मिक जगत) माया कहलाते हैं । ये हमें अपने वास्तविक स्वरूप जो कि आत्मा अथवा ईश्वरीय तत्त्व है को अनुभव करने से दूर ले जाती है ।

यह बात भी नहीं है कि हमने पहली बार जन्म लिया है तथा हममें से अधिकांश के लिए ऐसा भी नहीं है कि हम अंतिम बार मृत्यु को प्राप्त होंगे । कर्म अथवा प्रारब्ध के सिद्धांत  के अनुसार अन्य लोगों के साथ अपने लेन-देन के खाते को पूर्ण करने हेतु हमें अनेक बार जन्म तथा मृत्यु के चक्र से होकर गुजरना पडता है ।

जब हम दूसरों को दुःखी करते हैं तथा उन्हें कष्ट देते हैं तब उनके साथ हमारा नकारात्मक लेन-देन  निर्माण होगा तथा कर्म के सिद्धांत के अनुसार हमें उनसे उसी मात्रा में कष्ट प्राप्त होगा । हममें से कुछ के लिए इसे प्रचलित रूप से अपने पापों को भोगना कहा जाता है ।

इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति दूसरों के लिए अच्छा करता है तथा इससे उनको खुशी मिलती है तो उस व्यक्ति को पुण्य प्राप्त होंगे और उन पुण्य फलों को भोगने हेतु उसे पुनः जन्म लेना पडेगा । लेन-देन का यह संस्कार मन के अवचेतन भाग में संचित हो जाते हैं जिसकी हमने पूर्व में भी चर्चा की थी ।

वर्तमान काल में हमारे जीवन का औसतन ६५ प्रतिशत भाग प्रारब्ध द्वारा नियंत्रित तथा पूर्व जन्मों के कर्मों पर आधारित होता है । जीवन के शेष ३५ प्रतिशत भाग को हम अपनी क्रियमाण से व्यतीत कर सकते हैं । इस लेख के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु, हमे यह समझना आवश्यक है कि यदि हम अपने क्रियमाण का प्रयोग लोगों की सहायता करने में करेंगे तो इससे दूसरों को सुख प्राप्त होगा । इसके फलस्वरूप सामान्यतः पुण्य अथवा सकारात्मक लेन-देन का संचय होगा ।

यह ध्यान देने की बात है कि पाप तथा पुण्य दोनों ही हमे जीवन एवं मृत्यु के चक्र में ही उलझाए रखते हैं क्योंकि अपने संचित लेन-देन के खाते के एक छोटे भाग को भी पूर्ण करने हेतु हम बार-बार जन्म लेते हैं । न तो पुण्य निर्माण करने वाले कर्म और ना ही पाप निर्माण करने वाले कर्म हमें यह समझने तथा अनुभव करने में सहायता करते हैं कि पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि माया के भाग हैं न कि हमारे खरे ईश्वरीय स्वरूप की, जो की आत्मा है । अतः दोनों ही प्रकार के कर्मों से साधना नहीं होती है ।

हमारे जीवन के दो आध्यात्मिक उद्देश्य हैं, पहला, अपने लेन-देन के खाते (सकारात्मक अथवा नकारात्मक) को पूर्ण करना तथा दूसरा साधना द्वारा आध्यात्मिक प्रगति करना ।

इन मूलभूत आध्यात्मिक तथा जीवन की अवधारणाओं के विषय में अधिक जानने हेतु, आप आगे दिए गए लेख पढें, क्योंकि इनसे आपको प्रत्येक विषय पर विस्तृत जानकारी प्राप्त होगी ।

३. समाज सेवा द्वारा लोगों की सहायता करना साधना के समानांतर (तुल्य) क्यों नहीं है ?

आगे कुछ बिंदु दिए गए हैं जिन्हें हम यह निर्णय लेते समय ध्यान में रख सकते हैं कि क्या हमें (आध्यत्मिक प्रगति के इच्छुक साधकों के रूप में) समाज सेवा में सम्मिलित होना चाहिए ।

१. कष्ट का मूल कारण : लोगों को कष्ट क्यों भोगना पडता है, इसका मूल कारण यह है कि उनके पूर्व जन्मों में किए गए पापों के कारण निर्मित नकारात्मक लेन-देन अथवा नकारात्मक कर्म होते हैं । परिणामस्वरूप, उन्हें इस जीवन में दुःख भोगना ही पडेगा । दूसरों को कष्ट पाते देखना सरल नहीं होता है तथा यह स्वाभाविक भी है कि हम उनका कष्ट दूर करना चाहेंगे । किंतु, आध्यात्मिक स्तर पर, लोगों द्वारा कष्ट भोगते हुए देखकर हमें स्वयं से यह प्रश्न पूछने की आवश्यकता है कि क्या ईश्वर को यह सब नहीं पता है, तो भी वे इसमें हस्तक्षेप क्यों नहीं करते ? वे सर्वशक्तिमान हैं तथा वे किसी का भी कष्ट एक ही क्षण में दूर कर सकते हैं । तब भी वे हस्तक्षेप नहीं करते क्योंकि जो व्यक्ति माया में डूबा हुआ है वह माया के सिद्धांतों से बंधा है । ऐसे लोगों को (जो कि विश्व की जनसंख्या में अधिक मात्रा में है) उनके उन कर्मों तथा अकर्मों का कष्ट भोगना ही पडेगा जिनसे दूसरों को कष्ट हुआ हो । ईश्वर के घर में सब कुछ न्यायसंगत होता हैं । यदि किसी ने दूसरों को कष्ट दिया है तो कष्ट देने वाले को भी बुरे कर्मों के रूप में कष्ट भोगना ही पडेगा । ईश्वर इन सिद्धांतों को बाधित नहीं करते तथा उनके कष्टों को दूर नहीं करते

कलियुग (संघर्ष का युग) में सामान्य व्यक्ति के लिए उनके कर्मों के पीछे प्रमुख रूप से भौतिकवादी, भावनात्मक तथा बौद्धिक आवश्यकताएं हैं । चूंकि वे लोगपूर्ण रूप से माया में डूबे हुए हैं इसलिए कर्म के सिद्धांत कठोर हैं । उनके लिए जो जैसा बोएगा वो वैसा ही पायेगा – इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में । ईश्वर इसमें हस्तक्षेप नहीं करते ।

२. तो ईश्वर किसकी सहायता करते हैं : ईश्वर उनकी सहायता करने के लिए हस्तक्षेप करते हैं जो वास्तव में ईश्वर प्राप्ति के इच्छुक हैं । ऐसे साधक अपनी साधना के कारण माया (अथवा एक स्वप्न जिसे अधिकतर लोग वास्तविकता समझते हैं) से अलग तथा बाहर होना आरंभ कर देते हैं । वे केवल ईश्वर को खोजते हैं जो कि माया से परे हैं । ऐसे साधकों के लिए आवश्यकता पडने पर ईश्वर हस्तक्षेप करते हैं तथा उनकी साधना में आने वाली बाधाएं जो उनकी आध्यत्मिक उन्नति में अवरोध उत्पन्न करती हैं उन्हें दूर करते हैं । अतः ईश्वर कभी मानसिक स्तर पर सहायता नहीं करतें अपितु आध्यात्मिक स्तर पर सहायता करते हैं ।

(कृपया ध्यान दें कि यदि  साधना, अध्यात्म के छः मूलभूत सिद्धांतों  के अनुसार की जाए तब आध्यात्मिक प्रगति शीघ्र होती है ।)

३. जब हम दान देते हैं तब क्या होता है : जब कोई धर्मादाय संगठनों, गैर सरकारी संगठनों अथवा जरूरतमंद लोगों को दान देता है तो वह मानसिक स्तर पर होगा तथा यह आगे केवल माया में ही फंसाएगा । इसका कारण यह है कि माया में ऐसे अच्छे कर्म करने से पुण्य प्राप्त होता है । पुण्यों को भोगने के लिए भी पुनर्जन्म लेना पडेगा तथा सुखमय प्रारब्ध को भोगना पडेगा । केवल साधना से सर्व कर्म नष्ट हो जाते हैं तथा पुनर्जन्म के चक्र से निकलने में सहायता प्राप्त होती है । यह व्यक्ति के संचित प्रारब्ध से पुण्य तथा पाप को निष्प्रभाव कर देती है ।  अतः आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य से पूर्ण रूप से समाज सेवा द्वारा लोगों की सहायता करने में समय नष्ट करने की अपेक्षा व्यक्ति को स्वयं की साधना को बढाने का प्रयास करना चाहिए तथा दूसरों की भी आध्यात्मिक प्रगति करवाने में सहायता करनी चाहिए । आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य से, दूसरों की आध्यात्मिक प्रगति होने में सहायता करना वास्तव में सही रूप में सहायता मानी गयी है । अध्यात्म का प्रसार करना तथा दूसरों की आध्यात्मिक प्रगति होने में सहायता करना ही वास्तविक रूप में ईश्वर की सेवा तथा मानवतावादी प्रयास हैं ।

ईश्वर की इच्छा के समान ही, खरे संत तथा गुरु किसी के भी प्रारब्ध में हस्तक्षेप नहीं करते । इसका अर्थ है कि लोगों के सांसारिक कष्ट जैसे चर्म रोग, आर्थिक समस्या, गृहक्लेश इत्यादि को मिटाने में उनकी सहायता करके वे अपना समय नष्ट नहीं करते । वे केवल उनकी सहायता करते हैं जो वास्तव में ईश्वर प्राप्ति के लिए इच्छुक हैं । एक बार जब गुरु जान लेते हैं कि यह व्यक्ति ईश्वर प्राप्ति के लिए वास्तविक रूप से इच्छुक है तो वे उसकी आध्यात्मिक प्रगति होने में सहायता हेतु सब कुछ करते हैं । गुरु साधक पर अपनी कृपा वर्षाव कर तथा उसका प्रारब्ध भी घटा सकते हैं । ऐसा तभी होगा जब साधक में ईश्वर प्राप्ति की इच्छा बहुत प्रबल होगी तथा वह आध्यामिक प्रगति करने हेतु ईमानदारी से प्रयास करेगा ।

४. समाज सेवा का सीमित कार्य क्षेत्र : जब कोई व्यक्ति दरिद्र अथवा जरूरतमंद को दान देने की सेवा करता है तो वह कितने लोगों की सहायता कर सकेगा तथा कब तक कर सकेगा ? हम सभी की क्षमताएं सीमित होती हैं । उदाहरण, यदि कोई किसी दूसरे व्यक्ति को १०० रुपये देता है जो दरिद्र है, इससे उसको कुछ अस्थायी रूप से राहत मिलेगी तथा भोजन प्राप्त होगा । किंतु इससे उसकी समस्या सदा के लिए नहीं मिटेगी । कुछ दिनों उपरांत पुनः उसके पास भोजन खरीदने के लिए रुपयें नहीं होंगे । इस प्रकार वास्तव में कितने लोगों की सहायता की जा सकती है ? हमारी क्षमताएं तथा साधन सीमित हैं तथा इस विश्व में कष्ट से पीडित लोग असंख्य हैं ।

एक कहावत है, ‘यदि आप किसी को एक मछली देते हैं तो उसे एक दिन का भोजन देते हैं पर यदि आप किसी को मछली पकडना सिखाते हैं तो उसे जीवन भर के लिए भोजन देते हैं’ । लगभग सभी प्रसंगों में व्यक्ति अपने प्रारब्ध के कारण ही दरिद्र होता है । यदि व्यक्ति के प्रारब्ध में यह है कि उसे दरिद्र होना चाहिए अथवा कोई विशेष कष्ट होने चाहिए तो केवल साधना से ही उसके नकारात्मक कर्म नष्ट हो सकते हैं तथा अपने कष्टों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है । अतः किसी को साधना करना सिखाने का अर्थ होगा उसे मात्र एक मछली देने के स्थान पर मछली पकडना सिखाना । यह सहायता करने का अधिक स्थायी रूप है तथा इससे व्यक्ति जन्म तथा मृत्यु के चक्र से निकलने में समर्थ हो जाता है । प्रारंभिक चरण में यह दूसरों को बताया जा सकता है कि साधना के रूप में ईश्वर का नाम जप कैसे किया जाए ।

५. लोगों की सहायता करने की प्रभावशीलता को बढाना : यह तो सिद्ध हो गया कि लोगों को उनकी साधना आरंभ करने तथा उसे निरंतर बनाए रखने में उनकी सहायता करना उच्चतम कोटि की सहायता है । अब हम यह देखेंग कि हम इसे और प्रभावी कैसे बना सकते हैं । यदि हम स्वयं साधना नहीं करेंगे तो हमारे द्वारा दूसरों को साधना आरंभ करने के विषय में बताएगें तब उन पर हमारे शब्दों का प्रभाव कम पडेगा ।

जब हम साधना आरंभ करते हैं तब हमारी आध्यत्मिक उन्नति होती है तथा इससे हमारी वाणी एवं प्रयासों में भी चैतन्य की वृद्धि होगी । तथा ईश्वर हमारा प्रयोग मानवता की आध्यात्मिक उन्नति के अपने कार्य के संचालन में हमें माध्यम बना कर कर सकेंगे । यदि एक सामान्य व्यक्ति विश्व में शांति चाहता है अथवा विश्व को एक बेहतर स्थान के रूप में परिवर्तित होते देखना चाहता है तो वास्तव में यह उसकी इच्छा हुई । किंतु जब एक आध्यात्मिक रूप से उन्नत व्यक्ति कुछ चाहता है, जैसे कि गुरु के मन में यह विचार भी आ जाए कि ‘ऐसा-ऐसा हो’ तो वैसा प्रत्यक्ष होने के लिए वह विचार ही पर्याप्त है । और किसी की आवश्यकता नहीं होगी । यह केवल उन संतों के संदर्भ में संभव है जिनका आध्यात्मिक स्तर ८० प्रतिशत से ऊपर है । इसका कारण यह है कि संत साक्षात ईश्वर के सगुण रूप होते हैं । गुरु तत्त्व ब्रह्माण्ड में विद्यमान वह तत्त्व है जो ईश्वर प्राप्ति हेतु साधकों का मार्गदर्शन करता है । उच्चतम आध्यात्मिक स्तर पर तो इच्छा की भी आवश्यकता नहीं होती, मात्र गुरु का अस्तित्व ही पर्याप्त होता है । इसे समझने हेतु सबसे अच्छा उदाहरण है सूर्य का अस्तित्त्व । इसके उदय होने से प्रातः काल सभी उठ जाते हैं तथा पुष्प खिल उठते हैं । ऐसा मात्र इसके अस्तित्व से हो जाता है । सूर्य किसी को भी जगने को नहीं कहता तथा पुष्पों को खिलने को नहीं कहता । ९० प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर के गुरु का कार्य इसी प्रकार होता है ।

६. अपने समय का सबसे परिणामकारी उपयोग करना : धरती पर हमारा जीवन सीमित काल के लिए है । एक बार साधना का महत्त्व तथा अपने जन्म लेने का मुख्य कारण  समझ लेने पर हमारे सभी प्रयास आदर्श रूप से इसके (साधना के) अनुरूप ही होने चाहिए । सबसे अधिक प्रभावशाली साधना आरंभ करने के लिए हमें अपने विवेक का भी उपयोग करना चाहिए ।

इस बात को स्पष्ट रूप से समझने हेतु एक उदाहरण लेते हैं । मान लीजिए कि आपको ३ सुरक्षित बेंकों में निवेश करने का अवसर मिला हो तथा तीनों बेंक क्रमशः ५ प्रतिशत, १० प्रतिशत तथा ११.५ प्रतिशत ब्याज दर उपलब्ध करवाती हो । तो आप किस बैंक में निवेश करेंगे ? आप तुरंत ११.५ प्रतिशत ब्याज दर उपलब्ध करवाने वाली बैंक का ही चयन करेंगे न ।

बैंक के उदाहरण के समान ही साधकों का प्रसंग भी में है । हमें भी कौनसी साधना करनी है इसका निर्णय लेने के लिए अपने विवेक का उपयोग करना चाहिए । एक ही स्तर की साधना करते रहने पर  हमारे पूरे जीवन में प्रगति नहीं हो पाएगी । हम पर यह दायित्व है कि हम साधना की प्रभावकारिता के अनुरूप ही सही निर्णय लें । हम यह नहीं कह सकते कि हम नहीं जानते । हमें सदैव यह सीखने की अवस्था में रहना होगा कि हम अपनी साधना में और अधिक सुधार कैसे ला सकते हैं ।

समाज सेवा के प्रसंग में, अच्छा पहलू यह है कि समाज सेवा से हमें केवल अपने ही विषय में सोचने वाले विचार को घटाने में सहायता प्राप्त होती है । इससे हममें सेवा का भाव निर्माण होने में सहायता मिलती है तथा यह भी सीखते हैं कि त्याग कैसे किया जाता हैं । यदि हम आध्यात्मिक उन्नति करना चाहते हैं तो यह सभी महत्वपूर्ण गुण हममें होने चाहिए । अतः समाज सेवा को वास्तविक साधना के लिए किए जाने वाले प्रारंभिक प्रयासों में से एक मान सकते हैं ।

किंतु इसके नकारात्मक पक्ष यह है कि इससे :

  • हमारे संचित खाते में पुण्य निर्माण होते हैं जिन्हें भोगने के लिए पुनः जन्म लेना पडेगा,
  • हममें यह अनुभूति बनी रहेगी कि माया ही वास्तविकता है,
  • इसकी प्रवृति हमारे मन में भावना के संस्कार बढा देगी,
  • हम जो कार्य कर रहे हैं उसके विषय में विचार होने के कारण हमारा गर्व और अहं सदैव बढेगा

यह सभी कारक घटक हमारी आध्यात्मिक उन्नति के बाधक हैं । समाज सेवा करने से आध्यात्मिक उन्नति कर पाना दुर्लभ है भले ही वह किसी गुरु कहलाने वाले व्यक्ति के मार्गदर्शन में रहकर की जाए । एक सामान्य व्यक्ति जो बहुत स्वार्थी है वह केवल स्वयं पर ही ध्यान देता है, उसके लिए यह करना ठीक है क्योंकि प्रथम चरण के रूप में कम से कम वह लोगों की सहायता तो करेगा । इससे उसको ‘मैं भला तथा मेरा परिवार भला” वाली सोच से बाहर निकलने में सहायता मिलेगी तथा कम से कम वह दूसरों के विषय में सोच पाएगा ।

समाज सेवा को अपनाने वाले लोगों के लिए अन्य नकारात्मक पहलू यह है कि वे ऐसा केवल अपनी रुचि के लिए अथवा अच्छा लगने के लिए करते हैं तथा किसी आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन में नहीं करते । अतः वे अपने मन में यह संस्कार दृढ कर लेते हैं कि समाज सेवा करना अच्छा है तथा प्रत्येक जन्म में ऐसा करने की आकांक्षा रखते हैं । इस प्रकार एक साधक बिना कोई आध्यात्मिक उन्नति किए ही अपने अनेक जन्मों को व्यर्थ कर सकता है ।

जो साधक वास्तव में ईश्वर प्राप्ति करना चाहते हैं, उन्हें अपना समय नष्ट नहीं होने देना चाहिए अपितु अपनी समस्त शक्ति तथा साधनों को साधना करने में केंद्रित करके तथा उसे ईश्वर प्राप्ति की ओर आगे बढना चाहिए ।

कर्मयोगानुसार : कुछ लोग कहते हैं कि वे कर्मयोगानुसार साधना करते हैं और इसलिए वे समाज सेवा करते हैं । किंतु कर्मयोगानुसार साधना करने हेतु दो सिद्धांतों का पूर्ण होना आवश्यक है:

अ. कर्मयोग अर्थात फल की अपेक्षा से रहित होकर तथा कर्तापन रहित होकर कर्म करना । ऐसा करना अत्यधिक कठिन होता है । कार्य करते समय सदैव परिणाम की कुछ अपेक्षा रहती है तथा कुछ कर्तापन भी होता है । कर्तापन होना अर्थात पंचज्ञानेंद्रिय, मन तथा बुद्धि को कार्य का श्रेय देना करना ।

आ. यदि आप किसी की सहायता कर रहे हैं , तो वह व्यक्ति सहायता प्राप्त करने योग्य भी होना चाहिए । आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य से जो व्यक्ति सहायता का प्रयोग आध्यात्मिक उन्नति के लिए करता है तथा जिसका उद्देश्य आध्यात्मिक उन्नति करना है, उसे सहायता के योग्य माना जा सकता है । यदि आप साधक की सहायता करेंगे तो उससे उसकी आध्यात्मिक उन्नति होगी तथा इससे कोई भी लेन-देन निर्माण नहीं होगा । ईश्वर साधकों की सहायता करते हैं तथा जब हम भी साधकों की सहायता करेंगे तब हममें भी ईश्वरीय गुण निर्माण होंगे तथा इससे हमारी भी आध्यात्मिक उन्नति होगी ।

कुछ लोग यह समझते हैं कि ईश्वर सभी में व्याप्त हैं तथा जरूरतमंद लोगों की सहायता करने से वे उनमें विद्यमान ईश्वर की ही सेवा कर रहे हैं । यह एक भ्रम है । व्यक्ति को सहायता की आवश्यकता हो सकती है, किंतु उसमें विद्यमान आत्मा अथवा ईश्वरीय तत्त्व को सहायता की कोई आवश्यकता नहीं होती । आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य से अध्यात्म का प्रसार करना तथा साधना करने में लोगों की सहायता करना ईश्वर तथा मानवता की सच्ची सेवा है – यही समाज सेवा का उच्चतम तथा शुद्ध रूप है क्योंकि इसीसे जीवन तथा मृत्यु के चक्र से निकलने तथा आनंद का अनुभव करने में सहायता प्राप्त होगी ।

४. संक्षेप में

जो लोग विश्व में परिवर्तन लाना चाहते हैं उनके लिए समाज सेवा की ओर झुकाव स्पष्ट है । एक समाज सेवक समाज में अपने योगदान से स्थूल सकारात्मक परिणाम देखेगा । इसमें लोगों की सहायता करना, एक अनुभव के रूप में संतोषजनक हो सकता है । माया में किए गए किसी भी सकारात्मक कर्म का फल माया में ही प्राप्त होगा जो व्यक्ति के कर्म अथवा सुख में पुण्य के रूप में वृद्धि करेगा । जो ईश्वर प्राप्ति के इच्छुक हैं तथा जिनका उद्देश्य ईश्वर प्राप्ति करना और आनंद को अनुभव करना है उन्हें अलग प्रकार की आध्यात्मिक यात्रा करने की आवश्यकता होगी तथा अपनी साधना को अधिक से अधिक सूक्ष्म बनाने की आवश्यकता होगी ।

SSRF में शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति करने हेतु हम साधना के ८ चरणों का सुझाव देते हैं । यह चरण आपको साधना आरंभ करने में तथा आपकी वर्तमान साधना को सुदृढ बनाने में सहायता कर सकते हैं । SSRF के मार्दर्शन में साधना करने वाले अनेक साधक पूर्व में किसी न किसी रूप में समाज सेवा करते थे । किंतु जब उन्होंने SSRF के मार्गदर्शन के अनुसार साधना आरंभ की तब उन्हें उच्च अनुभूतियां होने लगी तथा उन्हें समाज सेवा की सीमितता समझ आई ।